फिर कामयाब व्यक्ति की शुरुआत आत्मविश्वास से होती है। सुभाष घई अपवाद नहीं हैं। सिर्फ आत्मविश्वास और कुछ कर गुजरने की तमन्ना लिए वह पूना फिल्म संस्थान से ग्रेजुएट होकर मुंबई पहुंचे। इच्छा थी धरती के जगमगाते सितारों के बीच एक जगह बनाने की। निर्माताओं और निर्देशकों के दफ्तरों के आगे डेरा डाला।
कुछ फिल्में मिल भी गईं, मगर कामयाबी के राजपथ की राह नहीं मिली। इसी दरम्यान सुभाष घई ने बचपन के शौक को विकसित किया। फिल्में लिखीं और अपनी एक स्क्रिप्ट लेकर एनएन सिप्पी के पास पहुंचे। एनएन सिप्पी को स्क्रिप्ट पसंद आई, मगर कोई माकूल निर्देशक नजर नहीं आया।
उन्होंने सुभाष घई को ही प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि तुम्हारी स्क्रिप्ट है, तुम ही निर्देशित करो। सुभाष घई ने ‘कालीचरणÓ बनाई। सिल्वर जुबली सफलता ने उन्हें पहली फिल्म से ही स्थापित कर दिया। कुछ और फिल्में सफल रहीं तो सुभाष घई ने निर्माता बनने का फैसला किया।
वजह इतनी भर थी कि अपनी पसंद की फिल्में अपने तरीके से बनाई जा सकें। सफल फिल्मों की फेहरिस्त ने सुभाष घई को फायनेंसरों और वितरकों का प्रिय बना दिया था। उन्होंने बढ़ावा दिया। आर्थिक मदद का आश्वासन दिया। मात्र दस हजार की मूल पूंजी से सुभाष घई ने मुक्ता फिल्म्स की स्थापना कर दी।
मुक्ता फिल्म्स की स्थापना का उद्देश्य था कि कलात्मक रुचि के व्यक्ति अपनी सृजनात्मक क्षमता का भरपूर उपयोग कर सकें। ‘मुक्ता फिल्म्सÓ की पहली फिल्म आई ‘कर्जÓ। पुनर्जन्म और बदले की कहानी पर आधारित ‘कर्जÓ ने रजत जयंती मनाई। इस फिल्म के लगभग सारे गीत लोकप्रिय हुए।
‘कर्जÓ की सफलता ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को नया शोमैन दिया। हमेशा की तरह सुभाष घई ने किसी और के पहले खुद ही घोषणा कर दी कि वह शोमैन हैं। इस स्वघोषित शोमैन की आकांक्षाएं राज कपूर के सपनों से कम नहीं रहीं। राज कपूर ने अपने बाद की पीढ़ी को अपनी सफलता से लालायित किया और आगे बढऩे की हिम्मत भी दी।
यह तो इतिहास बताएगा कि सुभाष घई वास्तव में शोमैन कहलाने के हकदार हैं या नहीं, मगर उनकी कोशिशें कामयाब रहीं। उन्होंने अत्यंत लोकप्रिय और सफल फिल्में दीं। इसके साथ ही उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री को कई नए चेहरे दिए और कुछ चेहरों (माधुरी दीक्षित, जैकी श्रॉफ) को मांज कर ऐसे चमकाया कि वे बरसों तक हिंदी सिनेमा के आकाश में जगमगाते रहे।
हिंदी सिनेमा की बातें करते समय हम प्राय: आम दर्शकों की बातें करते हैं। उसी तर्ज पर हम सुभाष घई को हिंदी सिनेमा का आम निर्देशक कह सकते हैं। शुद्ध देसी रुचि के सुभाष घई ने जब तक आम दर्शकों का खयाल रखा, तब तक वह अत्यंत सफल रहे।
उन्होंने नई पीढ़ी के सफल निर्देशकों की नकल में ‘परदेसÓ और ‘यादेंÓ जैसी फिल्में बनाईं तो दर्शकों ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया। ‘यादेंÓ की असफलता से सुभाष घई इस कदर लडख़ड़ाए कि लगभग दो सालों के बाद ही वह ‘किसनाÓ की घोषणा कर पाए।
सुभाष घई के प्रशंसकों की यह शिकायत है कि उन्हें अपनी शैली की ही फिल्में बनानी चाहिए। उन्होंने ‘किसनाÓ की घोषणा के साथ ऐसा वादा तो किया है, मगर खुद की खींची लकीर लांघने की कोशिश में ही वह डगमगा जाते हैं। ‘किसनाÓ को अंतरराष्ट्रीय फिल्म की तरह प्रोजेक्ट कर उन्होंने खुद के लिए नई चुनौती खड़ी कर ली है। चुनौती सिर्फ फिल्म निर्देशन और निर्माण की नहीं है।
पिछले कुछ सालों में सुभाष घई ने मुक्ता आट्र्स लिमिटेड की अनलिमिटेड गतिविधियां आरंभ कर दी हैं। निर्माण और निर्देशन के साथ ही वितरण, प्रदर्शन, टीवी कार्यक्रम, स्टूडियो और इंस्टीट्यूट के काम भी तेजी से चल रहे हैं। हिंदी फिल्मों से जुड़े और लाभ कमा चुके बहुत कम व्यक्तियों ने इंस्टीट्यूट खोलने पर ध्यान दिया। इंस्टीट्यूट खोलना और दूसरों को प्रशिक्षित करना एक तरह से नई प्रतिभाओं को हथियारों से लैस करना है।
