श्रीमद् भगवद् गीता के सातवें अध्याय का तीसरा श्लोक है:-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिðये।
यततामपि सिðानां कश्चिन्मां वेन्ति तत्वतः।।
’’हज़ारों मनुष्यों में कोई विरला ही सिðि के लिए, (सर्वात्मा-परमात्मा को यथार्थतया जानने हेतु) यत्न करता है और उन यत्न करने वाले सिद्धों अर्थात् साधकों में कोई विरला ही मुझे तत्वतः (यथार्थ रूप से ) जानता है।‘‘
सभी प्रकार के सांसारिक भोग विलासों की कामना का त्याग करके दुःख, हानि एवं मरण की चिंताओं से मोक्ष प्राप्त कर लेने को ही सिद्धि कहा गया है। वास्तव में इस मुक्ति का अर्थ भगवत् प्राप्ति की तीव्र इच्छा है। यही इच्छा ज्ञान की पहली भूमिका में परिपक्व अवस्था को प्राप्त हुए पुरूष का लक्षण है।
मानवीय बुद्धि का पक्षि वैसे तो सृष्टि रूपी क्षितिज के पार तक उड़ने को आतुर रहता है परन्तु उस परम्महत शिखर के विचार से ही उसके पंख जलने लगते हैं। बड़े से बड़े बुद्धिजीवी तथा दार्शनिक की दृष्टि भी इससे आगे नहीं पहुंचती कि एक शक्ति जो सर्वोपरि है, उसने हमें पंच भूत के सम्मिश्रण से निर्मित किया, आत्मा का वरदान दिया, बोलने की शक्ति के साथ ही सोचने समझने के अवसर उपलब्ध कराए और बस ! उस सर्व शक्तिमान ने यह सब क्यों किया? इस प्रश्न पर या तो वे मूक हो जाते हैं या नास्तिकता का लबादा ओढ़कर यथार्थ को नकार देते हैं। परन्तु गंभीर चिंतन करने वाले व्यक्ति माया रूपी इस संसार को ऐसा परीक्षा गृह मानते हैं जहां मानव रूपी विद्यार्थी की योग्यता का परीक्षण दैविक शिक्षा के आदर्शों पर होता है। सिद्ध पुरूष वही है जिसकी दृष्टि में संपूर्ण मानवता होती है और जो अपने त्याग से दैविक आदर्शों का प्रकाश पूरे संसार मे बिखेरने का प्रयास करता है। परन्तु जैसा कि भगवत् गीता के श्लोक से ज्ञात होता है, त्याग की कसौटी पर खरे उतरने वाले सिद्ध पुरूषों की संख्या गिनते समय हाथों की अंगुलियां भी अधिक हो जाती हैं।
जब-जब मानव समाज ’’दिव्यचक्षुयोग‘‘ खो देता है तब-तब ’’यदा-यदा ही धर्मस्यः‘‘ के अनुसार अवताार आकर उसे वही दिव्यचक्षुयोग प्रदान करता है। दिव्यचक्षुयोग से तात्पर्य वह ज्ञान है जो सृष्टि से मनुष्य का ठीक स्थान, सृष्टि तथा सृष्टिकर्ता से उसका वास्तविक संबंध और उसके अंतिम लक्ष्य का निरूपण करता है।
आसुरी संपत्ति की प्राप्ति में लग्न एवं मानवीय मूल्यों को भयंकर वेग से शैतानी-कन्दरा में निमग्न करने वालों के दूषित प्रभाव से समाज को बचाने का प्रयास उन मनुष्यों का पवित्रा कर्तव्य है जिन्हें उन कुंजियों के संरक्षण का सौभाग्य प्राप्त है जिनसे मानवता के उच्च आदर्शों, शांति एवं प्रेम के महती उसूलों तथा विश्व बंधुत्व के द्वारों की अर्गलाएं दूर हो सकती हैं। ऐसे ही मनुष्य सिद्ध होते हैं, और उन्हीं के पद् चिन्ह मानवता को दर-दर भटकने से बचाकर मोक्ष की सीधी राह दिखाते हैं। हज़रत इमाम हुसैन ऐसे ही सिद्ध पुरूष थे। उनका त्याग सदैव मानवता के भावी आदर्शों को उज्जवल करता रहेगा। मुहर्रम का अन्र्तराष्ट्रीय त्यौहार उन्हीं की याद को ताज़ा करने तथा उनकी महान, अद्वितीय और अमूल्य क़ुर्बानी से प्र्रेरणा प्राप्त करने के लिए मनाया जाता है।
