किशोर वय के बच्चों के सवालों से परेशान न हों

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अनिकेत की मम्मी श्रद्घा को जब भी अपनी कोई बात मनवाना होती है, वे तुरंत अनिकेत के दोस्त साहिल से संपर्क करती हैं। श्रद्घा का कहना है- ‘साहिल अनिकेत का ‘बेस्ट फ्रैंडÓ है। वो मेरी बात सुनने के बजाए साहिल की ज्यादा सुनता है। इसलिए मैं जरूरत पडऩे पर साहिल को ही बोलती हूं।Ó
श्रद्घा को अपने बच्चे को समझाने के लिए किसी दूसरे की मदद लेना पड़ती है, यह उनके लिए काफी त्रासदायी अनुभव रहता है, लेकिन किया क्या जा सकता है? इस दौर के करीब अस्सी प्रतिशत माता- पिता ऐसी स्थितियों का सामना करते हैं। श्रद्धा समझती है कि टीनएज में बच्चे दोस्तों की ज्यादा सुनते हैं और माता -पिता के निर्णयों को वे सिर्फदबाव में आकर स्वीकारते हैं। लेकिन वास्तविकता इससे उलट होती है।
दोस्तों के साथ बच्चे कितना भी वक्त क्यों न बिताएं, पर हर युवा के लिए अभिभावक अहम होते हैं, हालांकि ये परिवार के वातावरण और अभिभावकों के व्यवहार पर निर्भर करता है कि वे इस अहमियत को कितनी अहमियत देते हैं।
क्यों होता है ऐसा
अगर आपने बचपन से ही बच्चों के साथ खुद को बांटा और जोड़ा है, तो मान कर चलिए, उनके लिए दोस्त कितने ही महत्वपूर्ण क्यों न हों, वे आपके फैसले से परे नहीं जा सकते…
‘पीयर प्रेशरÓ यानी दोस्तों का दबाव किसी बच्चे को प्रभावित करे, यह कोई नई बात नहीं है। बच्चा हम उम्र दोस्तों के साथ समय ज्यादा बिताता है और ज़ाहिर है एक उम्र और एक-से विचारों का प्रभाव गहरा पड़ता है।
दूसरी तरफ घर के परिदृश्य पर भी नज़र डालें, जहां कल तक अपने हर फैसले के लिए बड़ों पर निर्भर रहने वाला बच्चा आज बड़ा हो गया है। दरअसल माता- पिता उम्र के इस बदलाव को उतनी गंभीरता से लेते ही नहीं है। जब उम्र बढ़ती है, तो विचार भी परिपक्व होते हैं। किशोरवय बच्चे घर से बाहर जाते हैं और दोस्तों के बीच उनकी स्वतंत्र शख्सियत बनती है।
हर बात- घटना पर उनका अपना नजरिया विकसित होने लगता है। यहां माता-पिता को समझदारी से काम लेना चाहिए। बच्चे के तर्क को नकारने या उसे बहस का नाम देने की बजाए सुनें और अपनी बात भी तर्कों के साथ रखें। कम से कम टीनएजर यानी सोचने- समझने वाले बच्चे से तो ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो बिना तर्र्क किए, अभिभावकों का कोई भी निर्णय, आंख मूंदकर मान लेगा।
और जो माता- पिता बच्चों के सवाल करने को उनकी हठधर्मी, बेअदबी या बगावत मान लेते हैं, समस्या उनके लिए खड़ी होती है। वे फिर बच्चों के दोस्तों पर निर्भर रहने को मजबूर होते हैं। स्वीकार कर लीजिए कि बच्चा भी सही सोच सकता है। यदि आप ऐसा कर पाते हैं, तो- ‘आजकल के बच्चे सुनते कहां हैंÓ जैसे वाक्य बोलने की जरूरत ही नहीं रहेगी।
अपने बारे में भी बताएं अभिभावक
