इस्लामी कानून साजी का इतिहास

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इस्लाम का कानून जिस को शरई कानून कहते हैं, इसका अर्थ होता है ईश्वरीय नियम अर्थात जिस को अल्लाह ने अपने रसूल के द्वारा या दैवी ग्रंथ के जरिये भेजा हो। अगर कानून मनुष्य द्वारा निर्मित है तो उसको ’’तश्रीउल वज्ई‘‘ कहते हैं।
इस्लामी कानून के दो प्रकार हैंः-
1. अल्लाह ने ’’कुर्आनी आयात‘‘ के जरिये अपने रसूल पर उतारा हो तथा उसको मंसूख न किया हो। यह तश्रीह इलाही महज है कुछ कानून इस्लाम के ऐसे हैं कि अल्लाह के रसूल के साथियों ने (जिन) को सहाबा कहा जाता है। या इस के बाद (जिन को तर्बिई कहा जाता है) और इस्लाम के जाने माने ’’इमामो‘‘ ने अपने इज्तिहाइ से जो उन्होंने कुरआन और हदीस को सामने रख कर निकाला हो शर्त यह है कि उसमें कानून इलाही की रूह और उसकी माकूलियत और उसकी तरफ इशारा भी करते हों। इन कानून को भी शरई कानून का दर्जा है। क्योंकि मुजतेहदीन की केवल इस्तिम्बात की वजह से यह ’’वजई‘‘ यानि इन्सानों का बनाया हुआ है और ’’शरई‘‘ इसलिये है कि कुरआन और हदीस ही से निकाला गया है।
इस्लामी कानून साजी को चार भागों में बांटा जा सकता हैः-
प्रथमः रसूल का जमाना यहीं से इस्लामी कानून की नींव पडी है। इस की मुद्धत 22 साल कुछ महीने हैं। पैगम्बर साहब के रसूल होने से लेकर आप की वफात तक 610 ई. से 632 ई. तक।
द्वितीयः सहाबा का जमाना यह व्याख्या तथा पूरात्या का जमाना है। इस की मुद्धत 90 साल है। रसूल स. की वफात 11 हि. से पहली हिज्री के अन्त तक।
तृतीयः इसी जमाने में मुसलमानों के विद्वानों (मुज्तहिदीन) ने जो इज्तिहाद द्वारा फैसले किये। इस की मुद्दत ढाई सौ साल हैं। 100 हि. से 350 हि. तक।
चतुर्थीयः इस युग में केवल अगलो ने जो कुछ किया उस पर आंख बंद कर के लोग चले। इसी को ’’तकलीद‘‘ का युग कहते हैं। अभी तक यह युग चल रहा है। ’’इज्तिहाद‘‘ का किवाड बंद है। यह जमाना चैथी सदी हिज्री से आरम्भ हुआ और अभी तक चल रहा है।
रसूल स. का युग
इस जमाने की मुद्दत बहुत थोडी हैं क्योकि इसमें रसूल स. खुद मौजूद थे। इसलिये ये महत्वपूर्ण है। कुरआन तथा सुन्नत के अहकाम इसी युग में आये। कानून साजी के नियम साजी की बुनियाद मुकम्मल हुई। इस युग की दो प्रमुख अवस्थायें हैं।
प्रथम दौर तो वह है जबकि अल्लाह के रसूल स. मक्का में थे। यह 12 वर्ष और चन्द महीने आप के रसूल होने से आप के हिजरत तक (अर्थात जब मक्का से मदीने के लिये निकले) इस युग में मुसलमानो की संख्या बहुत थोडी थी। उन का कोई स्थान न था और न ही उन की कोई सरकार थी। इस युग में रसूल का सारा ध्यान अल्लाह की तौहीद (एक ईश्वर) और इन्सानों को मूर्ति पूजा से रोकना था। पैगम्बर साहब स. के दावत के मानने वालों पर अत्याचार तथा नित्य नयी चालों से बचना नहीं था। इस दौर मे न तो कोई कानून साजी की गुंजाइश थी नहीं किसी शहरी और व्यापार के कानून की आवश्यकता। मक्का में जब तक आप रहे उस युग में कुरआन की तो सूरहः उतरी उस में ’’अकीदा‘‘ , और आविष्कार जन्म तथा पिछली मानव जाति के वाकियात का व्याख्यान उपदेश के लिये हुआ है। जैसे सूरः युनूस, रअद, फुर्कान यासीन, हदीद आदि मक्की सूरतें। द्वितीय दौर मदीना मे अल्लाह के रसूल के जीवन का है। यह दस वर्ष है लगभग, यानि आप की हिज्रत से आप की वफात तक, इस मे इस्लाम का चर्चा बढ गया। मुसलमानों की संख्या काफी बढ गई और यह आवश्यकता हुई कि एक दसरे के सम्बंध के बारे में कोई आदेश हो। अतः कानून साजी की आवश्यकता थी। इस युग में मुसलमानों के लिये जंग, सुलह, तथा शादी ब्याह, विरासत शहरी कानून कुरआन के माध्यम से बने। मदीना मे जो सूरतें कुरआन की हैं उनमें अधिकतर मानवीय समस्याओं पर आधारित है। अल बकरा, आले इमरान, व अन्निसा, अल माएदा, अल अन्फाल, तौबा, अन्नूर, अल अहजाब इन में आदेशें तथा अकीदों इख्लाक (सदा चरणों) और इतिहासी कहानी भी पायी जाती है।