प्रायः तीज त्यौहार किसी ऐसी घटना से संबंधित होते हैं। जिसकी सुखद स्मृति लोगों में हर्ष तथा उल्लास का संचार कर देती है किन्तु मुहर्रम एक ऐसा पर्व है जो एक अत्यंत दुखद घटना से संबंधित है, और जिसकी याद लोगों को शोक मग्न कर देती है।
लोगों को सामुहिक रूप से शोक मनाते हुए देखकर, स्वाभाविक रूप से जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इस दुःख का कारण क्या है? धर्म तथा अर्धम, शिव तथा अशिव का संघर्ष चिर पुरातन है। यह संघर्ष हर युग में युग की चेतना के अनुरूप चलता रहता है। तथा युग-पुरूष धर्म तथा जीवन के शाश्वत मूल्यों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैें। पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ने कर्बला के मैदान मे अपनी, अपने परिवार की तथा अपने साथियों की बलि देकर, अपना सर्वस्व लुटाकर धर्म अर्थात मानवता की रक्षा का महान कर्तव्य पूरा किया।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब ने मानव मात्रा को समता,एकता, शांति, सहयोग एवं भाईचारे का जो संदेश दिया था, उसके फलस्वरूप अरब के निवासियों की आचारवली तथा जीवन दर्शन में भारी क्रांति आई थी। क़बीलों के आपसी द्वेष तथा कलह के स्थान पर आपसी भाईचारे एवं सहयोग की भावना ने उन्हें एक सूत में पिरो दिया था। किन्तु साम्राज्य-स्थापना तथा धन और ऐश्वर्य के आधिक्य से सामंतवादी ऊंच-नीच की प्रवृत्ति को प्रश्रय मिलने लगा था। यज़ीद जो अपने दुराचार तथा व्यभिचार के लिए प्रसिद्ध था, मुसलमानों का ख़लीफ़ा बन बैठा था। ख़लीफ़ा मुसलमानों का धार्मिक तथा राजनैतिक नेता होता था, किन्तु यज़ीद ऐसा व्यक्ति था जिसका धर्म से कोई संबंध नहीं था। उसके पिता ने अपने राजसी प्रभाव का उपयोग करके बल तथा छल के प्रयोग से उसे ख़लीफ़ा बनवा दिया था। उसके पिता के मरने पर, अभिषेक होते ही यज़ीद ने इमाम हुसैन से अपनी बैअत चाही। ’’बैअत‘‘ का अर्थ बिना किसी शर्त के अधीनता स्वीकार करना होता है। इमाम हुसैन पैग़म्बर के नवासे थे तथा उनके पिता हज़रत अली ने हर प्रकार से अपने भाई तथा संरक्षक हज़रत मुहम्मद साहब का इस्लाम की धार्मिक क्रांति को फैलाने में सहयोग दिया था। ऐसी दशा में यदि इमाम हुसैन यज़ीद की अधीनता स्वीकार कर लेते तो वह क्रांति दीप जो सामाजिक एकता, सहयोग एवं सहिष्णुता का प्रकाश फैला रहा था साम्राज्यवादी धर्म विरोधी प्रवृत्तियों के झंझावत मेें सदा सर्वदा के लिए बुझ जाता। यज़ीद का घ्येय भी यही था। इस्लाम का पोषण करना, उसे सहारा देना इमाम हुसैन की विरासत थी तो उसका विरोध करना यज़ीद की पारिवारिक परंपरा।
इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैअत नहीं की थी लेकिन वे चुपचाप मदीने में जीवन व्यतीत कर रहे थे। राजनीति से उनका कोई संबंध नहीं था। परंतु यज़ीद ने अपने मदीना स्थित गवर्नर को आदेश दिया कि इमाम हुसैन को बैअत करने को विवश करो और यदि वे इंकार करें तो उनका सिर काट कर भेज दो। ऐसी दशा में राजनीति से अलग थलग जीवन व्यतीत करने का इमाम हुसैन द्वारा अपनाया हुआ तीसरा मार्ग बन्द हो गया। अब या तो वह बैअत करके प्रतिबद्ध हो जाते और धर्म विरोधी कृत्यों के भागीदार बन जाते या बैअत से इंकार करके अपनी मृत्यु का आलिंगन करते। इमाम हुसैन सच्चाई और धर्म के प्रति अपनी वफ़ादारी तथा पैतृक परम्पराओं के कारण बैअत कर ही नहीं सकते थे क्योंकि यह असत्य तथा अधर्म के सामने सिर झुकाना था। अब उनके सम्मुख केवल एक मार्ग रह गया था कि वह असत्य एवं अधर्म का वीरता पूर्वक सामना कर मृत्यु का वरण करें । उनकी मृत्यु उन असंख्य लोगों के लिए पथ प्रदर्शक बन गई जो धर्म और अधर्म के संघर्ष में किंकर्तव्यविमूढ़ थे। इमाम हुसैन चाहते भी यही थे कि उनकी कु़र्बानी क्रांति का आव्हान बन जाए जिससे धर्म की पुर्नस्थापना हो तथा अधर्म जो धर्म के भेष में जन मानस को विकृत कर रहा था, सदा के लिए समाप्त हो जाए।
इस निश्चय के बाद इमाम हुसैन का हर काम उनकी शांति प्रियता तथा निश्चय की दृढ़ता का परिचायक है जबकि यज़ीद तथा उसके सहयोगियों का प्रत्येक काम उनके ज़ुल्म, बर्बरता तथा मदांधता का द्योतक है। इमाम हुसैन ने देखा कि अब उनका मदीने में रहना सुरक्षा के प्रतिकूल है तो आप सपरिवार मक्का चले गए। इस्लाम धर्म में मक्का पनाह की जगह है, वहां कोई किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता। इमाम हुसैन ने यहां आकर भी राजनीति से अलग-थलग ही रहना उचित समझा, न तो आप ने अपनी स्थिति को मज़बूत बनाने की कोई चेष्टा कि और न किसी को अपनी सहायता के लिए बुलाया। हज का समय आ रहा था। इस्लाम के अनुयायी संसार के कोने-कोने से मक्का मे इकट्ठे हो रहे थे। अभी आप मक्के में थे कि ’’कूफ़ा‘‘(जो आपके पिता हज़रत अली की राजधानी थी) के लोगों ने आपको धर्म के प्रचार के उद्देश्य से बुलाना शुरू किया। इस विषय में कूफ़ा वालों ने आपको इतना बाध्य किया कि कुछ ही दिनों में पांच संदेश वाहक तथा पचपन पत्रा आये। उनके बुलाने पर इमाम ने अपने भाई मुस्लिम को कूफा भेजा। इधर मक्का में सरदारों ने आपको कूफ़ा जाने से रोका। आपने कहा कि ’’यदि मैं चींटी के सूराख़ में भी जाकर रहूं तो भी ये लोग मुझे ज़रूर क़त्ल करेंगे। मुझे यह बात पसंद है कि मैं मक्का के बाहर मारा जाऊं इसकी अपेक्षा की मेरी हत्या मक्के के अंदर हो।