आम आदमी के नाम पर खास आदमियों के मजे

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देश में गरीब पिछड़े तथा कमजोर वर्ग के लोगों के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शासन की ओर से जितनी अधिक धनराशि खर्च की जा रही है, वह देश के इतिहास में किसी भी युग में किसी भी शासक द्वारा खर्च नहीं की गई है. यह राशि साल दर साल बढ़ती जा रही है, जीवन का शायद ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां गरीबों और कमजोर वर्ग के लोगों के लिए विशेष सुविधाओं और प्राथमिकताओं का प्रावधान न हो।
इतने अधिक प्रयासों के बावजूद हम इन आम आदमियों की हालत सुधारने में बहुत सफल नहीं हुए हैं, कई मामलों में तो उनकी हालत बदतर होती जा रही है। एक और हम आम आदमियों की कल्याणकारी योजनाओं की उपलब्धियों को आंकड़ों और सफलता की रंगीन कहानियों में बांधते हैं। वहां दूसरों और उतना ही जन असंतोष बढ़ता जा रहा है। जो जहां है वहां ही गुर्रायी मुद्रा में बैठा है।
इन स्थितियों के विश£ेषण से ज्ञात होता है कि आम आदमी की तरक्की केवल सुविधाएं देने या भारी भरकम राशि खर्च करने पर निर्भर नहीं हैं, इससे तो आम आदमी के नाम पर खास आदमियों को मजे मारने के ज्यादा अवसर उपलब्ध होते हैं और समाज में भ्रष्टाचार के बढऩे तथा फलने-फूलने की परिस्थ्तियां निमित होती हैं। इसके लिए नए सोच की जरूरत है, जो सारी समस्याओं को उनकी र्आििाक सामाजिक पृष्ठभूमि एवं कारणों पर समग्रता के साथ विचार कर कोइघर्् नया रास्ता निकालें।
सबसे पहले ‘आम आदमीÓ और ‘खास आदमीÓ को नये सिरे से परिभाषित करना होगा। ‘आम आदमीÓ और ‘खास आदमीÓ मध्यकाल के सामंतशाही युग के शब्द हैं. इसके पहले पौराणिक युग, मौर्यकाल, गुप्तकाल में ‘प्रजाननÓ या ‘नागरिकगणÓ शब्द ही प्रचलित थे। उस समय सारी समान थी।
परन्तु मध्य युग के सामंतीकाल में परिस्थितियां बदली, छोटे मोटे राजा-नवाबों का युग आया राजधानियां षड्यंत्रों का केंद्र बनने लगी। विलासी शासकों को चापलूसों ने घेर लिया। नागरिकों के वर्ग में ‘खास आदमीÓ पैदा हो गया, जिसकी पहुंच शासक तक होती और वह शासन से उचित अनुचित लाभ उठाने लगा। आम आदमी दरबारों से कट गया और उसका सरोकार केवल शासक की जय जयकार करने तक ही सीमित रहा।
अंग्रेजों ने इस प्रवृत्ति का भरपूर लाभ उठाया ‘फूट डालो और राजकरोÓ की उनकीनीति में यह प्रवृत्ति सहायक बनी। उन्होंने भी ‘राय साहबÓ ‘सरÓ आदि पदवियां देकर और तरह-तरह के भेद उत्पन्न कर नागरिकों को दो वर्गों में बांट दिया। एक वे लोग, जिनकी पहुंच शासकों और अधिकारियों तक बनी और दूसरे वे, जो दफ्तरों के बाहर अर्जी लिये कतारों में खड़े रहे।
आजादी मिलने पर हमें स्पष्ट रूप से दो प्रकार के लोग मिले। एक तो वे बड़े पूंजीपति, अधिकारी, व्यवसायी आदि, जिन्होंने सत्ता की चापलूसी कर अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। दूसरे वे लोग जो सदियों से शोषण के शिकार हुए थे और गरीबी की रेखा के नीचे लगभग पशुवत जीवन जी रहे थे।
