एक दुर्वेश और महाराजा मोतीसिंह

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प्राचीन प्रांत मालवा जो मध्य भारत का एक विख्यात प्रांत रहा और स्वतंत्रता अर्थात सन् 1947 के पश्चात नये विभाजन के अनुसार मध्यप्रदेश का एक भाग बनाया। इन्केलाब सन् 1857 के पश्चात इस मालवा प्रांत में प्राचीन छोटे-छोटे प्रातों का एक बडा जाल फैला हुआ था जिन में अधिकतर राजा राजपूत ठाकुर मरेठा थे। कुछ प्रांत जैसे, भोपाल , जावरा इत्यादि मुसलमान नवाबों के अधीन थीं। इन्हीं रजवारों में राजगढ भी एक छोटा सा राज्य जहां राजपूतवंश एक समय से राज्य करता चला आ रहा था। यहां एक जवान उम्र का राजा मोती सिंह जब सन् 1871 ई. में राज सिंहासन पर विराजमान हुआ तो उसके सहृदय व मस्तिष्क अंग्रेजों का लिखित इतिहास को पढने से यह कूट विचार उत्पन्न हुआ कि भारत में इस्लाम तलवार के जोर पर फैला और मुसलमान बादशाहों ने जोर-जबरदस्ती से यहां के हिन्दुओं को मुसलमान बनाया अतः इस्लाम से घृणा व शत्रुता के विचार उसके दिल में उत्पन्न हुये थे। इस कारण राजगद्दी सम्भालते ही महाराजा ने राज्य में मुसलमान आफीसरों को निलम्बित कर दिया और तमाम दूसरे मुसलमानों की छटनी कर दी और फिर राज्य में यह आदेश जारी किया कि तीन घडी सूर्य चढने तक मुसलमान प्रजा में से कोई उसके समक्ष न जाए। यदि इस आदेश की अवहेलना की जाती तो उस े सामने आने वाले मुसलमान को जो दण्ड दिया जाता वह तो अपनी जगह पर रहा, पर महाराजा दिन भर व्रत रखते और हृदय को पवित्र करने के लिए बहुत सी पूजाएं मन्दिर में जाकर करते थे अर्थात वह दिन महाराजा के यहां अशुभ माना जाता और उसके विचारों के अनुसार हानिकारक होता।
एक दिन महाराजा मोती सिंह प्रातः काल अपने सवारों (फौज) के साथ शिकार के लिए घर से निकले। जब शहर से बाहर कदम रखा तो एक निर्धन बंजारा की शामत आई कि वह रोजाना की तरह सुबह सवेरे जंगल में कजाए हालत के लिए जंगल में गया वहां से नदी पर पानी हासिल करके ओर वजू करके नमाज के लिए मस्जिद जा ही रहा था कि उधर से राजा की सवारी आ गई। दोनों का आमना सामना अचानक हो गया। राजा की ज्योंही उस गरीब पर नजर पडी राजा क्रोध से भडक गया तथा सवारों को उसकी पिटाई का हुक्म दिया। उन्हांेने उस गरीब की इतनी पिटाई की कि वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पडा। जब उसके घरवालों को पता चला तो वह आये और उसे उठाकर घर ले गए। राजा को दिल दो दिल में बद्दुआएं देने लगे राजा मोती सिहं के क्रोध और उसके अत्याचारों से डर कर रातों रात वह गरीब बंजारा अपने बाल बच्चांे के साथ राजगढ छोडकर रियासत भोपाल आ बसा उधर तो यह गरीब बेचारा अपना वतन छोडकर रियासत भोपाल के एक गांव में आकर बस गया, उधर ऐसा हो गया कि राजा खुदा के क्रोध का शिकार हो गया। वह इस प्रकार की उसके सीने में एक दर्द उठा जो पूरे शरीर में फैल गया। उसकी टीसें महाराजा को बेचैन कर देतीं उसे किसी प्रकार चैन नहीं आता था। उसे ऐसा प्रतीत होता जैसे सारे शरीर में सांप बिच्छू डंक मार