कबीर सन्देश – आज भी प्रासांगिक

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सद्गुरू कबीर एक महान संत हुए, यह बताने की बात नहीं है। उन्हीं के विषय में हम लोग चर्चा के लिए इकट्ठे हुए हैं। हम उनकी थोडी-थोडी बातों पर चर्चा करेंगे, आप मनपूर्वक सुनें।
पहली बात यह है कि उनके माता-पिता कौन थे? वे किस जाति के थे? यह जानने के लिए अधिकतम लोगों के मन में बडी खलबली रहती है।
आजकल जिसे रिसर्च कहते हैं, बहुत पुस्तकों से छांटकर कुछ लिख दिया जाता है। उनमें प्रायः उनके माता-पिता आदि ऊपरी बातों पर ही उधेडबुन रहती है। आज के प्रगति और वैज्ञानिक युग में भी जातिवाद का भूत इतना प्रबल है कि लोग जाति के आधार पर ही मनुष्य का मूल्यांकन करते हैं।
सुना गया है अभी-अभी काशी विद्यापीठ में डाॅ. सम्पूर्णांनन्द की मूर्ति का अनावरण करने के लिए केन्द्रीय मंत्री बाबू जगजीवन राम आये थे। जब वे मूर्ति का अनावरण करके चल गये तब उस मूर्ति को गंगाजल से धोकर तथा उस पर तुलसीदल चढाकर उसे पवित्र किया गया, क्योंकि बाबू जगजीवनराम चमार हैं। मूर्ति छू गयी थी, उसकी पवित्रता आवश्यक थी। यह जातिवाद का भूत कितना बलवान है। विश्वविद्यालय कोई गडरिया का बाडा नहीं, वहां विद्वान लोग रहते हैं और यदि यही विद्वता है तो अविद्या क्या है?
ऐसी स्थिति में यदि लोग सद्गुरू कबीर की जाति पूछें तो क्या आश्चर्य? यदि कोई मुझसे पूछे कि कबीर साहेब के माता-पिता कौन थे तो मैं कहूंगा- उनके माता-पिता का पता नहीं है। हां, जिनके माता-पिता का पता न लगा उनको अयोनिज बताया गया। कबीर साहेब काशी के लहरतारा तालाब के कमल फूल पर प्रकट हुए तथा अंत में मगहर में उनकी लाश फूल हो गई। जेसे श्रद्धेय मां सीता पृथ्वी फोडकर पैदा हुई और अंत में पृथ्वी में समा गयीं। यह कितनी बढिया बात हुई? जिनके माता-पिता का पता न लगा हम उनको इस ढंग से कह दिये। क्यों कह दिये? हमारी दुर्बलता। हम यह नहीं स्वीकार कर पाये कि कि किसी भी व्यक्तित्व के मानदण्ड माता-पिता नहीं, अपितु उसके ज्ञान तथा आचरण होते हैं। भारतीय परम्परा में श्रीराम और सीता का बहुत ऊंचा स्थान है। परंतु हम उनका अध्ययन करें तो राम से अधिक स्थान सीता का होगा। जब राम का वनवास हुआ तब सीता उनके साथ चल पडीं और जब धोबी या किसी ने राम को ताना मारा, तब रामजी ने सीताजी को वन में निकाल दिये। वे स्वयं सीताजी के साथ नहीं चल सके। इस प्रकार राम के कदम डगमगा जाते हैं, परन्तु सीता दृढ हैं। सीताजी के माता-पिता का पता नहीं, इसलिए वे निम्न नहीं है। सीताजी शिशु के रूप में जनक जी को खेत में पडी हुई मिलीं थी। उनके माता-पिता का पता न था, परंतु कह दिया कि वे पृथ्वी फोड कर निकली थीं और अंततः पृथ्वी में समा गयीं। यही बात कबीर साहेब के लिए प्रचलित की गयी कि वे फूल पर प्रकट हुए और अंततः फूल में समा गये। परन्तु बिना माता-पिता के किसी का जन्म नहीं होता। रामजी ने कहा है-
कोई नहिं जन्में मात-पिता बिन, बांधी वेदी की नीति।
तुम्हारे तो सब महि ते उपजे, अस हमरे नहिं रीती।।
कबीर साहेब के माता-पिता का पता न होने से कोई नुकसान नहीं। वे अपनी महानता से ही महान थे। विश्व की परंपरा में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। हनुमान जी जो घर-घर पूजे जाते हैं- शंकर-सुवन, केशरी-नंदन और पवन-सुत एक ही साथ तीन पिता के विषय में धुंधलका ही कहना पडेगा। हनुमान जी का व्यक्तित्व, उनकी भक्ति, उनकी विद्वता, उनका ज्ञान, उनकी महानता प्रशंसनीय है, इसलिए वे पूज्य हैं। एक-दो नहीं सैकडों उदाहरण हैं। धीवरी-तनय व्यास, श्वापका (भंगिनी) तनय परासर, वेश्यापुत्र वशिष्ठ आदि प्रसिद्ध हैं। महाभारत के मुख्य पात्रों के उत्पत्तिक्रम पर दृष्टि डालिए।
निश्चित ही कबीर साहेब हम लोगों सरीखे किसी माता-पिता से ही पैदा हुए होंगे, क्योंकि वे भी एक मानव थे। वे अति मानव नहीं थे। अतिमानव की कल्पना सर्वथा निरर्थक है। मानव से श्रेष्ठ कौन होगा? मानव का अवमूल्यन करने के समान पाप क्या होगा? मानव से बढ कर कौन हो सकता है? महाभारत में एक श्लोक है जो कौन उसकी जान है-
गुह्म ब्रह्म तदिंद ब्रवीमि।
न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किन्चित्।।
(महाभारत शांतिपूर्व, अ. 299, श्लोक 20)
’’मैं एक गोपनीय बात, महत्वपूर्ण बात बतलाता हूं कि मानव से बढकर कुछ नहीं।‘‘
