कहां है रजिया सुल्तान की मजार

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कहते हैं कि दुनिया को छोडऩे के पहले कुछ काम ऐसा करो कि बाद में भी दुनिया आपको याद रखे। रजिया सुल्तान ने भारत की प्रथम महिला शासक बन कर कुछ ऐसा ही किया था। आज भी इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है, लेकिन जिस दिल्ली सल्तनत की वह प्रथम शासक थीं, वहीं के अधिकांश लोगों को शायद यह पता नहीं है कि उन्हीं के शहर की एक अनाम सी गली में उनकी मजार भी है।
‘रानी साजी की दरगाहÓ के नाम से जानी जाने वाली इस मजार की मानो आज किसी को याद नहीं। जिस मजार को ‘राष्टï्रीय धरोहरÓ का सम्मान मिलना चाहिए, उसे बुलबुलीखाने की एक छोटी सी गली के बड़े-बड़े घरों के बीच बस थोड़ी सी जगह मिली हुई है।
यह स्थान पुरानी दिल्ली के एक प्रसिद्ध इलाके तुर्कमान गेट से काफी अंदर जाने तथा अनेक संकरी गलियों को पार करने के बाद स्थित है। इतनी प्रभावशाली महिला व भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण पात्र रजिया सुल्तान अब सिर्फ उन लोगों के विचारों में जीवित है, जो उसकी मजार को एक पाक स्थान समझकर उसकी साफ-सफाई करते हैं और वहां पांचों वक्त नमाज अदा करते हैं।
बुलबुलीखाने से बाहर, दुनिया के लिए यह जगह उतनी ही अनजान और दुर्गम है, जितना कि शायद ब्रह्मïांड का कोई और कोना। स्थिति यह है कि तुर्कमान गेट के निकट भी बहुत से लोगों को यह पता नहीं है कि दिल्ली सल्तनत की प्रथम और अंतिम महिला शासक रजिया सुल्तान की मजार दरअसल है कहां? दिल्ली आने वाले पर्यटक, खासकर विदेशी पर्यटक बड़ी तादाद में जामा मस्जिद, लाल किला आदि तक तो आते हैं, पर वे मुश्किल से इस मकबरे तक पहुंच पाते हैं।
हालांकि इन दोनों स्थानों से रजिया सुल्तान की मजार की दूरी महज डेढ़- दो किलोमीटर है। विदेशी पर्यटकों के साथ आने वाले गाइड भी उन्हें यहां तक लाने की जहमत नहीं उठाते। इस मजार की जानकारी देने के लिए लाल किला, जामा मस्जिद या तुर्कमान गेट आदि ऐतिहासिक स्थलों पर कोई बोर्ड या संकेतक भी उपलब्ध नहीं हैं, यही नहीं जिस शख्सियत का नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है, उसका जिक्र राजधानी के रोड मैप व टूरिस्ट गाइड तक में नहीं है।
बताते हैं कि इस मजार को चर्चा में लाने के लिए कुछ स्थानीय लोगों ने हेमामालिनी अभिनीत बहुचर्चित फिल्म ‘रजिया सुल्तानÓ के निर्देशक कमाल अमरोही से संपर्क भी किया था, पर उन्हें तब निराशा हाथ लगी, जब तथाकथित रूप ऐसा बताते हैं कि अमरोही ने भी इस मजार के बारे में कोई जानकारी होने से अनभिज्ञता जाहिर की। आगे बढऩे से पहले थोड़ी चर्चा रजिया सुल्तान के दिल्ली की गद्दी पर बैठने की परिस्थितियों की भी कर लें।
इल्तुतमिश (1211–1236 ई.) ने अपनी होनहार, योग्य व पराक्रमी बेटी रजिया को 1235 ई. में ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, मगर उनके कुछ करीबी लोगों व सरदारों ने एकतरफा फैसला लेते हुए उनके सबसे बड़े जीवित बेटे रुकनुद्दीन फिरोज को गद्दी पर बिठा दिया।
फिरोज ने महज छह महीने बाद ही खुद को उत्तराधिकार की लड़ाई से अलग कर लिया। इस प्रकार 1236 ई. में रजिया दिल्ली की गद्दी पर विराजमान हुईं। लेकिन वह भी इस पद पर ज्यादा समय तक नहीं रह पाई। कहा जाता है कि दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही उसे अनेक अवरोधों तथा बगावतों का सामना करना पड़ा। उसके खिलाफ बगावत करने वालों में अनेक सरदार तथा उसका छोटा भाई मुईजुद्दीन बहराम शाह भी शामिल था। इनसे लोहा लेती हुई 1240 ई. में वह कैथल पहुंच गई, जहां उसे गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में 14 अक्टूबर 1240 को उसकी हत्या कर उसे वहीं दफना भी दिया गया।
एक मान्यता यह भी है कि उनकी मजार कैथल में उसी स्थान पर है, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसा मानते हैं कि दिल्ली का वह इलाका, जिसे एक जमाने में शाहजहांनाबाद के नाम से जाना जाता था, के बुलबुलीखाने में स्थित मजार ही रजिया की असली मजार है। रानी साजी की दरगाह के नाम से प्रसिद्ध यह परिसर चारों ओर से ऊंचे-ऊंचे मकानों से ढंका है। इसकी छत खुली है।
इस परिसर के ठीक बीचोबीच एक प्लेटफॉर्म है, जिस पर दो मजारें हैं, इनमें से एक तो रजिया सुल्तान की है, लेकिन दूसरी के बारे में लोगों को ज्यादा पता नहीं है। ऐसा माना जाता है कि यह मजार उनकी बहन साजिया की है, जिसके बारे में दुनिया बहुत कम जानती है। परिसर के दक्षिण-पश्चिमी कोने पर भी दो छोटी मजारे हैं, लेकिन ये किनकी हैं, यह किसी को पता नहीं।
परिसर की पश्चिमी दीवार पर एक मेहराब (आर्च) बना हुआ है, जिसके ऊपर हाल के दिनों में टिन शेड डाला गया है। अब इसकी देखरेख का जिम्मा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास है।
भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा इसकी निगरानी के लिए नियुक्त मोहम्मद साजिद का कहना है कि यहां कोई सरकारी जलसा तो नहीं होता, मगर स्थानीय लोग साल में एक-दो दफा ‘कुरान-ख्वानीÓ कराते हैं। इस बहाने यहां काफी लोग आने लगे हैं। – रईसा मलिक