‘‘ इधर तो यह स्थिति थी, उधर यज़ीद ने आपकी हत्या का षडयंत्रा रचा। उसने हाजियों के वेश में अपने आदमीं भेजे कि वह हज करते समय आपकी हत्या कर दें। यदि ऐसी दुर्घना मक्का में होती तो इमाम के साथियों तथा यज़ीद के आदमियों के बीच संघर्ष होता। इमाम रक्तपात वहाॅं नहीं चाहते थे। अतः आपने हज के दो दिन पहले मक्का को छोड़कर कूफ़ा की राह ली। यह वह समय था जबकि दूर-दूर से लोग हज के लिए मक्का आ रहे थे और इमाम हज न करके मक्का छोड़ रहे थे। उनकी यह विवशता लोगों को जागृत करने के लिए, उन्हें इसका कारण सोचने को प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है।
इमाम कूफ़ा की ओर जा रहे थे कि एक पड़ाव पर उन्हें हज़रत मुस्लिम की हत्या का समाचार मिला। समाचार अशुभ था किन्तु आपने अपने साथियों को इससे अवगत कराया तथा कहा कि हम राज्य स्थापित करने के लिए कूफा नहीं जा रहे हैं, हमें मृत्यु का वरण करना है अतः जो हमारा साथ छोड़कर लौट जाना चाहे स्वतंत्रा है। बहुत से लोगों ने लौट जाना पसंद किया और केवल वही लोग रह गए जो आपके साथ रहकर कष्ट झेलने का दृढ़ निश्चय कर चुके थे। जन बल से निराश शक्ति का यह प्रदर्शन इतिहास मे अनूठा है।
इमाम हुसैन ने यात्रा स्थगित नहीं की। थोड़ी दूर आगे बढ़े थे कि एक सेना आती हुई दिखाई दी। मरूस्थल की धूप तथा प्यास से आने वाले सैनिकों का बुरा हाल था। इमाम ने सेना को पानी पिलाया। जानवरों को भी पानी पिलाया गया। आने वाली सेना के नायक ’हुर‘ ने कहा कि ’’मुझे भेजा गया है कि आपको कूफ़ा ले चलूं और यज़ीद के गवर्नर इब्ने ज़्याद के सामने पेश करूं।‘‘ इमाम ने कहा कि मृत्यु इस उद्देश्य की पूर्ति की अपेक्षा तुमसे निकट होगी। अब यदि इमाम कूफे की ओर जाते तो हुर के आदेश का अनुपालन होताजिसकी परिणति आपकी हत्या के रूप में होती और यदि आप हुर की सेना को पराजित करके कूफ़ा विजय कर लेते तो वह शांति के विरूद्ध होता। आपने मक्का वापस जाना चाहा किन्तु हुर ने ऐसा नहीं करने दिया।अतः आपने एक और रास्ता अपनाया। हुर आापके साथ-साथ चला। इमाम का क़ाफ़ला ’’क़र्बला‘‘ पहुंचा। यहाॅं हुर को आदेश मिला कि इमाम हुसैन को किसी ओर न जाने दे। इमाम के साथियों ने कहा कि इस समय युद्ध करना श्रेयस्कर होगा किन्तु आप अपनी ओर से पहल न करने के सिद्धांत पर अटल रहे और कर्बला में रूकने का निश्चय किया। अगले दिन चार हज़ार फ़ौज के साथ एक और सरदार उमर बिनसाद कर्बला पहुंचा। दूत के माध्यम से इमाम ने उससे बातचीत की। उमर ने आपकी बातांे से इब्ने ज़्याद को अवगत कराया। उसने उमर के प्रस्तावों को ठुकरा दिया और लिखा कि ’’ तुम हुसैन और उनके साथियों को बैअत के लिए मजबूर करो जब वे इसे स्वीकार कर लेंगे तब हम कोई निर्णय लेंगे।‘‘ उसके इस पत्रा से युद्ध अवश्यमभावी हो गया, स्वयं उमर ने कहा कि ’’ इब्ने ज़्याद शांति नहीं चााहता।