रहे हों। थोडे-थोडे से उसके भयानक दौरे पडने लगे कि उसका जीवन अजीरन बन गया। वेदों, डाक्टरों और हकीमों से हर एक इलाज किया गया लेकिन बेसुध। देहली से मुख्य तौर पर हकीम महमूद खां बुलाए गये जिनकी एक हजार रूपए रोजाना की फीस थी परन्तु उनका इलाज भी कारगर न हुआ। महाराजा इस तकलीफ से इतना परेशान और दुखित था कि खुदकुशी की ठान ली महाराजा के एक सेवक ने जो उसका बहुत वफादार और निकटतम था हाथ जोडकर राजा से कहा, अन्नदाता अगर मुझे क्षमा करें तो एक विनती करूं, मुझे ईश्वर की कृपा से आशा है कि इस इलाज से महाराजा ठीक हो जाएंगे और बीमारी चली जाएगी तो महाराजा ने कहा तेरी हर गल्ती माफ वह इलाज बता कि जिस से मैं ठीक हो जाऊं नौकर ने अर्ज किया कि इस नदी के किनारे जिस पर हमारे शहर राजगढ आबाद है एक बडा महात्मा फकीर रहता है जो बेहद तपस्या करता है ओर लोगों की सेवा करता हे वह चमत्कारी भी है, चमत्कार दिखाता है। हर फकीर व अमीर इस कुटिया पर जाता है और वह उस की सेवा करता है किन्तु वह फकीर मुसलमान है। राजा ने नौकर से पूछा कि क्या वह फकीर हमारे राजमहल में भी आ सकता है? नौकर ने बताया कि वह न किसी के यहां आते हैं न जाते हैं और न किसी से कोई सम्बंध रखते हैं। इच्छुक लोग उनके पास आते और अपनी इच्छा प्राप्त कर वापस लौटते हैं। वह किसी से कुछ मांगता नहीं है। किसी ने खुशी से दे दिया तो ले लिया वरना अपनी कुटिया मंे रह कर तपस्या करते रहते हैं। जब इस बात की सुन-गुन राजा की महारानियों को हुई तो उन्होंने भी महाराजा को उनके यहां जाने पर मजबूर किया। महाराजा ने नौकर से कहा कि अब जो कुछ हो, वह मुसलमान हो या हिन्दू जो कुछ, मुझे उनके पास ले चलो शायद ईश्वर की कृपा से उनकी चमत्कार के हाथों यह कष्ट मिट जाए, ईश्वर ने मेरे भाग में यही लिखा हो। गर्ज वह नौकर महाराजा मोती सिंह को अपने साथ लेकर उन बुर्जुग फकीर के झोपडे पर सुबह सबेरे पहुंचा। महाराजा को उसने बाहर खडा कर दिया और खुद झोंपडी के अन्दर जाकर दर्वेश से कहा कि महाराजा सा. हुजूर को सलाम करने आये हैं। आज्ञा हो तो हाजिर करूं। इन बुजुर्ग दर्वेश ने जहां नौकर की प्रार्थना को सुना तो एक दम मुस्कुराए और नौकर से कहा तीन घडी दिन चढने से पहले महाराजा एक मुसलमान के पास कैसे आ गए। नौकर ने लज्जित होकर गर्दन झुकाली तथा वह उनका मतलब समझ गया। शाह साहब से दुबारा आज्ञा मांगी। इस पर इन दर्वेश ने फरमाया। जब तक एक घडी दिन न चढ जाए हम किसी काफिर मुशाफिर की सूरत देखना पसन्द नहीं करते। जब नौकर ने शाह साहब की यह बात महाराजा को सुनाई तो वह रूहांसा हो गया और उस पर सन्नाटा सा छा गया। महाराजा ने अपने आंसू पांेछे और नौकर से कहा कि निःसंकोच यह फकीर सच्चा है। मैं स्वयं हाजिर होकर उनसे आज्ञा माुगूंगा और शाह साहब की सेवा में उपस्थित हुआ हाथ जोडकर खडे होकर नम आंखों के साथ शाह साहब से क्षमा मांगी और अर्ज किया हुजूर के लिए इतना गुस्सा अच्छा नहीं मुझ से जो गल्ती हुई है उसके लिए दिल क्षमा चाहता हूं। मेरी विनती है कि मुझे