कलियर शरीफ का उर्स साम्प्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल

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जनपद हरिद्वार मुख्यालय से मात्र 23 कि.मी. दूर उत्तर दिशा में गंगा नहर के पश्चिमी किनारे पर स्थित है साबिर की दरगाह। इस दरगाह पर 10 अगस्त से सालाना उर्स 18 दिन तक चलता है, जिसमें पाकिस्तान बांग्लादेश व अफगास्तिान सहित देश के कोने-कोने से लाखों शायरीन (श्रद्धालु)भाग लेते हैं। हैं। वस्तुतः जनपद हरिद्वार के कोने-कोने में रूहानियत और साम्प्रदायिक एकता की झलक मिलती है। कलियर भी इसका अपवाद नहीं है।
हजरत मखदूम अलाउद्दीन अली अहमद साबिर का जिस समय जन्म हुआ था, उसी समय उनकी माता को मालूम हो गया था कि यह बच्चा आसाधारण व्यक्तित्व का स्वामी होगा, चूंकि बचपन से ही साबिर के क्रिया-कलाप असाधारण थे। इतिहास इस बात का गवाह है कि साबिर की मां का सोचना गलत नहीं था। आज साबिर के दुनिया भर में जो भक्त हैं, वह इस बात का सबूत हैं कि साबिर एक महान सूफी-संत थे। इसी महानता के कारण साबिर की दरगाह पर सालाना उर्स आयोजित किया जाता है।
साबिर का जन्म हिजरी सन् 592 सन् (69) के रबीउल अव्वल माह की 19वीं तारीख को मुुल्तान में एक बहुत ही धर्मनिष्ठ और गरीब परिवार में हुआ था। साबिर कुछ माह की उम्र तक मां का दूध दो समय (सुबह और रात) को पीते थे। फिर यह अवधि दिन में एक बार तथा फिर दो दिन में एक बार हो गई। साबिर ने साढे 4 वर्ष की उम्र में ही ध्यान लगाना शुरू कर दिया था। उस समय गरीबी के कारण उन्हें कई-कई दिन तक खाने को नहीं मिला और उन्होंने खाने के लिए कुछ मांगा तो उनकी मां ने उन्हें बहलाने के लिए चूल्हे पर एक बर्तन में पानी रख दिया और आग जला दी । थोडी देर बार साबिर ने मां से कहा कि चूल्हे पर रखे चावल पक गये हैं मुझे दे दो। इस पर मां ने बर्तन में देखा तो वाकई चावल पके रखे थे। इस घटना की याद में आज भी साबिर की दरगाह पर चावल पकते और बांटते हैं।
खुदा के प्रति साबिर का रूझान देखकर तथा गरीबी के कारण उनकी मां उन्हें लेकर अपने भाई बाबा फरीद के पास पाक पट्टन शरीफ (अब पाकिस्तान में है) चली आईं। यहां बाबा फरीद के लंगर के कारण साबिर को खाने-पीने की कोई दिक्कतें नहीं रहीं।
कुछ समय बाद साबिर की मां अपने घर लौट गईं और साबिर को उनके मामा के पास छोड गयीं। साबिर के खाने-पीने की उचित व्यवस्था की आशा में बाबा फरीद ने साबिर को अपने लंगर पर नियुक्त कर दिया और कहा कि ’’जाओ, पकाओ और लुटाओ।‘‘ उस समय साबिर की आयु 8 वर्ष थी। अब साबिर को दो ही काम थे- लंगर पकवाकर बांटना और खुदा की इबादत करना। यहां यह उल्लेखनीय है कि साबिर अपने काम में किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे।
साबिर के गुस्से और जलाल को देखते हुए बाबा फरीद ने किसी को भी साबिर के पास जाने से मना कर दिया। लंगर बांटने की जिम्मेदारी साबिर 12 वर्ष तक निभाते रहे। 12 वर्ष बाद जब उनकी मां ने उन्हें देखा तो अपने भाई बाबा फरीद से पूछा ’’साबिर इतना कमजोर क्यों है? क्या उसे खाने को नहीं मिलता?‘‘ बाबा फरीद ने इस बारे में साबिर को बुलाकर पूछा तो साबिर ने जवाब दिया कि ’’ आपने पकाने और लुटाने का हुक्म दिया था, खाने का नहीं‘‘ बाबा फरीद ने यह सुनकर साबिर को गले लगा लिया और उन्हें साबिर (धैर्यवान) का खिताब दिया। इससे पहले उनका नाम अली अहमद था। यहीं से उन्हें साबिर कहा जाने लगा।
बाबा फरीद ने यहीं पर साबिर को अपना मुरीद (दीक्षित किया) बनाया और उन्हें शिक्षा देनी प्रारंभ किया। शिक्षा के बाद बाबा फरीद ने साबिर को खिलाफत (धार्मिक पद) अता फरमाई। इसके बाद साबिर को कलियर का खलीफा बनाकर भेजा गया। हिजरी सन् 654 (1231 ई.) के जिलहिज माह की 16वीं तारीख को साबिर ने लोगों को इस्लाम की शिक्षा देना शुरू कर दी। इस पर कलियर का सूबेदार और काजी बिगड गये। उन्होंने साबिर की एक नहीं मानी और साबिर को जादूगर कहकर उनकी अवमानना की। इस पर साबिर ने जामा मस्जिद के माध्यम से कलियर की जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि ’’उन्हें कलियर का इमाम बनाकर भेजा गया है।
एक रोज बाबा फरीद पाक पहल में अपने खलीफाओं के साथ बैठे थे कि उन्हें साबिर की स्थिति की सूचना मिली। उन्होने खलीफाओं से पूछा कि है कोई ऐसा तुममें से, जो साबिर को बिठा सके।‘‘ सब लोग साबिर के गुस्से को जानते थे।
इसलिए खामोश रहे। पूरी महफिल में से सिर्फ ख्वाजा शम्सुद्दीन आगे आये। उन्होंने कहा कि ’’ यह गुलाम इस काम को अंजाम दे सकता है। अगर आपकी दुआ शामिल हाल हो तो‘‘ बाबा फरीद ने ख्वाजा शम्सुद्दीन ने पूछा कि ’’ अगर मैं साबिर को बिठाने में सफल हो गया तो मुझे क्या मिलेगा?‘‘ बाबा फरीद ने कहा कि ’’इसके बदले तुम्हें साबिर ही मिलेंगे।
साबिर के देहान्त के ठीक 200 साल बाद हजरत अब्दुल कुद्दूस गंगोही कलियर आये और उन्होंने देखा कि यहां पर एक तलवार चारों तरफ घूमती रहती है और कोई भी इस क्षेत्र में घुस नहीं पाता। यहां तक कि कोई जानवर भी उडकर गुजर नहीं पाता और जलकर राख हो जाता है। यह साबिर का जलाल था।