यदि मानव छोटा है तो बडा कौन है? मानव ही तो सर्वोच्च है। वर्णाश्रम एवं जांति-पांति को लेकर मनुष्य का मूल्यांकन नहीं हो सकता। उसका मूल्यांकन करने के लिए उसके ज्ञान तथा आचरण को देखना पडेगा। जातिवाद का भूत सर्वथा उतार देना पडेगा।
सद्गुरू कबीर ने हमें क्या दिया, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। अभी एक मद्रासी बाबू ने पूछा था- ’’कबीर साहेब का धर्म क्या है?‘‘ मैंने कहा था-’’ हम उनका धर्म हिन्दू धर्म नहीं कह सकते, इसलाम धर्म नहीं कह सकते, यहूदी या ईसाई धर्म नहीं कह सकते। वस्तुतः उनका ’’मानव धर्म‘‘ था। उनका एक सीधा शब्द है-
ऐसो भरम बिगुर्चन भारी।
वेद-किताब दीन औ दोजख, को पुरूषा को नारी।।
लोग कहते हैं कबीर साहेब ने नारियों की बडी निंदा की है, परन्तु ऐसी बात नहीं है। नारी-निंदा में जितने पद कबीर साहेब के नाम से प्रचलित है वे सब उनके नहीं हैं। उनका मौलिक एवं मुख्य ग्रन्थ बीजक है, उसमें तीन-चार पद हैं, जिन्हें हम आप लोगों के सामने उपस्थित कर रहे हैं-
कनक कामिनी देखिके, तू मत भूल सुरंग।
मिलन बिछुरन दुहेलरा, जस केंचुलि तजत भुजंग।।
(बीजक, साखी 148)
यहां कनक के साथ कामिनी का नाम आया है। कामिनी मदिरा को भी कहते हैं। यहां कामिनी का अभिप्रायः है जो कामवासना उद्दीपक हो। उसमें न भूलने की बात कही गयी, सो ठीक ही है। यहां शुद्ध नारी एवं माता के लिए कोई आलोचना नहीं है।
सांप बिच्छू का मंत्र है, माहुरहू झारा जाय।
विकट नारि के पाले पडे, काढि कलेजा खाय।।
(बीजक, साखी 143)
यहां विकट नारि से सावधान रहने की बात है। विकट नारी का तात्पर्य कर्कसा स्त्री से है। और-
माया महा ठगिनी हम जानी।
त्रिगुण फांस लिये कर-डाले, बोले मधुरी बानी।
केशव के कमला है बैठी, शिव के भवन भवानी।
पण्डा के मूरति है बैठी, तीरथ हंू में पानी।
योगी के योगिनी है, बैठी राजा के घर रानी।
काहू के हीरा है बैठी, काहू के कौडी कानी।
भक्ता के भक्तिन है बैठी, ब्रह्म के ब्राह्मनी।
कहहिं कबीर सुनो हो संतों, ई सब अकथ कहानी।
(बीजक, शब्द 59)
यहां पंडा की मूर्ति, तीर्थ के पानी आदि को भी उन्होंने माया का रूप बताया, केवल नारी को नहीं। इस प्रकार नारी की आलोचना में उन्हांेने दो-चार बीजक कहे हैं, जिनका अर्थ सुधार ही है। उन्होंने नारी-पुरूष की समानता के विषय में कितना अच्छा कहा है-
ऐसो भरम बिगुर्चन भारी।
वेद कितेब दीन और दोजख, को पुरूषा को नारी।।
माटी का घट साज बनाया, नादे बिन्द समाना।
घट बिनसे क्या नाम धरहुगे, अहमक खोज भुलाना।।
एकै त्वचार हाड मल मूत्रा, एक रूधिर एक गूदा।
एक बुन्द से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शूद्रा।।
रजोगुण ब्रह्मा तमोगुण शंकर, सतोगुणी हरि होई।
कहहिं कबीर राम रमि रहिये, हिन्दू तुरूक न कोई।।
(बीजक, शब्द 75)
संसार में बहुत बडा बिगुर्चन एवं धोखा है। पहले वेद-किताब की उलझनें हैं। वेद-कितेब को लेकर बडी लडाइयां हुईं। प्रायः सब मतावम्बी अपने वेद-कितेब को ईश्वरीय मान ली जाती है, तब वहीं मानवता समाप्त हो जाती है। आप कहेंगे कि यह आप कैसी बात कर रहे हैं? परन्तु विचार कीजिए यदि कोई पुस्तक ईश्वरीय होगी, तो उसको जो नहीं मानेगा वह काफिर होगा, नास्तिक होगा। जो पुस्तक ईश्वर की भेजी होगी, उसको जो न मानेगा वह नास्तिक नहीं होगा तो क्या होगा। इसीलिए मुसलमानों ने कहा- ’’कुरान ईश्वर का भेजा है उसको न मानने वाला काफिर है।‘‘ हिन्दुओं ने कहा- ’’वेद ईश्वर की वाणी है, जो उसको मानेगा वह नास्तिक है, ’’नास्तिको वेद निंदकः।‘‘ इसी ्रप्रकार ईसाइयों ने बाइबिल को ईश्वर की वाणी मानी। उसमें भी ईसाइयों ने नया (न्यू टेस्टामेंट) तथा यहूदियों ने पुराना नियम (ओल्ड टेस्टामेंट) माना। उसको न मानने वालों को उन्होंने अपवित्र कहा।
इसलिए यदि कोई पुस्तक ईश्वरीय मानी गयी, तो उसके मानने वाले यही कहेंगे कि इसको जो नहीं मानता है वह काफिर है, नास्तिक है। इसीलिए सद्गुरू कबीर ने कहा- वेद-कितेब उलझनों के घर हैं, क्योंकि इन पुस्तकों को, समझने की वस्तु नहीं, ईश्वरवाणी मानी गयी, एतदर्थ स्वतः प्रमाण मानने की वस्तु मान ली गयी।
वस्तुतः वेद, कुरान, बाइबिल एवं समस्त ज्ञान-विज्ञान एवं धर्म की पुस्तकें श्रद्धास्पद हैं। ये हमारे श्रद्धेय पुरूषों द्वारा बनायी गई हैं। इन सब पर हमें समान श्रद्धा रखनी चाहिए और स्वतंत्र विचार करना चाहिए। केवल वेद हमारी पुस्तकें नहीं हैं, कुरान भी है, कुरान ही नहीं बाइबिल भी हमारी है। यहां तक कि पागल की बात की भी अवहेलना नहीं होना चाहिए। उसकी बात पर भी विचार करना चाहिए। सभी पुस्तकों में हमें विचार करना चाहिए कि उनमें क्या है। पागल की बात पर भी विचार करना चाहिए। हो सकता है कि उसमें कुछ सार मिल जाए।