स्वाभाविक था, कि आजादी के बाद हमारा ध्यान इन दबे और शोषित लोगों के उद्धार की ओर गया और हमने इसके लिए प्रयास भी किये। पर इन प्रयासों में आधारभूत गलती यह हुई कि हमें इन्हें किन आधारों पर रेखांकित करना था, वह भूल गये। और इनकी आर्थिक स्थिति,जाति तथा क्षेत्र के आधार पर कल्याणकारी योजनाएं बनीं।
वास्तविकता यह है कि समाज में पिछड़ापन धन, जाति या क्षेत्र के आधार पर नहीं आता, वरन् यह तो उन नकारात्मक प्रवृत्तियों का परिणाम होता है, जिनके आधार पर किसी देश या समाज का शासन चलता है। जब तक इन प्रवृत्तियों पर चोट नहीं करेंगे और उनका उन्मूलन नहीं करेंगे, तब तक व्यक्ति की मदद करने से कोई लाभ नहीं। इन प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति तक उसका लाभ्ज्ञ पहुच ही नहीं पाता है। परिणाम सामने है। 1950 के आसपास पी.डब्ल्यूडी विभाग को भ्रष्टाचार का गढ़ कहा जाता था। आज विकास विभाग को भ्रष्टाचार की वैतरणी कहते हैं। आज जितना अधिक भ्रष्टाचार गरीबों को मदद पहुंचाने वाली योजनाओं और कार्यक्रमों में हो रहा है। उतना न पुलिस में हो रहा है और न रैवेन्यू में, जो कि रिश्वत खोरी के लिए बदनाम थे।
कल तक अधिकारी अपने अधिकारों का दुरूपयोग करके, कानून और नियमों की अपने स्वार्थ में व्याख्या करके कालाधन एकत्रित करते थे, पर आज जन प्रतिनिधि अपने निहित स्वार्थों के लिए नियमों और कानूनों को शिथिल बनाने या तरह-तरह के अपवादों का प्रावधान करने में नहीं हिचकते, उनका हर काम ‘जनहित में उचितÓ की मुहर के नीचे न्यायोचित बन जाता है, स्थिति यह बनती जा रही है कि हम जन प्रतिनिधित्व पाने या प्राप्त करने की लालसा केवल इसीलिए करने लगे हैं कि कुर्सी पर बैठ कर स्वयं तथा अपने लोगों के लिए उचित अनुचित लाभ कमा लें।
सारे देश में इस तरह कर संगठित गिरोह ऊपर से नीचे तक बनता जा रहा है, जो आम आदमी के नाम पर स्वीकृत सुविधाओं से अपनी जेबें भरने में व्यस्त है। मामला चाहें विभिन्न किस्म के अनुदानों का हो या रियायतों का, असली लाभ इसी गिरोह के सदस्यों को मिल रहा है, उदाहरणार्थ रियायती मूल्य पर सिंचाई पम्प पाने वाला किसान मुश्किल से अपनी किश्त जमा कर पाता है। पर पंप सप्लाई करने वाला व्यापारी या स्वीकृत करने वाला अंधकारी पलक झपकते-झपकते माला माल हो जाता है, किसी पिछड़े क्षेत्र में उद्योग लगाने वाले व्यक्ति की कोठियां शहर में बनने लगती है पर उस क्षेत्र का मूल निवासी वहां के रेस्ट हाऊस में झाड़ू देता है या खदानों में मिट्टी तोड़ता है, योजना की मलाई के मालिक दूसरे तोते ही होते हैं। जिनके लिए योजना बनी है, उन्हें तो पनीले दूध से ही संतुष्टि करनी पड़ती है। दु:खद बात यह है कि निराश्रितों तथा भिखमंगों के लिए बनी योजनाओं तक में लोग अपना ‘कमीशनÓ नहीं छोड़ते।
समय का तकाजा है कि नये सिरे से उन सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियों को कठोरता से कुचला जाएं, जो इन जरूरतमंद गरीब और पिछड़े लोगों तक सहायता नहीं पहुंचने देती। सबसे पहले यह विचार छोड़ता होगा कि आदमी पैसे धन से गरीब होता है। पैसा और धन तो हमारे देश में बहुत है। विभिन्न योजनाओं के कारण हमारा राष्ट्रीय उत्पादन भी लगातार बढ़ता जा रहा है, पर वितरण में दोष होने के कारण वह हर आदमी तक नहीं पहुंचता बीच में ही इक_ा होता जा रहा है।
