जावेद अखतर की कलम का जादू सिर चढकर बोल रहा है। वर्ष की सर्वाधिक सफल फिल्म ’’बार्डर’’ के गीतों से लेकर रिलीज हुई प्राइवेट एलबम ’’तुम याद आये’’ तक के तमाम गीत खासे लोकप्रिय हुए हैं। आम आदमी से लेकर आलोचक तक सभी एकमत होकर स्वीकारते हैं कि अर्थहीन गीतों के दौर में जावेद अख्तर ने साफ-सुथरे व साहित्यिक स्पर्श वाले गीत लिखकर एक नई शुरूआत की है।
हालांकि गीत लिखने की शुरूआत जो जावेद साहब ने ’’सिलसिला’’ फिल्म से ही कर दी थी लेकिन सही मायनों में गीतकार के रूप में उनकी शोहरत ’’1942 ए लव स्टोरी’’ से ही मिली। इसके बाद ’’पापा कहते हैं, दिलजले, दस्तक, सपने, बाॅर्डर, मृत्युदंड, दर्मियां, साज, सरदारी बेगम, मिल गई मंजिल, यस बाॅस व और प्यार हो गया’’ सरीखी फिल्मों में जावेद अख्तर ने ठुमरी, कजरी, गजल से लेकर हल्के-फुल्के व गंभीर सभी किस्म के गीत लिखे हैं।
फिल्में बेशक सभी सफल नहीं रहीं हों लेकिन जावेद अख्तर के गीतों ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमन स्थापित किए हैं। रेडियो से लेकर टी.वी. के सभी चैनलों पर इस वर्ष सर्वाधिक दफा जावेद अख्तर की कलम से सजे गीत ही बजे हैं। काउंट डाउन गीतों के कार्यक्रमों में भी शीर्ष पर सर्वाधिक गीत उन्हीं के रहे हैं। फिल्म फेयर (पापा कहते हैं) व राष्ट्रीय पुरस्कार (साज) उन्हीं की झोली में गया है।
जावेद अख्तर सर्वोत्तम पटकथा, संवाद व कहानी के लिए भी कई फिल्म फेयर पुरस्कार जीते चुके हैं। लेखकों को स्टार सरीखा दर्जा दिलाने का श्रेय जावेद अख्तर को ही है। ’’जंजीर, दीवार व शोले’’ जैसी सफल फिल्में उन्होंने सलीम के साथ लिखी थीं। अब्बा जां निसार अख्तर व वालिदा सफिया अख्तर की औलाद होने के नाते जावेद अख्तर को शायरी तो एक तरह से घुट्टी में ही मिली लेकिन जिंदगी में उन्हें खासा संघर्ष करना पडा। पिता से बनी नहीं, फाकाकशी में दिन तक काटने पडे। उसी संघर्ष का नतीजा है कि जावेद अख्तर को लोग उनके पिता के नाम से नहीं वरन् उनकी प्रतिभा से पहचानते हैं।
संघर्ष के दिनों की पूंजी ’’तरकश’’ किताब के रूप में लोगों के सामने आई। जावेद की नज्मों के इस संग्रह की एक लाख से ज्यादा आॅडियो प्रतियां बिक चुकी हैं तथा किताब के छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
कवि व लेखक में कौन बडा है, यह चर्चा उनके प्रशंसकों मंें चलती रहती है मगर जावेद को दोनांें विधाआंें में कोई भी फर्क महसूस नहीं होता। शेर लिखने के साथ-साथ उसे कहने का उनका अंदाज भी निराला है हार्वर्ड, कोलंबिया, मेरीलैंड, लंदन व कैंब्रिज विश्वविद्यालयों से काव्य पाठ के लिए उन्हें अक्सर बुलावा आता रहता है। – रईसा मलिक
जावेद अख़्तर की गजलें
मुझको $कीं है सच कहती थीं, जो भी अम्मी कहतीं थीं।
जब मिरे बचपन के दिन थे, चाँद पर परियां रहती थीं॥
इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया।
इक वो दिन जब पेड़ की शाखें, बोझ हमारा सहती थीं॥
इक ये दिन जब लाखों गम, और काल पड़ा है आँसू का।
इक वो दिन जब एक जरा सी बात पे नदियां बहती थीं॥
इक ये दिन जब सारी सड़कें, रूठी-रूठी लगती हैं।
इक वो दिन जब आओ खेलें सारी गलियां कहती थीं॥
इक ये दिन जब जागी रातें दीवारें को तकती हैं।
इक वो दिन जब शाखों की भी पलकें बोझल रहती थीं॥
इक ये दिन जब जहन में सारी अय्यारी की बाते हैं।
इक वो दिन जब दिल में सारी भूली बातें रहती थीं॥
इक ये घर, जिस घर में मिरा साज-ओ-सामां रहता है।
इक वो घर जिसमें मिरी बूढ़ी नानी रहती थीं।
शब्दार्थ :- अय्यारी – धोखेबा$जी।
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हर खुशी में कोई कमी सी है।
हंसती आँखों में भी नमी सी है॥
दिन भी चुपचाप सर झुकाये था।
रात की नफ़्ज भी थमी सी है॥
किसको समझाएं, किसकी बात नहीं।
जहन और दिल में फिर ठनी सी है॥
ख़्वाब था या गुबार था कोई।
गर्द इन पलकों पे जमीं सी है॥
कह गए हम किससे दिल की बात।
शहर में इक सनसनी सी है॥
हसरतें राख हो गईं लेकिन।
आग अब भी कहीं दबी सी है॥