वेदों का महत्व क्यों है? वेद कहते हैं, ज्ञान को और ज्ञान मनुष्य के दिल में है। याज्ञवल्क्य ने भी वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है- ’’नगाडे, शंख, वीणादि से निकली आवाज को तुम नहीं पकड सकते। परंतु नगाडे आदि को पकड लो तो आवाज पकडी हुई है। इसी प्रकार सारा ज्ञान-विज्ञान आत्मा से निकला है इसलिए जो आत्मा को पकड लेता है, वह सारे ज्ञान-विज्ञान को पकड लेता है। जैसे गीले ईंधन के कारण आग से धुंआ निकलता है, वैसे शरीरस्थ आत्मा से ही ऋक्, यजु, साम, अथर्वाग्डिरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान, अनुव्याख्यान आदि निकलते हैं। ये सब आत्मा के निश्वास हैं, आत्मा की ही उपज हैं।‘‘ इसीलिए किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है-
लौहि महफूजस्त दर् मानी दिलत।
हर् चि मी ख्वाही शब्द् जू हासिलत।
दर् हकीकत खुद तुई उम्मूल किताब,
खुद जिखुद आयाति खुद रा बाज याब।।
लौहि मेहफूज, सुरक्षित चित्रपट तुम्हारा दिल है। मनुष्य का दिल ही कुरान है। वहीं से सब सारी चीजें निकलती हैं। वहीं से कुरान की आयतें निकालिए, जो कुरान में लिखा गया है वह दिल के कुरान से निकालकर लिखा है। संस्कृत में भी यही कहा गया है-’’सर्वांसा विद्यानां हृदय है। इसलिए वेद, कुरान, बाइबिल आदि मनुष्य के हृदय में निकले हुये हैं। कोई पुस्तक ईश्वरीय नहीं है। सभी पुस्तकें मानवीय हैं। इसलिए सब पर श्रद्धा रखना और सब पर विचार करना मनुष्य का कर्तव्य है।
वेद-कितेब पर ईश्वरीय मुहर लगा देने से वे उलझन के घर हो गये हैं। यदि सभी पुस्तकों पर आदर दृष्टि और विचार करने की अक्ल मनुष्य में आये तो कितना सुन्दर हो। सारी कटुता समाप्त हो जाए। जो कुरान को नहीं माना वह मुसलमानों की दृष्टि से काफिर हुआ और हत्या करने योग्य भी। जो वेदों को नहीं माना वह हिन्दुओं के ख्याल से नास्तिक हुआ। यह कितना अंधा हो जाना है। यदि हम यह मानते हैं कि वेद, कुरान, बाइबिल आदि पुस्तकें हैं, तो परस्पर में यह घृणा नहीं फैलती। इसलिए सद्गुरू कबीर ने कहा कि तुम वेद-कितेब के उलझन में हो। तुम्हें सत्य की ख्वाहिश नहीं है, अपितु अपनी ऊल-जुलूल बातें तथाकथित ईश्वर एवं ईश्वरीय पुस्तकों की आड में मनवाने की ख्वाहिश है।
यही बात ’’दीन और दोजख‘‘ की है। स्वर्ग में वही जाएगा जो हमारे दीन में, धर्म-सम्प्रदाय में है। नरक में वह जाएगा जो दूसरे मत में दीक्षित है। काफिर एवं नास्तिक कौन है? जो हमारी दकियानूसी बातें नहीं मानता है। भले ही उसमें दुनिया भर का कूडा कबाडा हो, वह आस्तिक है। अगर हमारे देश का कोई व्यक्ति एक बमगोला पाकिस्तान पर डाल दे और पाकिस्तान नष्ट हो जाए तो वह हमारे देश के लिए एक महान धर्मात्मा होगा। उसे पता नहीं कैसी-कैसी ऊंची-ऊंची उपाधियां देंगे। उसे हम हनुमान की उपाधि दे देंगे, परन्तु वह पकिस्तानियों और अरबों की दृष्टि में महान राक्षस होगा। हम जितने विचार करते हैं, पूर्वाग्रह और जड संस्कारों में जकडे होते हैं। मजहबी एवं साम्प्रदायिक चादर उतार कर निष्पक्ष विचार करना कठिन हो गया है। इस प्रकार दीन और दोजख उलझनों के घर हो गये हैं।
कौन-सा धर्म बडा है? धर्म कोई छोटा-बडा नहीं है। धर्म कहते हैं स्वभाव को। जल का स्वभाव एवं धर्म ठंडा है, आग का गरम, वायु का कोमल है। इसी ्रप्रकार चेतन का धर्म एवं स्वभाव ज्ञान है। हर मनुष्य के दिल में जीव है, आत्मा है। अतः दिल में ज्ञान है। हर दिल में ज्ञान है। हर दिल में यह आवाज उठती है कि यह करो तथा यह न करो और यही वेद, कुरान, बाइबिल आदि में लिखा है। अतः जो शास्त्रों में खोजना चाहते हो, वह तुम्हारे दिल में है। मनुष्य ने अपने दिल को नहीं खोजा। जब वह खोजेगा, उस ेदिल में ही धर्म का सच्चा रूप मिल जाएगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि पुस्तकों को नहीं पढना चाहिए। पुस्तकों को पढना चाहिए। वे हमारे हृदय की सुप्त शक्ति को जागृत करंेगी। परंतु पुस्तकों से भी अपने दिल की पुस्तक का खोलने का ही प्रयास कराना है। जिसके दिल की किताब नहीं खुलेगी वह कभी ज्ञानी नहीं हो सकता।
सद्गुरू कबीर कहते हैं ’’ को पुरषा को नारी‘‘ नारी और पुरूष कौन? क्योंकि दोनों के शरीरों मेंु वही-वही तत्व लगे हैं। दोनों के भीतर उसी प्रकार चेतन निवास करता है। सब के सुख-दुख एक समान हैं। तो तात्विक दृष्टि से नारी तथा पुरूष में क्या भेद है?