इसके लिए हमें अपनी योजनाओं को वितरण-उन्मुख भी बनाना होगा। इस बात की अधिक निगरानी रखनी होगी कि वितरण संबंधित व्यक्ति तक पहुंचा या नहीं। किसी गरीब किसान को ज़मीन देकर ही संतुष्ट नहीं होना है। यह भी देखना होगा कि वह ज़मीन पर खेती करने लगा था नहीं, उसकी खेती से उसका परिवार का खर्च चल भी रहा है या नहीं, अनुदानो के संबंध में भी सतर्क रहने की जरूरत है। अनुदान नगद राशि में वितरित न हो, उसे वस्तु के रूप में देना ही अधिक हितकर होता है। इससे भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
शासकीय सहायता प्राप्त व्यक्तियों तथा संस्थाओं का ‘फालो अपÓ करना बहुत जरूरी है। सार्वजनिक जानकारी का प्रबंध ग्रामीण स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक होना चाहिए कि कब किस काम के लिए कितनी शासकीय सहायता दी गई और उसने उसका किस प्रकार से उपयोग किया। ऐसे प्रावधान वर्तमान में है पर इन पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। जबकि सहायता का मुख्य उद्देश्य है कि सहायता पाने वाला व्यक्ति वास्तव में लाभान्वित हो।
नियम-कानूनों में विभिन्न किस्म के ‘अपवादÓ भी कम करने होंगे, क्योंकि नियम और कायदे तो सभी को समान रूप से दृष्टि में रखते हुए बनाये जाते हैं। पर सत्ता-सम्पन्न निहित स्वार्थी व्यक्ति इन्हीं अपवादों का सहारा लेकर अपने लोगों को अनुचित फायदा पहुंचाने में सफल हो जाते हैं।
आजकल सत्ता से निकटता के प्रदर्शन का चलन बहुत बढ़ता जा रहा है। स्वागत अभिनंदन, भोज ‘मीट टू गेदरÓ पिकनिक-पार्टी का आयोजन कर कुछ लोग समाज में यह भ्रम फैलाने में सफल हो जाते हैं कि वे सत्ता के खास आदमी है और फिर तरह-तरह से अपने स्वार्थों की सिद्धि में लग जाते हैं। सत्ता में बैठे लोगों तथा आम आदमियों को भी ऐसे ढ़ोंग को हतोत्साहित करना चाहिए। श्रृद्धा या आदर प्रदर्शन की अपेक्षा नहीं करता, वह तो दिल की बात है।
इन दिनों समाज में अपनी हैसियत ‘खासÓ बनाने के लिए तरह-तरह की सामाजिक सांस्कृतिक समाज सेवा की जेबी संस्थाओं आदि की संख्या भी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। इन संस्थाओं के न कोई कार्यक्रम होते हैं और ही कोई उद्देश्य इनका मतलब सिर्फ इतना होता है कि कला, साहित्य, समाज सेवा आदि के रूप में मिलने वाले शासकीय अनुदानों को किस प्रकार लूटा जा सके। शासन प्रमाणिकता की भलीभांति जांच किए बिना इन्हें मान्यता न दी और इनके कार्यक्रमों में शामिल होने के पहले हर चीज की वास्तविकता का पता लगा ले, यह जरूरी है।
इस प्रकार, कुछ कठोर बनने पर ही तथाकथित ‘खासÓ आदमियों की गतिविधियों के चंगुल से बच सकेंगे और समाज में शोषण के अवसर कम कर सकेंगे समाज में जब तक ‘खासÓ आदमी का भला होना मुश्किल है। – शोभाराम श्रीवास्तव