कानून निर्मित करने का अधिकार
रसूल के जमाने में कानून बनाने का अधिकार केवल रसूल स. को था। किसी भी मुसलमान को यह अधिकार प्राप्त नहीं था क्योंबिक रसूल अल्लाह का दूत होता है उसका सम्पर्क अल्लाह से होता है इसलिये उस की उपस्थिति में किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त नहीं होता कि वह अपने मन से कोई कानून और अल्लाह के कानून में समानता होती, यह किसी प्रकार भी उचित न होता। रसूल अल्लाह की देख-रेख में होता है। वह वही कहता है जो उसे अल्लाह की ओर से कहा जाता है। इसी को अरबी भाषा में ’’बहई‘‘ बोलते हैं। रसूल के जीवनकाल में जो दुर्घटना घटती है या कोई समस्या दर पेश आती है या कोई झगडा होता है तो रसूल पर कभी कुरआन की आयत उतरती थी या कभी आप को इल्हाम द्वारा बताया जाता था या अपनी समझ बूझ से आप व्याख्या करते थे। यह सब जो भी आपने किया वह शरई कानून है उन पर एक मुसलमान का चलना अनिवार्य है। यह चाहे ’’बहई‘‘ के द्वारा आया हो या आपने खुद बयान किया हो। (किसी भी मुसलमान को यह अधिकार नहीं कि वह रसूल के बयान किये हुए कानून के खिलाफ वर्जी करे यही रसूल पर ईमान लाने का मतलब है) आप के दौर में कुछ सहाबियों से अपनी राय से किसी झगडे के निबटारे का प्रमाण मिलता है सा रसूल के किसी आदेश को सामने रखकर किसी मसले का निबटारा किया है। जैसे हजरत अली को जब यमन का राज्य पाल बना कर भेजा तो आपने फरमाया निःसन्देह अल्लाह तुम्हें सही निर्णय का मार्ग दर्शन करेगा। तथा तुम्हें सच्चाई पर कायम रखेगा। जब तुम्हारे सामने दो पक्ष (मुद्धई तथा मुद्वआ अलैह) हो तो दोों का बयान सुनने के बाद ही न्याय करना। इसी प्रकार मुआज बिन जबल को यमन की ओर भेजा तो उनसे पूछा किस प्रकार तुम न्याय करोगे जबकि कुरआन और सुन्नत (हदीस) में कोई हुक्म न पाओगे? तो मुआज ने कहा अपनी राय से न्याय करूंगा इस पर अल्लाह के रसूल के ऐसे लोगों का तौफीक दी जिस से अल्लाह और उसका रसूल दोनों राजी हैं। इसी प्रकार हुजैफा यमानी (सहाबी) को न्याय करने के लिये भेजा दो पडोसियों के पास ो एक दीवार के बारे में झगड रहे थे। दोनों का दावा था कि वह मेरी दीवार है। एक दिन रसूल स. ने अमर बिन आस को आदेश दियाः न्याय करो इस विवाद में अमर ने कहा- मैं आप के होते हुये इज्तिहाद करूं? आप ने फरमाया- यदि तुम ने दुरूस्त ठीक फैसला दिया तो दोहरा अज्र पाओगे और यदि गलत फैसला हुआ तो एक अज्र होगा। दो सहाबी यात्रा की हालत में थे कि नमाज का समय हो गया, पानी नहीं पाये तो दोनों ने तयम्मुम (मिट्टी हथेली और मंुह पर मल कर नमाज पढ लिया) इस के बाद ही पानी मिल गया। एक ने फिर से वजू कर के नमाज दोहरा लिया दूसरे ने नहीं। इस प्रकार की जो भी घटनायें हुयीं रसूल के युग में तो इसका अर्थ या तर्क नहीं कि रसूल की उपस्थिति मंे कानून बनाने का अधिकार था वरन यह एक विशेष परिस्थिति थी क्योंकि रसूल इतनी दूरी पर थे कि सम्पर्क असम्भव था। यह एक फतवा देना या न्याय करना था कि कानून साजी की अथार्टी के कारण। कोई भी कार्य जो सहाबी से हुआ उस पर रसूल की इजाजत मिल गयी तो वह कानून का दर्जा पास कर लेगा। यदि इजाजत प्राप्त नहीं हुयी तो ऐसी दशा मे मुसलमानों पर शरई कानून लागू नहीं किया जायेगा। रसूल के जीवन में सिर्फ रसूल को कानून निर्माण का अधिकार होता था। यह अल्लाह का आदेश है। कुरआन साक्षी है। रसूल के जमाने में किसी घटा पर दो राय नहीं है।