माटी का घट साज बना है, नादे बिंद समाना।
घट बिनसे क्या नाम धरहुगे, अहमक खोज भुलाना।।
ऐ अहमक! तलाश करके देख, शरीर के मिट जाने पर इसका क्या नाम रखेगा-स्त्री या पुरूष? शरीर मो मिट्टी है और जीव तो एक समान है।
अब इससे अधिक नारी-पुरूष समानता का प्रतिपादन और क्या हो सकता है?
एकै त्वचा हाड मल मूत्रा, एक रूधिर एक गूदा।
एक बुंद से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शूद्रा।।
नारी-पुरूष, तथाकथित ब्राह्मण शूद्र-सबके शरीर में एक ही प्रकार त्वचा, हाड, मल-मूत्र, रक्त, मासांदि लगे हैं। एक बूंद वीर्य से सबकी शरीर-रचना है। ब्राह्मण और शूद्र कौन है?
कितने लोग आज के जमाने में भी जाति से ही मनुष्य का मूल्यांकन करना चाहते हैं। बडे-बडे विद्वान भी यही कहते हैं कि- बैलों में जातियां होती हैं, मछलियों में जातियां होती हैं, बकरों, भैंसों, आमों अमरूदों-सब में तो जातियां होती है। इसी प्रकार मनुष्यों में जातियां होती हैं। हम कहते हैं कि मनुष्यों में गोरों-गोरों को एक तरफ कर दो, कालो को एक तरफ कर दो, मझोलों को एक तरफ तथा लम्बे लोगों को एक तरफ, भूरी आंख वालों को एक तरफ तथा काली आंख वालों को एक तरफ, तीव्र बुद्धि वालों को एक तरफ तथा मंद बुद्धि वालो को एक तरफ- तो इस प्रकार जातियां बन सकती हैं। परन्तु तथाकथित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-सब में इस प्रकार मनुष्य होंगे। केवल ब्राह्मणों में ही काले, गोरे, तीव्र, मंद सब प्रकार मनुष्य होंगे।
एक पंडित जी ने कहा-’’महाराज! आप एक नहीं जानते कि शूद्रों मे जो गोरे-गोरे हैं वे सब ब्राह्मण-क्षत्रियों के अंश हैं?‘‘ मेंने कहा- ’’ओर जो ब्राह्मण-क्षत्रियों मे काले-काले हैं, वे किनके अंश हैं?‘‘ पंडित जी बहुत शर्मिंदा हुए।
अतएव जो जाति का वर्गीकरण करने की चेष्टा है, यह भी एक महा धोखा। मनुष्य, मनुष्य है। मनुष्य की जाति एक है। उसमें दो जातियां नहीं। जो काले गोरे तथा तीव्र-मन्द बुद्धि आदि है, उनका कोई अन्य कारण है। जलवायु तथा भौगोलिक स्थिति मनुष्य के रंग में कारण बनते हैंं तथा परम्परागत शिक्षा-संस्कृति एवं जीवों के पूर्वजन्मों के कर्म-संस्कारादि बुद्धि आदि के कारण है। ब्राह्मण , क्षत्रियादि में युगों से पढाई-लिखाई चली आयी है; इसलिए उनमे ंअधिकांश बुद्धिविकास है।
हम तथाकथित शूद्रों की बुद्धि युगों से बांध रखे हैं। हमने उनके पढने-लिखने पर रोक लगायी। हमने उनके साथ घोर अपराध किये हैं। इसलिए वे प्रायः मूढ बने रहे। जिनको हम चमार-भंगी कहते हैं; अब उनके लडके भी पढने-लिखने लगे हैं। अब वे बुद्धि-विद्या आदि में उन्नति कर रहे हैं। वे ऊंचे-ऊंचे पदों पर जाकर समाज की उच्च सेवा कर रहे हैं। कितने ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि कहलाने वाले भी मंद-बुद्धि एंव बहुत निम्न हैं। तो ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहलाने से कोई बडा छोटा नहीं होता। साहेब ने कहा- ’’ को ब्राह्मण को शूद्रा।‘‘
रजोगुण ब्रह्मा तमोगुण शंकर, सतोगुणी हिर कोई।
कहहिं कबीर राम रमि रहिये, हिन्दू तुरूक न कोई।।
रज, सत, ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर के प्रति निधित्व करते हैं। रज क्रियाशीलता है, सत ज्ञान एवं प्रकाश है तथा तम निष्क्रियता है। जीवन में तीनों की आवश्यकता है। तीनों को शोध करके ग्रहण करना चाहिए। मैं इस समय बोल रहा हूं। यह रज है। क्योंकि यह एक क्रिया है। भले ही यह शूद्र है। तक की भी आवश्यकता होती है। अंधकार तम है और जब हम सोने चलते हैं तब बत्ती बुझा देते हैंं उस समय तक ही अच्छा लगता है उस समय प्रकाश जो सत है, वह बुरा लगेगा। किन्तु यदि अंधकार ही अंधकार बना रहे, तो सारा विकास रूक जायेगा। सत प्रकाशरूप, हल्का रमो, हिन्दू-तुरूक कोई नहीं है।
उन्होंने बराबर राम में रमने को कहा। परन्तु उनका राम कौन है? उनका राम ’’दशरथ अजिर बिहारी‘‘नहीं है। उनका राम ’’हृदय निवासी‘‘ है। ’’हृदया बसे तेहि राम न जाना।‘‘ हृदय निवासी राम को गोस्वामी जी ने भी कहा- ’’अस प्रभु हृदय अछत अविकारी। उन्होंने अन्यत्र भी कहा-
कहत सकल घट राम मय, तो खोजत केहि काज।
तुलसी कह यह कुमति सुनि, उर आवत अति लाज।।