‘‘ उसने पत्रा इमाम के पास भिजवा दिया। इमाम ने उत्तर दिया कि ’’मैं इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हूं। अधिक से अधिक मौत ही तो है मैं उसका वरण करने को प्रस्तुत हूं।‘‘ इब्ने ज़्याद को जब यह उत्तर प्राप्त हुआ तो उसने लगभग दो लाख सेना कर्बला में एकत्रा कर दी और इमाम हुसैन और उनके साथियों पर पानी का कड़ा प्रतिबंध लगा दिया। इस पर भी इमाम ने शांति का मार्ग नहीं छोड़ा। आपने पुनः वार्ता आरंभ की और अरब देश छोड़कर ’’भारत‘‘ आने की इच्छा व्यक्त की। उमर बिनसाद ने इस बात को मान लिया और इब्ने ज़्याद को सूचित किया। उसने उत्तर में लिखा ’’ तुझे युद्ध के लिए भेजा है शांति-वार्ता के लिए नहीं। यदि हुसैन और उनके साथी आज्ञा का पालन करें तो उन्हें मेरे पास भेज दो और यदि इन्कार करें तो उनकी हत्या करके उनके शव पर घोड़े दौड़ाना और उनका सर काटकर मेरे पास भेज देना।‘‘ इस आज्ञा के मिलते ही उमर ने युद्ध की तैयारी करके आक्रमण का आदेश दे दिया। इमाम ने अपने भाई अब्बास को भेजा कि यह आक्रमण क्यों हो रहा है और विचार कयों बदल गया है, उत्तर मिला सरदार का आदेश आया है। इमाम ने कहा कि अच्छा यदि युद्ध ही होना है तो हमें आज रात की मुहलत दे दो, युद्ध कल होगा। आज की रात हम अपने मालिक की याद में व्यतीत करना चाहते हैं।
जीवन की यह अंतिम रात है, इमाम और उनके साथी ईश्वर की याद में लग्न हैं। इमाम ने सबको इकट्ठा किया। आपने ईश्वर की महिमा का वर्णान किया, अपने साथियों की सच्चाई,ईमानदारी और धार्मिकता को सराहा और कहा ’’ यह विशाल सेना सिर्फ़ मेरी हत्या के लिए एकत्रा है कल का दिन मेरे और इनके बीच निर्णय का दिन है इसलिए मेरी राय यह है कि तुम लोग रात के अंधेरे में चले जाओ, मेरी ओर से कोई प्रतिबंध नहीं है। तुम में से प्रत्येक व्यक्ति मेरे एक संबंधी को अपने साथ लेता जाए। मुझे विश्वास है कि विरोधी सेना के लोेेग किसी को भी नहीं रोकेंगे।‘‘ यह कहकर आपने रोशनी बुझा दिया कि जाने वालों को संकोच न हो किन्तु उपस्थित लोगों में कोई भी जाने को तैयार न हुआ और प्रत्येक ने इमाम के साथ मरने के प्रण को दुहराया।
रात बीती ! सुबह को इमाम ने अपनी सेना को जिसमें 32 सवार और चालीस पैदल से अधिक न थे, मैदान में खड़ा किया और स्वयं ऊंट पर बैठकर, कु़रान लेकर शत्राु सेना के सामने गए और कहा-’’ लोगो ! जल्दी से काम न लो, मेरी बात सुन लो कि मैं तुम्हारी ओर क्यों आया हूं। यदि तुम मेरा विरोध त्याग दो तो अच्छा है और यदि न्याय से काम न लेकर मेरी बात न मानो तो तुम्हें अख़्तियार हे कि मेरी हत्या कर दो।‘‘ आपने कहा कि- ’’मैं तुम्हारा बुलाया हुआ आया हूं और यदि तुम्हें मेरा आना पसंद नहीं तो मुझे किसी ऐसे स्थान पर चले जाने दो जहां शांति पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकूं।‘‘ इमाम के इस भाषण से स्पष्ट है कि आप हृदय से शांति चाहते थे। यही निश्चय करके मदीने से निकले थे, हुर से भी यही बात की थी और उमर इब्ने साद से भी यही कहा था और अब सेना के समक्ष भी उन्हीं बातों को रख रहे थे। इमाम चाहते थेे कि युद्ध न हो किन्तु इसके लिए अधर्म का साथ देने की क़ीमत चुकाने पर तैयार न थे, चाहे स्वयं उनका गला ही क्यों न कट जाए ! अपने इस निश्चय पर वे अटल थे।
इमाम की बातों का प्रभाव सेना पर तो नहीं पड़ा किन्तु हुर, वह सरदार जिसने इमाम को रास्ते में रोका था व्याकुल हो गया। उसने उमर बिनसाद से पूछा कि ’’ क्या युद्ध निश्चित है और जो बातें हुसैन ने कही हैं, उनमें से कोई एक भी माने जाने योग्य नहीं हैं ?‘‘ उसने उत्तर दिया कि ’’ इब्ने ज़्याद की मर्ज़ी नहीं।‘‘ हुर को उसकी आत्मा ने प्रेरित किया और वह अपने पुत्रा और गु़लाम के साथ इमाम की ओर चला आया। इमाम हुसैन की सच्चाई का यह सबसे बड़ा प्रमाण है कि विरोधी सेना का सरदार अपने प्राण न्यौछावर करने इमाम की ओर चला आया।
युद्ध आरम्भ हुआ। इमाम के साथियों तथा संबंधियों ने वीरता पूर्वक मुकाबला किया। तीन दिन की भूख प्यास के बावजूद इन बहत्तर लोगों ने दिन के तीसरे पहर तक मोर्चा लिया और उस समय तक इमाम पर आंॅच नहीं आने दी जब तक एक भी व्यक्ति जीवित रहा।
इमाम का सबसे छोटा पुत्रा अली असग़र छः महीने का था। बच्चा प्यास से मरने के क़रीब था। इमाम ने उस बच्चे को उठा लिया और सेना के सामने लाए और कहा कि ’’इस बच्चे को पानी पिला दो।‘‘ बच्चे को प्यासा देखकर सैनिक मुंह फेर कर रोने लगे लेकिन ’’हुरमुला‘‘ नामक सैनिक ने ऐसा तीर मारा कि बच्चे का गला छिद गया और उसकी मृत्यु हो गई । इस मासूम बच्चे की निर्मम हत्या ऐसा जघन्य अपराध है जिसके लिए मानवता कभी भी यज़ीदी सेना को क्षमा नहीं कर सकती।
बच्चे के मारे जाने के बाद इमाम ने स्वयं युद्ध किया और पानी के स्त्रोत पर अधिकार कर लिया। उसी समय किसी ने आवाज़ दी कि ख़ैमे लूटे जा रहे हैं। आपने पुनः आक्रमण किया। आखि़र में तीरों, तलवारों तथा पत्थरों के घाव के कारण आप घोड़े से ज़मीन पर गिर पड़े तथा ’’शिम्र‘‘ ने आपका सिर काट लिया।
इमाम हुसैन की हत्या के पश्चात यज़ीदी सेना ने आपका सारा सामान लूट लियाा। महिलाओं की चादरें तक छीन लीं और ख़ैमों में आग लगा दी।
इमाम हुसैन और उनके साथियों की लाशों को इकट्ठा करके सैनिकों ने उन पर घोड़े दौड़ाए और उनके सिर काट लिए। अगले दिन उन्होंने अपने मृतकों के शवों को तो दफ़न किया मगर इमाम और उनके साथियों की लाशों को रेगिस्तान में पड़ा रहने दिया। सेना ने इमाम के परिवार की महिलाओं तथा बच्चों और एकमात्रा जीवित पुरूष रोग ग्रस्त इमाम ज़ैनुल आब्दीन को बन्दी बना लिया और हर सम्भव अत्याचार करते हुए दमिश्क़ (यज़ीद की राजधानी) ले गए।