बात बहस में तब्दील होने की स्थिति उन घरों में उत्पन्न होती है, जहां माता- पिता संतान को अपनी मुश्किलों के बारे में नहीं बताते। यही वजह है कि बच्चे दोस्तों से जो सुनते हैं या उन्हें करते देखते हैं, उसे ही सच और सही समझते हैं। जबकि सच यह है कि हर बच्चे के लिए माता-पिता खास महत्व रखते हैं। उन्हीं की भूमिका बच्चे के जीवन में अहम् और निर्णायक होती है। बस जरूरत है, तो इसे सही ढंग से पेश करने की।
मिसाल पेश करें
यदि आप बच्चे को समझाते या किसी चीज का महत्व बताते हैं, तो बात का असर ज्यादा गहरा होता है। पेशे से पत्रकार नीतू बताती हैं, ‘जब मैं सातवीं में पढ़ती थी, तो डैडी मुझे और मेरे बड़े भाई को घड़ी दिलाने ले गए। जब मम्मी ने इस उम्र में इतनी महंगी चीज दिलाने से मना किया, तो डैडी ने बताया कि उन्हें अपनी पहली घड़ी कॉलेज में जाने पर मिली थी। पर मैं चाहता हूं ये दोनों वक्त और वस्तु दोनों की कीमत इस उम्र से ही समझना सीखें।Ó
नीतू के मन में यह बात इतने गहरे बैठी कि उन्हें उस घड़ी से कीमती कुछ नहीं लगा। ‘इसके बाद मेरे मन में पापा के लिए अगाध श्रद्घा आ गई, साथ ही लगा कि हमारे लिए कितना सोचते हैं। और यह भी कि सुविधाएं कितनी मुश्किल से मिलती हैं।Ó नीतू ने आगे बताया। आज के युवा इसे बीते जमाने की बात कहकर खारिज नहीं कर सकते। और ऐसी मिसालें युवाओं को अपनी ज़रूरतों तथा उनके पूरे होने में आने वाली दिक्कतों को समझने में ज्यादा मददगार साबित होती हैं।
ध्यान देने वाली बातें
जब रिश्ता दृढ़ बंधनों में बंधता है, तब कौन किसकी मानेगा ऐसा झगड़ा नहीं होता। अभिभावकों और बच्चे के बीच भी यही बंधन काम करता है। यदि आप अपने बच्चे के बारे में सब कुछ जानते हैं, तो समस्या कभी नहीं होगी। बच्चे पर इतना अंकुश न लगाएं कि वह खुद को कैदी समझने लगे। ज्यादातर माता- पिता बच्चों का ‘स्पून फीडिंगÓ करते हैं।
ऐसे व्यवहार से वे खुद फैसला लेने में असमर्थ महसूस करते हैं। इसी के चलते अगर माता-पिता का लिया कोई फैसला गलत हो जाए उन्हें लगता है माता -पिता समय के अनुसार फैसला नहीं ले पाते हैं, तो दोस्तों पर निर्भर हो जाते हैं। अगर अभिभावक इस मामले में खुद को परखना चाहते हैं, तो इन सवालों के उत्तर दें –
बच्चों के कितने मित्रों को आप जानते हैं?
यदि बच्चा घर आने में लेट हो रहा है, तो क्या आपको सूचित करेगा?
क्या आप जानते हैं कि स्कूल के बाद आपका बच्चा कहां जा सकता है?
आप अपने मित्रों से बच्चों को मिलवाते हैं?
क्या आप बाहर जाते समय अपना संपर्क नंबर बच्चों को देकर जाते हैं और क्या ऐसा ही बच्चे भी करते हैं?
बच्चे जेबखर्च कैसे खर्चते हैं?
क्या बच्चों के साथ घर संबंधी गंभीर चर्चाएं और उनके साथ दोस्तों जैसी मस्ती कभी-कभी आप करते हैं?
अगर आपने बचपन से ही बच्चों के साथ खुद को बांटा है और उनके बचपन से स्वयं को जोड़ा है, तो यकीन कीजिए, बच्चों के लिए दोस्त कितने ही महत्वपूर्ण क्यों न हों, वे आपके फैसले से परे नहीं जा सकते। साभार
– डॉ. संतोष सोमसुंदरम
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