कबीर साहेब ने जो बातें कही हैं, उन्हें प्रायः गोस्वामी जी ने भी घूम-घूम कर कही हैं; परन्तु उन्होंने कुछ ऐसी बातें भी कह दी हैं कि वह काफी जंजाल हो गयी। गोस्वामी जी परम्पराबद्ध थे, इसलिए उनका पूर्वाग्रह में पड जाना स्वाभाविक था। कबीर साहेब तटस्थ थे; अतः उनकी निष्पक्षता प्रखर है। परन्तु इससे हम गोस्वामी जी का अवमूल्यन नहीं कर सकते। वे अपनी जगह पर महान थे। दुनिया के जितने संत एवं विचारक हैं सब अपनी जगह पर महान थे। दुनिया के जितने संत एवं विचारक हैं सब अपनी-अपनी जगह पर महान हैं और सबसे हमें गुण लेना चाहिए। यहां संदर्भ सद्गुरू कबीर का है, इसलिए उनके विषय में मैं चर्चा कर रहा हूं।
कबीर साहेब का समय कोई विज्ञान-युग का नहीं था। गोस्वामी जी के भी पहले का था परन्तु उन्होंने वही बातें कहीं जो कारण-कार्य परम्परा के अनुकूल हों, सुष्टिकृम सम्मत हों। उन्होंने चमत्कारों एवं धर्म के नाम पर चलती हुई झुठाईयों और महिमाओं पर प्रबल प्रहार किया। अलग बात है कि उनक कतिपय श्रद्धालुओं ने उनके जीवन मे चमत्कारों दिल खोल कर आरोपण किया। कारण के विरूद्ध या कारण के बिना जो कार्य हो वह चमत्कार है और यह झुठाई और यह झुठाई्र के अलावा कुछ नहीं हैं परन्तु मानो चमत्कार, झुठाई एवं मिथ्या महिमाओं के बिना धर्म का पथ नहीं चल सकता। कबीर साहेब ने इन जैसी सारी धारणाओं का जबर्दस्त खण्डन किया।
सद्गुरू कबीर ने कहा हिंदू और मुसलमानों मे कोई भी अंतर नहीं दिखता।दोनों मे हाड-मांस, रक्त, मेदा एक समान हैं। सारी बातें एक तुल्य हैं। जो विभिन्नता दिखती है, वह बाहरी एवं दिखाऊ है। खतना, दाढी, चोटी, जनेऊ- ये सब हमारे बनाये हैं जिस सत्य ने, ईश्वर ने, प्रकृतिने या कर्म संस्कारों ने मानवों के शरीरों की रचना की, उसने कोई अन्तर नहीं डाला। हाॅं, हम लोगों ने पीछे से खतना, दाढी, चोटी, जनेऊ आदि का अंतर डालकर दीवारें खडी कर लीं। यदि सत्य को दाढी-चोटी या खतना पसन्द होता तो वह क्या यह भेद बनाकर हम ईश्वर या सत्य शरीर के सारे अंगों को बना सकता है वह खतना नहीं कर सकता था? वह जनेऊ नहीं पहना सकता था? तो हम देखते हैं कि मनुष्य एक ही प्रकार पैदा होता है परन्तु वह अपनी मिथ्या कल्पनाओं के आधार पर अहंकार की दीवार खडी करता है जो शुद्ध मानवता का विभाजक बनती है। अतएव न कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र, और न हिंदू तथा न मुसलमान। जो सत्य नहीं है, जो काल्पनिक है, उसको हमें बहुत तूल नहीं देना चाहिए। अतएव’’कहहिं कबीर राम रमि रहिये, हिंदू तुरूक न कोई।‘‘
सद्गुरू कबीर ने कहा कि समझदारों की दशा एक है। नासमझ लोग झगडा करते हैं, समझदार नही। उन्होंने कहा-
समुझे की गति एक है, जिन्ह समुझा सब ठौर।
कहहिं कबीर ये बीच के, बलकहिं और कि और।।
(बीजक, साखी 190)
मान लीजिए, हमें यहां (बैडमिंटन हाल गोरखपुर) से लखनऊ जाना है, तो हमें यहां से उठकर पश्चिम उत्तर कोण पर चलकर गोरखपुर रेल्वे स्टेशन पर पहुंचना होगा; परन्तु जो स्टेशन से उत्तर तरफ का निवासी है, वह अपनी पगडंडी पकड कर स्टेशन पर आयेगा। और जो आडे-तिरछे हैं वे अपनी-अपनी पगडंडी पकड कर आयेंगे। परन्तु जब गोरखपुर स्टेशन पर पहुंचकर किसी ऐसी गाडी में बैठ लेंगे जो लखनऊ को जाती हो, तब सबका रास्ता एक हो जायेगा। इसी प्रकार सब मनुष्य अपनी-अपनी साधना एवं ज्ञान की पगडंडी पकडकर सन्मार्ग में चलते हैं। जब वे सब विवेक को प्राप्त हो जाते है। तब सब का पथ एक हो जाता है। विवेक तब जब तक नहीं पहुंचते तब तक मनुष्य के पथ भिन्न-भिन्न हैं। जब विवेक का पूर्ण उदय हो जाता है, तब सभी विवेकवानों का पथ एक है। विवेक में झगडा नहीं है। वास्तव में विवेक ही सबके लिए राजपथ है।
विवेक और विश्वास दो पथ हैं। धार्मिक लोग ज्यादा विश्वास पर जोर देते हैं कि विश्वास करो। अवतार पर विश्वास करो, कुरान पर विश्वास करो, परन्तु अवतार पैगम्बर एवं धर्म-पोथी अनेक हैं, किस पर विश्वास करें तथा किस पर न विश्वास करें।
एक मौलवी के पास जाकर तुम कहो कि मैं राम-कृष्ण एवं वेद पर विश्वास करता हूं। वह सोचेगा यह कैसा पागल आदमी है। तुम्हारी बात को मौलवी दो कौडी की भी नहीं समझेगा। तुम जाकर एक पंडित से कहो कि मैं मुहम्मद तथा कुरान पर या ईसा एवं बाइबिल पर विश्वास करता हूं?ं पंडित सोचेगा यह कैसा वाहियात आदमी है। साक्षात परब्रह्म जो राम-कृष्ण के नाम से अवतार लिया उस पर विश्वास नहीं करता और मुहम्मद, ईसा जो ईश्वर के संदेशवाहक नौकर-चाकर या बच्चे-कच्चे हैं उन पर विश्वास करता है। कितने कहेंगे मुहम्मद ईसा तो म्लेच्छ मत के अगुआ हैं जो एकदम अशुद्ध मत हैं।