माफ कर दें। और मेरे हृदय को अपनी तवज्जो डालकर उज्जवल कर दें यह सुनते ही शाह साहब को एकदम जलाल आ गया और महाराजा से कहा बेवकूफी की बात क्यों है तू ने खुदा का पाप किया है और मांफी मुझ बन्दे से मांगता है। जा उसी खुदा के आगे सर झुका। और उससे क्षमा मांग। तूने खुदा के बन्दों पर जुल्म किया। जिस पर वह अत्यंत क्रोधित हो गया। इस पर महाराजा शाह साहब के आगे रोया। और गिडगिडाया। और बहुत ही लज्जा के साथ विनती करने लगा दाता में उसी खुदा के आगे सर झुकाता हूं ओर उसी मालिक से क्षमा चाहता हूं। आप इस गल्ती की माफी के लिए खुदा से दुआ करें। इस पर शाह साहब का क्रोध ठंडा हो गया तथा उन्हांेने अपने हाथ आसमान की तरफ उठा कर दुआ करना शुरू की। ऐ मेरे परवरदिगार सबके पालनहार, यह अपनी करने की सजा भगत चुका है। इसकी खता (गल्ती) को क्षमा कर दीजिए और अपने बागी (सरकश) बन्दे की तोबा कुबूल कर लीजिए माफ व रहम का मामला फरमा और अपने करम से इस बीमारी से छुटकारा दे। थोडी देर शाह साहब ने आंखों को बन्द किया फिर आंखों को खोलकर कहा जा यहां से भाग जा मालिक तुझको ठीक कर देगा और तेरा भला करेगा महाराजा इन दर्वेश से रूखसत होकर अपने महल आया और घरवालों से और सबसे कहा कि मुझे पूरा विश्वास हे कि मेरी बीमारी चली जायेगी और मैं अवश्य ठीक हो जाऊंगा।
तीन महीने इस प्रकार गुजरे कि महाराजा मोती सिंह शाह साहब की सेवा में प्रतिदिन आता और उसकी तबियत प्रतिदिन ठीक होती जाती। यहां तक कि महाराजा पूर्णतया तन्दरूस्त हो गया। अब तो राजा और रानीइन दुर्वेश के पूरी तरह सेवक बन गए। महाराजा ने शाह साहब की सेवा में प्रस्तुत होकर कहा कि हुजूर! अगर आज्ञा दें तो यहां एक खानकाह बनवा दी जाए और लंगर खाना जारी कर दिया जाए जहां हर आने वाला दोनों वक्त खाना खाए और नदी के किनारे एक मस्जिद बनवा दी जाए जहां हुजूरे वाला इबादत (प्रार्थना-अर्चना) किया करें। शाह साहब ने महाराजा की प्रार्थना निरस्त कर दी।
अब महाराजा प्रतिदिन प्रातः महल से उठकर शाह साहब की कुटिया पर मजारों और तीन घडी तक वहीं शाह साहब की सेवा में प्रस्तुत रहकर ईमान, व ज्ञान ध्यान की बातेें सुनते रहते।
राजदरबार के लोगों ने महाराजा से कहा कि प्रातः तडके ठंड के समय में अन्नदाता का नदी कि किनारे आकर बैठना ठीक नहीं है। भगवान न करे ठंडी हवा लगजाए तथा बीमार पड जाएं। महाराजा ने उत्तर दिया कि मैंने बीस वर्ष तक दिन चढे तक किसी मुसलमान का मुंह नहीं देखा अतएव इतने ही समय तक प्रातःकाल से दिनचढे तक मुसलमानों का मुंह देखूंगा। जब पांच वर्ष नो महीने इसी प्रकार महाराजा पर गुजरे तो एक दिन राजा शाह साहब के पास बैठकर प्रतिदिन के मुकर्ररा से पूर्व जाने लगे तो शाह साहब ने महाराजा से पूछा कि आज महाराजा अपने समय से पूर्व क्यों महल जा रहे हैं। राजा ने उत्तर दिया कि हुजूर आज मैंने नित्य प्रतिदिन की पूजा पाठ नहीं की। इसलिए तबियत में घबराहट है। पहले पहुंचकर प्रति दिन की पूजा करूंगा। शाह साहब ने पूूछा कि तुम किस की पूजा करते हो?