फिल्म निर्माण से जुड़े सभी क्षेत्रों में प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी भारत सरकार के भरोसे छोड़कर अधिकांश फिल्मकार व्यवसाय या फिर निजी अध्यवसाय में लिप्त रहते हैं। इस दृष्टिï से सुभाष घई की ‘ह्विïसलिंग वुड्सÓ की परिकल्पना सराहनीय और अनुकरणीय है। ‘ह्विïसलिंग वुड्स इंटरनेशनलÓ 2005 में आरंभ होने के बाद हर साल 200 छात्रों को फिल्म निर्माण की विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षित करेगा।
हालांकि सुभाष घई का महत्त्वाकांक्षी फिल्म इंस्टीट्यूट अभी से विवादों में आ गया है, मगर उन्हें पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही ये विवाद सुलझा लिए जाएंगे। सुभाष घई की कंपनी मुक्ता आट्र्स लिमिटेड ने पिछले कुछ सालों में बाहरी प्रतिभाओं को निर्देशन का मौका दिया है।
इसी के तहत डेविड धवन और अनंत बलानी के बाद अब्बास-मस्तान मुक्ता आट्र्स लिमिटेड की फिल्म निर्देशित कर रहे हैं। संजय छेल, सुहैल तातारी, शिवम नायर और अश्विनी चौधरी जैसे युवा निर्देशकों के साथ भी सुभाष घई की बैठकें चलती रहती हैं। इन दिनों हर युवा निर्देशक में सुभाष घई रुचि दिखाते हैं, मिलते हैं और साथ काम करने की संभाïïïïवनाओं पर विचार करते हैं।
दरअसल, मनोरंजन के शेयर बाजार में आ जाने के बाद सुभाष घई की कंपनी मुक्ता आट्र्स लिमिटेड की मजबूरी बन गई है कि हर साल चार-छह फिल्में प्रदर्शित हों। यह बाजार का नियम और दबाव है कि निवेशकों को लाभांश मिलता रहे और बाजार में कंपनी की साख बनी रहे।
सुभाष घई ने फिल्मों के बदलते बाजार और आकार लेते आर्थिक समीकरण को पहले भांप लिया था। हिंदी फिल्म जगत को इंडस्ट्री का दर्जा मिलने के पहले से सुभाष घई मुक्ता आट्र्स लिमिटेड में कारपोरेट आचार-व्यवहार पर जोर देते रहे हैं। फिल्मों का बीमा, फिल्मों के लिए ऋण और कलाकारों एवं तकनीशियनों से आर्थिक लेन-देन में पारदर्शिता को उन्होंने अहमियत दी और सफलता के साथ उसका पालन भी किया।
अभी 24 अक्टूबर को मुक्ता आट्र्स लिमिटेड के रजत जयंती समारोह में सुभाष घई ने ‘किसनाÓ और ‘एतराजÓ की घोषणा के पहले जब अपने प्रिय और सम्मानित अभिनेता दिलीप कुमार को आशीर्वचन के लिए बुलाया था तो दिलीप कुमार ने अपने खास अंदाज में ठहराव के साथ कहा था, ’25 की उम्र ही क्या होती है? तुम्हें और आगे जाना है।Ó
इस मौके पर सुभाष घई ने एक वाकया सुनाया था। जावेद अख्तर ने कभी उन्हें एक गीत के लिए बोल दिए थे, ‘जिंदगी हर कदम एक नई जंग है…Ó, इस बोल को आनंद बख्शी ने ‘जीत जाएंगे हम, गर तू संग है…Ó से पूरा किया था। सुभाष घई अपनी पत्नी मुक्ता उर्फ रेहाना के संग से जिंदगी के हर कदम की नई जंग जीत कर इस ऊंचाई तक पहुंचे हैं। आज फिल्म व्यवसाय पूरी तरह से सृजनात्मकता और कलात्मकता को नकार रहा है।
नई पीढ़ी के निर्माता-निर्देशकों के लिए दर्शक (रसिक) उपभोक्ता हो गए हैं। जाहिर है जब दर्शक उपभोक्ता (कंज्यूमर) होंगे तो फिल्म सिर्फ एक प्रोडक्ट होगा। फिल्म के भविष्य के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं होगी। सुभाष घई इस ऊंचाई और स्थिति में हैं कि वह हस्तक्षेप कर सकें। वह फिल्म इंडस्ट्री को एक दिशा दे सकें। ऐसा करने पर ही वह शोमैन होने की शर्तें पूरी करेंगे।
सुभाष घई की सितारे
अभिनेता- जैकी श्रॉफ, विवेक मुश्रान, अपूर्वा अग्निहोत्री। अभिनेत्री- मीनाक्षी शेषाद्रि, माधुरी दीक्षित, मनीषा कोइराला, महिमा चौधरी और अब ईशा सरवानी।
घई की फिल्मों का गीत -संगीत
शोमैन राज कपूर की फिल्मों का गीत-संगीत लोकप्रिय अवश्य होता था। राज कपूर की यह विशेषता सुभाष घई में भी है। राज कपूर की तरह ही सुभाष घई अपने गीतकारों और संगीतकारों को न सिर्फ विशेष सम्मान देते हैं, बल्कि उनके साथ लंबी बैठकें करते हैं और घंटों सुनने-सुनाने के बाद ही अंतिम फैसला लेते हैं। नई फिल्म ‘किसनाÓ में उन्होंने हिंदी फिल्मों के दो प्रतिभाशाली संगीतकारों एआर रहमान और इस्माइल दरबार को एक साथ जावेद अख्तर के गीतों को सुर में बांधने की चुनौती दी है।
– अजय ब्रह्मïात्मज