अतएव तथाकथित पैगम्बर, अवतार और पुस्तक पर विश्वास कैसा करें? विवेक की जरूरत है; जहां विवेक है वहां जैसे अवतार माने गये महापुरूष आदरणीय हैं। विवेक की दृष्टि में जैसे वेद आदरणीय हैं वैसे कुरान तथा बाइबिल आदरणीय हैं। केवल विश्वास से सत्य नहीं पा सकते। केवल विश्वास पर कबीर साहेब ने बहुत बडा कटाक्ष किया है।
धर्म कहते हैं अन्तरात्मा के स्वभाव को। जीव का स्वभाव ज्ञान है और ज्ञान के अनुसार कर्तव्य करना ही धर्माचरण है। कितने लोग कहते हैं पाप-पुण्य क्या है, समझ में नहीं आता। कितने लोग अपनी बात पेय करके सिद्ध करना चाहते हैं। मुझ से एक सज्जन ने कहा ’’मैं तो नहीं जानता कि पाप और पुण्य किसे कहते हैं। ’’मैंने उनसे कहा ’’आपकी पेन कोई छीन ले तो आपको कैसा लगेगा?‘‘ उन्होंने कहा-’’बुरा लगेगा।‘‘ मैंने कहा यही पाप है। ऐसी क्रिया आप किसी के साथ न कीजिएगा। आप भूखे-प्यासे हों, आपको कोई भोजन-जल देवे, आपको अच्छा लगेगा और यही व्यवहार आप दूसरे के साथ करें, यही पुण्य है। पाप-पुण्य सब समझते हैं। अपनी समझ की अवहेलना करना दूसरी बात है।‘‘ अतएव यह शुभाशुभ एवं सारासार निर्णायक ज्ञान ही धर्म है। धर्म का सच्चा स्वरूप सब में समान है। हर मनुष्य के हृदय में ज्ञान का बीज है। उसके अनुसार उसे चलना चाहिए।
धर्म का जो बाह्य स्वरूप बना लिया जाता है, उसमें काफी जंजाल भर जाता है। विषयासक्त मनुष्य धर्म के नाम पर स्वार्थ और भोग का पोषण करके, झुठाईयों एवं मिथ्या महिमाओं का आडम्बर खडा करके समाज को गुमराह करता है और अपना उल्लू सीधा करता है। कबीर साहेब कहते हैं कि जो लोग धर्म की कथा कहते रहते हैं वे तो मानों रात-दिन लबरी वाणी ही हांकते हैं।
धर्म कथा जो कहतहिं रहई।
लाबहर उठि जो प्रातहिं कहई।।
लाबरि बिहाने लाबरि संझा।
रामहु केर मर्म नहिं जाना।
ले मति ठानिनि वेद पुराना।।
वेदहु केर कहल नहिं करई।
जरतई रहे सुस्त नहिं परई।।
साखी-गुणातीत के गावते, आपुहि गये गंवाय।
माटी का तन माटी मिलिगौ, पवनहिं पवन समाय।।
(बीजक, रमैनी 69)
धर्म की कथा कहने वाले प्रायः सुबह से शाम तक लवरी वाणी ही हांकते रहते हैं। लबरी वाणी का मतलब है लम्बी-चैडी वाणी। जैसे ’योजन तीन-तीन कै काना।‘ ’योजन एक मूंछ रही ठाढी।‘ ’सत योजन तन बरणि न जाई।‘‘ कुंभकरण का शरीर सौ योजन में था, अर्थात करीब आठ सौ मील में। लंका बहुत छोटा देश है, फिर आठ सौ मील में केवल कुंभकरण ही कैसे था? यद्यपि यह काव्य का अतिश्योक्ति अलंकार है परन्तु सामान्य जनता अक्षरार्थ करके भ्रम में पड जाती है।
श्रीमद्भागवत में लिखा है कि राजा प्रियव्रत ग्यारह अरब वर्ष राज्य किये। उनके रथ के पहिये से समुद्र की खाईयाॅ तैयार हो गयीं। राजा दशरथ की जब साठ हजार वर्ष की उम्र हुई तब उन्होंने राम को युवराज बनाना चाहा। कुल साठ वर्ष के हुए होंगे तो प्रति एक वर्ष में नौ सौ निन्नानवे वर्ष अधिक जोडकर साठ हजार वर्ष कर दिया गया। वेदों में सौ वर्ष जीने की कल्पना की गयी हैं ’जीवेम् शरदः शतम्‘। फिर पीछे के लोग अरबों वर्ष कैसे जिये? जीवन को सौ वर्ष मानकर पचीस-पचीस वर्षों जीने की बात कैसी? परन्तु धर्म की पोथी में लिखा है उसे कैसे नहीं मानोंगे? नहीं मानोगे तो नास्तिक हो जाओगे। विवेकपूर्ण बातें सुनकर कितने लोग कहते हैं ’’क्या महाराज, आप लोग धर्मग्रंथ में जो लिखा-पढा है, नहीं मानते हैं?‘‘
एक उदाहरण याद आ गया वह आप लोगों को सुना दूं। एक व्यक्ति परदेश गया। कई वर्ष हो गये वह घर नहीं लौटा। अन्ततः उसने उलझकर एक पत्र में लिखा’’ हम तुम्हारे रहते रांड है।‘‘ वह पत्र पाया। किसी से पढवाया और रोने लगा। रोते-रोते अपने मित्रोें में गया और उनसे कहा, ’’तुम जीवित हो, तो तुम्हारी पत्नी रांड कैसे हो सकती है?‘‘ उसने कहा, भैया, कहा न मानो तो लिखा देख लो।‘‘ वह पत्र दिखलाने लगा।
यही दशा धर्म के सम्प्रदायों की है। कार्य-करण की परवाह छोडकर, प्रकृति के नियम-विरूद्ध लिखी गयी काल्पनिक घटनाओं, चमत्कारों को धर्म के नाम पर सही मनवाने का हठ किया जा रहा है और ऐसी बातों को जो न माने, उसे अधार्मिक, नास्तिक, काफिर तथा अपवित्र करार दिया जा रहा है।