महाराजा ने कहा हुजूर यह पूछने की क्या बात है। श्री कृष्ण दर्शन भी कभी हुए या यूं ही घन्टियां बजाते रहते हो। राजा ने उत्तर दिया कि हुजूर हम पापी गुनाहगारों को भला कृष्ण भगवान के दर्शन क्यों नसीब हो सकते हैं? बस उनकी मूर्ति के आगे ढोंग करते रहते हैं और वैचारिक (खयाति) कृष्ण के तसव्वुर से हृदय को उज्जवल कर लेते हैं। यह उत्तर सुनकर शाह साहब पर एक वजदानी हालत छागई और जज्ब मस्ती की दशा में बोले ए मन के अन्धे अपनी आंखों को बन्द कर और सरको झुका फिर देख क्या नजर आता है? महाराजा ने शाह साहब के कहने के अनुसार अपनी आंखों को बन्द कर लिया कुछ समय बाद जैसे ही आंखों को खोला तो अपना सिर शाह साहब के पैरों पर रख दिया। आंखों से आंसू जारी थे। और होठों से आहों की आवाजें उठ रही थीं, जबान से एकदम यह वाक्य निकल रहे थे। आज सब कुछ पा लिया, सच्चाई मिल गई, सच्चाई की जोत से आंखें खुल गईं और मेरी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो गई। बेशक बाबा आप सच्चे दुर्वेश हैं, शेष सब और ढकोसले हैं। आपका दीन सच्चा है। इसमें कोई शक नहीं। इस प्रकार के वाक्य राजा की जबान से निकल रहे थे। उधर उसकी आंखों में आंसू मचल रहे थे। तब शाह साहब ने मुस्कुराकर कहा कुछ अपना हाल तो बताओ, तुम पर क्या गुजरी और तुम्हारी आंखों ने क्या देखा? क्यों रो रहे हो? महाराजा मोती सिंह ने रोते हुए अपना हाल इस प्रकार बयान किया, कि बाबा दाल जों ही मैंने हुजूर के हुक्म से आंखों को बन्द किया तो क्या देखता हूं कि कृष्ण भगवान अपने चमकते हुए चेहरे के साथ सामने खडे हैं बांसूरी बजा रहे हैं और वह ऐसी मीठी बांसुरी बजा रहे हैैं कि जिसको सुनते ही मैं मदहोश हो गया। इतने में कृष्ण भगवान ने बांसुरी मुंह से हटाई और मैं होश में आ गया। मुझे देखकर मुझ से कहने लगे कि बावले मुझे क्या देखता है मुझ से क्या मांगता है, यह काल, ’’ मोहम्मदी नबुव्वत काल है‘‘ उनकी नबुव्वत का सूरज निकला हुआ है और सारे जग में उन्हीं की किरणें फैली हुई हैं, उनकी शरीयत की रोशनी से हृदय को उज्जवल और आंखों को रोशन कर, कि उन्हीं के मार्ग पर निजात है फिर बांसुरी बजाना प्रारम्भ कर दिया तो उसमें से साफ कलमा लाइलाहा इल्ललाह का सुर निकल रहा था। इसलिए मैंने कृष्ण भगवान की सुरीली बांसुरी से जो कलमा तैय्यबा सुना था उसी को पढता हूं। हुजूर अपना हाथ बढाएं और मुझ मुसलमान करें, मैं खुले बन्दों मुसलमान आपके हाथ पर मुसलमान होता हूं और उसी एक खुदा पर इमान लाता हूं।
शाह साहब ने कहा कि जब तुम ने सच्चे दिल से एक खुदा को मानलिया और यह भी मान लिया कि वहीं सम्पूर्ण संसार का मालिक है, वह किसी का मोहताज नहीं, सब उसके मोहताज है, वह अकेला है और उसका कोई शरीक और साझी नहीं है और हजरत मोहम्मद सल्लललाहो अलैहेवसल्लम उसके सच्चे रसूल और नबी हैं और जितने नबी पहले गुजरे वो सब सच्चे थे, हर एक नबी को खुदाने अपनी सच्ची वही से, सच्चे विश्वासों (अकीदो, और अच्छी बातों की शिक्षा दी तो तुम मुसलमान हो गए अब अपने महल जाओ मसलहत को देखकर उसके अन्दर तबदीली न इख्तियार करो। अगर अपने मुसलमान होने का एलान न भी करो तो मुझे कोई एतराज न होगा। इस पर राजा ने कहा शाह साहब के सामने कहा कि हुजूर मैं कौम का राजदूत हूं जो कुछ कहा चोरी छुपे के तौर पर नहीं कहा। मैं डंके की चोट पर अपने मुसलमान होने का ऐलान करता हूं और अब मैं अपना नाम मोती सिंह के बजाए अब्दुल वासे खां रखता हूं। इस पर शाह साहब ने राजा को मुबारकबाद पेश की और मना नहीं फरमाया। द्वारा स्व. काजी वजदुल हुसेनी सा. शहर काजी भोपाल
अनुवाद-डाॅ. एस. ए. जैदी