इमाम हुसैन जैसे चरित्रावान, शान्तिप्रिय और सच्चे व्यक्ति के साथ यज़ीद की सेना ने जो जु़ल्म किए और जिस प्रकार यातना देकर उनको शहीद किया वह अपराध इतने जघन्य हंै कि यज़ीद और उसके सहयाोगी आज भी घृणा के पात्रा हैं। लोग आज भी उनकी बर्बरता पर खेद प्रकट करते हैं तथा इमाम और उनके साथियों के लिए दुःख मनाते हैं।
कर्बला के हृदय विदारक युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से यज़ीद विजयी हुआ क्योंकि उसे हज़रत इमाम हुसैन को शहीद करने में सफलता मिली परन्तु वास्तविकता की दृष्टि तीक्ष्ण भीषण कालिमा के पीछे भी यथार्थ का ओजस्वी स्वरूप देख लेती है। युद्ध जीतकर भी यज़ीद बुरी तरह पराजित हो गया क्योंकि उसके आसुरी उद्देश्य के घोर अंधेरे ने उसी समय दम तोड़ दिया जब इमाम ने अपने लहू से सदैव के लिए नैतिकता एवं सच्चाई का परम् महत् द्वीप प्रज्जवलित किया था।
शताब्दियाॅं अपनी यात्रा समाप्त करके काल रूपी मंज़िल का अंग बनती जा रही हैं परन्तु कर्बल-गाथा कल की तरह आज भी मानवता के भाल को उज्जवल कर रही है। प्रत्येक काल में यह रौशनी असत्य,अज्ञान, अन्याय, अव्यापकत्व, आमनवीयता, अनेकता जैसे दूषित तत्वों से फैलने वाले अंधकार की राह का पत्थर बन जाती है।
सिद्ध आत्मा अमर होती है, मृत्यु उस पर हावी होने में सदैव असफल रहती है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा थाः
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्वै न मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
’’ जो इस आत्मा को मरने वाला समझता है तथा मरा मानता है, उसे दोनों का ही ज्ञान नहीं है क्योंकि आत्मा न तो मरती है और न मारी जाती है। इमाम हुसैन अमर हैं, उनका त्याग अजर है। उनकी कु़र्बानी की गाथा किसी जाति विशेष, समाज विशेष, देश विशेष अथवा काल विशेष में सीमाबद्ध नहीं की जा सकती। उसे किसी धर्म,मत, सम्प्रदाय या पंथ से सम्बद्ध करने का अर्थ है उसके व्यापकत्व को न समझ पाना। कर्बल गाथा सदैव मानवता को उसके वास्तविक स्वरूप से अवगत कराती रहेगी। यह आधिभौतिक और आधिदैविक अवस्था में भी जगत की एकता को सत्य के पथ पर अग्रसर करके असत्य, अन्याय एवं अधर्म का नाश करती रहेगी।
बहुत पहले मैंने कहा था:
कर्बला राह-ए अमल है, कर्बला दर्स-ए हयात,
कर्बला दम तोड़ते माहौल में जीने की बात।
आफ़रीं सद आफ़रीं ऐ कर्बला वालो कि तुम,
अपने खूं से कर गये रंगीन सारी कायनात।।
निश्चित ही ’’ सारी कायनात‘‘ को रंगीन करने वाला सार्वभौमिक भी है और सार्वकालिक भी। जिसको भी, जब भी मानवता की तलाश होगी वह कर्बला वालों की शरण में आएगा। मुहर्रम का त्यौहार और इसे मनाने वाली अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की विश्वास एवं एकता मेरे इस दावे की सत्यता पर स्पष्ट मुहर अंकित करती है।
– डाॅ. अली अब्बास उम्मीद