लोग कहते हैं लिखा है, लिखा-पढा कैसे नहीं मानोगे? भाई, लिखा है तो उस पर विचार करो। रूप-कथन, अतिश्योक्ति-कथन और वस्तु कथन कई कथन होते हैं। चारों वेद ब्राम्हण के रूप धारण करके राम की वन्दला करने आये। यह रूप कथन है। इसका मतलब यह है कि चारों वेदों के विद्वान राम की वन्दना करने आये। सूर्य सात घोडों के रथ पर चलता है। यह भी रूप-कथन है। इसका अर्थ है सूर्य में सात रंगों की किरणें हैं। हनुमान जी पर्वत उठा लिये, यह अतिश्योक्ति कथन है। इसका मतलब है वे बहुत बडा काम कर डाले। पानी ठंडा है, आग गर्म है, भोजन करने आदमी स्वस्थ होता है, यह वस्तु-कथन है। एक वास्तविकता है।
हनुमान जी वानर नहीं थे। उनको पूंछ नहीं थी। वे बन के नर थे। वनवासी मनुष्य थे, परन्तु प्रकाण्ड पण्डित थे। जब वे पहली बार राम को वन में मिले हैं और राम से सत्भाषण किये गये हैं, राम बहुत प्रभावित हुए हैं। राम ने लक्ष्मण से कहा है कि हनुमान जी ने जितनी बातें की हैं उनमें व्याकरण की जरा भी त्रुटि नहीं आयी है। क्या वानर व्याकरण का पंडित हो सकता है? परन्तु आज यहां (गोरखपुर) की गीता प्रेस जैसी संस्था भी जब हनुमान का चित्र बनाती है तब उसमें पूंछ लगा देती है। उसका भी क्या दोष? परम्परया देन है। यह भी सनातन धर्म में शामिल है। आश्चर्य यह है कि जो हनुमान जी को विद्वान मनुष्य माने वह नास्तिक है और जो उनकी पूंछ वाला वानर माने वह सनातनधर्मी है।
हनुमान जी वानर नहीं थे। वे विद्वान थे। राजनीति कुशल थे। एक बार में ही वे राम की नाडी टटोलकर देखे, तो जिस रोग से सुग्रीव पीडित थे, उसी रोग से प्रायः राम को भी पीडित पाये। दोनों की पत्नियां हरी गयी थीं। दोनों राजच्युत थे। दोनों की मैत्री करायी। दोनों के काम करवाये। अतः वे स्वामिभक्त, राजनीति कुशल, ब्रम्हचारी, विद्वान एवं बली थे। उनमें महान गुण थे। किंतु धर्म ने उन्हें वानर बनाकर छोडा।
जटायु गिद्ध नहीं थे। गिद्धकूट पर्वत पर रहने से उनके नाम में गिद्धराज विशेषण हो गया था। आज एक राजनीतिक नेता जयसुखलाल हाथी हैं, तो क्या वे हाथी हैं? लौहपुरूष पटेल, क्या लोहे के बने थे? यह एक विशेषण है। जब राम जी गिद्धराज से मिले हैं तब उसने अपने को दशरथ का मित्र बताया है। तो क्या अधम पक्षी गिद्ध दशरथ का मित्र हो सकता था?
केवल अक्षरार्थ करने से बात समझ में नहीं आ सकती। पोथी की सब बातें आंखें मंूदकर मान लेने से ही आदमी अपने को आस्तिक या दीनदार होने का दम भरता है। परन्तु इस प्रकार जिसे नास्तिक या काफिर कहलाने का डर होगा वह सत्य को नहीं समझ सकता। नास्तिक शब्द एक गाली है जिसका प्रयोग दूसरे मत वालों के लिए किया जाता है। कहा जाता है ’नास्तिकों वेदनिन्दकः‘‘ ’’नास्तिको ईसाई निन्दकः।‘‘ केवल किसी बात या मत को नहीं मानने से नास्तिक या काफिर क्यों? कितने ऐसे मत हैं जो मूर्तिपूजा को एकदम नहीं मानते और वे मूर्तिपूजकों को नरकगामी तक बतलाते हैं, परन्तु अपनी पुस्तकों को ईश्वररचित मानते हैं। हम कहते हैं मुर्तिपूजक अच्छे हैं, लेकिन किसी पुस्तक को ईश्वर की जगह पर बैठा देना बहुत बडा अपराध है। क्योंकि यदि पुस्तकों को ईश्वर की जगह पर बैठाया गया, पुस्तक को यदि ईश्वरीय माना गया तो उसमें विचार करने की गुंजाइश नहीं होगी और उसकी जो न मानेगा वह नापाक होगा। यहीं कटुता आयेगी। यहीं जहर होगा। इसलिए वही धर्म समाज की सुख दे सकता है जो दुनिया की सारी पुस्तकों को एक दृष्टि से देखता हो। जब कुरान, वेद और बाइबिल समान आदरणीय होंगे, राम, कृष्ण, ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, महावीर, कबीर एक समान देखे जायेंगे, तभी समानता आ सकेगी।
एक बार की बात है। हुमरियागंज यहां (गोरखपुर) से कोई बहुत दूर नहीं है। वहां के एक पूर्व परिचित सज्जन थे। मेरे साधुवेश में आ जाने के दस वर्ष बाद मुझसे मिले। उन्होंने कहा ’’आप वैदिक होकर कबीरपंथी कैसे हो गये? यह तो बडा अटपटा लगा।‘‘ मैंने कहा ’’क्यों अटपटा लगा? मैं तो पहले केवल
जटायु गिद्ध नहीं थे। गिद्धकूट पर्वत पर रहने से उनके नाम में गिद्धराज विशेषण हो गया था। आज एक राजनीतिक नेता जयसुखलाल हाथी हैं, तो क्या वे हाथी हैं? लौहपुरूष पटेल, क्या लोहे के बने थे? यह एक विशेषण है। जब राम जी गिद्धराज से मिले हैं तब उसने अपने को दशरथ का मित्र बताया है। तो क्या अधम पक्षी गिद्ध दशरथ का मित्र हो सकता था?
केवल अक्षरार्थ करने से बात समझ में नहीं आ सकती। पोथी की सब बातें आंखें मंूदकर मान लेने से ही आदमी अपने को आस्तिक या दीनदार होने का दम भरता है। परन्तु इस प्रकार जिसे नास्तिक या काफिर कहलाने का डर होगा वह सत्य को नहीं समझ सकता। नास्तिक शब्द एक गाली है जिसका प्रयोग दूसरे मत वालों के लिए किया जाता है। कहा जाता है ’नास्तिकों वेदनिन्दकः‘‘ ’’नास्तिको ईसाई निन्दकः।‘‘ केवल किसी बात या मत को नहीं मानने से नास्तिक या काफिर क्यों? कितने ऐसे मत हैं जो मूर्तिपूजा को एकदम नहीं मानते और वे मूर्तिपूजकों को नरकगामी तक बतलाते हैं, परन्तु अपनी पुस्तकों को ईश्वररचित मानते हैं। हम कहते हैं मुर्तिपूजक अच्छे हैं, लेकिन किसी पुस्तक को ईश्वर की जगह पर बैठा देना बहुत बडा अपराध है। क्योंकि यदि पुस्तकों को ईश्वर की जगह पर बैठाया गया, पुस्तक को यदि ईश्वरीय माना गया तो उसमें विचार करने की गुंजाइश नहीं होगी और उसकी जो न मानेगा वह नापाक होगा। यहीं कटुता आयेगी। यहीं जहर होगा। इसलिए वही धर्म समाज को सुख दे सकता है जो दुनिया की सारी पुस्तकों को एक दृष्टि से देखता हो। जब कुरान, वेद और बाइबिल समान आदरणीय होंगे, राम, कृष्ण, ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, महावीर, कबीर एक समान देखे जायेंगे, तभी समानता आ सकेगी।
एक बार की बात है। हुमरियागंज यहां (गोरखपुर) से कोई बहुत दूर नहीं है। वहां के एक पूर्व परिचित सज्जन थे। मेरे साधुवेश में आ जाने के दस वर्ष बाद मुझसे मिले। उन्होंने कहा ’’आप वैदिक होकर कबीरपंथी कैसे हो गये? यह तो बडा अटपटा लगा।‘‘ मैंने कहा ’’क्यों अटपटा लगा? मैं तो पहले केवल वेदों को अपनी पुस्तकें मानता था और राम-कृष्ण को अपना महान पुरूष तथा हिन्दू समाज को अपना समाज। परन्तु कबीर साहेब को पाकर मेरा विचार फैल गया। वेदों के साथ कुरान, बाईबिल आदि पुस्तकें भी मेरी हो गईं। राम-कृष्ण के साथ-साथ मूसा, ईसा, मुहम्मद, जरथुस्त्र, कन्फूसियस, लाओत्जे, बुद्ध महावीर भी मेरे महापुरूष हो गये। हिन्दू के साथ-साथ ईसाई, यहूदी, मुसलमान, कन्फूसियन बौद्ध, जैन भी मेरे हो गये। मैं तो कबीर की शरण में जाकर कुछ खोया नहींः किंतु पाया। मैं छोटे दायरे से बडे दायरे में चला गया। मैंने राम-कृष्ण को खो नहीं दिया, वेदों को खो नहीं दिया, किंतु उनके साथ ईसा मूसादि एवं बाइबिल-कुरानादि को भी पा गया।‘‘
कबीर का नाम ले लो, बुद्ध का नाम ले लो, महावीर का नाम ले लो, तो लोगों को बडी घबराहट हो जाती है। इन्होंने वेदों को नहीं माना है। यह बडी घबराहट का कारण है। लेकिन वेदों को कौन मानता है, यह भी विचारणीय है। आर्यासमाजी लोग वैष्णवों को खुले रूप में अवैदिक कहते है, वे अद्वैत वेदान्तियों को भी अवैदिक कहते हैं। वैष्णव माध्वाचार्य के प्रशिष्य नारायणने ’’मणिमंजरी‘‘, ’’मध्वविजय‘‘ में शंकराचार्य को महाभारतोत्तक मणिमान नामक दैत्य का अवतार कहा है। वैष्णवों का उद्घोष है ’’मायावादी अद्वैतवादी अवैदिक हैं- मायावादमवैदिकम्।‘‘ इस प्रकार हिंदू समाज के अनेक सम्प्रदाय एक दूसर को अवैदिक करते रहते हैं।
हिंदू समाज ने बुद्ध को ऐसा ईश्वर का अवतार कहा है जो दैत्यों की बुद्धि को विमोहित करने के लिए हुआ है। इसका मतलब यह है कि जितने बौद्ध हैं वे दैत्य हैं। बुद्ध ने उनकी बुद्धि वेदों से स्वतंत्र करके उनका पतन किया। यह मिली मार है। किसी को नास्तिक एवं काफिर कहना बहुत बडी बेईमानी है। दुनिया में न तो कोई काफिर है और न नास्तिक। मान लो कोई आत्मा-परमात्मा को नहीं मानता हो, तो उसे भी हम नास्तिक नहीं कह सकते। वह नैतिकता को, अच्छे विचारों को मानता होगा। 0 अभिलाष दास