कैसे हो सूरमा भोपाली

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भारत के किसी भी कोने में चले जाइये, भोपाल का नाम आते ही शोले फिल्म के सूरमा भोपाली का चेहरा याद आ जाता है। या यों कहिए कि देश के किसी भी प्रांत में सूरमा भोपाली के किरदार की याद दिलाने पर हमें भोपाली के रूप में पहचान लिया जाता है। क्योंकि शोले फिल्म का यह संवाद तो सदा बहार है।
अरे खां पान खालो…………..या……..अपना नाम भी सूरमा भोपाली ऐसैई नई है…………..
यह सच है कि भोपाल के बाशिन्दे अपनी गर्म जोशी और मेहमान नवा$जी के साथ-साथ हंसने, गुदगुदाने की आदत और बातूनीपन के लिए भी जाने जाते हैं। पटियों पर बैठकर अपने घर, समाज, और पूरे देश की राजनीति तय करने वाले भी माने जाते हैं।
भोपाल के इन्हीं पटियों पर बैठकर जहां गंभीर चिन्तन होते हैं। वहीं हम बातूनी लोग भोपाली लटके झटकों से अपना टाइम भी पास करते हैं। भोपाल के इन पटियों पर होने वाले जोड़ जहां सभी समाजों को जोड़कर रखते हैं वहीं देश की राजनीति के लिए कद्दावर नेता भी तैयार करते हैं। अभी तक हमारा यही भोपाल सांसद, केंद्रीयमंत्रियों से लेकर दो दो उप राष्टï्रीपति, और महामहिम राष्टï्रपति भी इस देश को दे चुका है। जहां लोक सभा में स्पीकर, भोपाली रह चुकी हैं वहीं एक से ज्यादा राज्यपाल भी भोपाल से बन चुके हैं।
दर असल हमारे भोपाल के कई रूप हैं। जहां बड़े-बड़े क्रांतिकारी भोपाल ने पैदा किए हैं वहीं परमाणु वैज्ञानिक से लेकर अन्तर्राष्टï्रीय खिलाड़ी तक हमारे शहर ने जन्में हैं। एक तरफ तो यहां के लोग देश के लिए गंभीर चिन्तन करते हैं। वहीं दूसरी तरफ हम भोपाली हास्य व्यंग्य से एक दूसरे पर मुहब्बत भरी छींटाकशी करते हैं तो उस समय उर्दू और हिन्दी के मिले-जुले जुमले हमारी बातों में शुमार होते हैं। किसी की खैरियत जानने के लिए हमारे जुमले ऐसे होते हैं-
क्यों खां कैसे हो? क्या चल रिया है?
मियां खैरियत तो है? यह जुमले यहां के हिन्दू और मुसलमान एक ही लय में बोलते हैं।
मूंड और मिजाज के हिसाब से जवाब भी ऐसे ही होते हैं जैसे- दुआएं हैं। उमदा कट रई है जनाब। सब ठीक-ठाक चल रिया है। यहां हिन्दू दोस्तों को भी मियां कहकर सम्बोधित किया जाता है। जैसे रमेश मियॉ…. कहां से आ रहे हो? कहो जनाब राजेश मियां क्या हो रिया है?
वगैरह-वगैरह।
हमारा कल्चर गंगा जमनी तह$जीब
भोपाल शहर की हिन्दू-मुसलमानों की मिली-जुली गंगा जमनी भाषा ही तो हमारी विरासत है। हमारी तह$जीब है इसका मखौल बनाकर इसे बर्बाद नहीं किया जा सकता। हर शहर और हर $कस्बे की अपनी एक भाषा होती है। यह भाषा ही हमारी व हमारे क्षेत्र की पहचान होती है। जैसे मनुष्य के जीवन में नौ रस होते हैं। वैसे ही हर शहर के अनेक पहलू होते हैं। अगर आपने अभी तक शोले फिल्म में भोपाल की भाषा का म$जाकिया अन्दा$ज देखा है तो अब मैं लेकर चलता हूँ आपको भोपाल के गौरव पूर्ण इतिहास की ओर
भोपाल क्या है
राजा भोज की नगरी है, रानी कमलापति की शान है
दोस्त मो. खां का नायाब शाहकार है भोपाल
ग्यारहवीं शताबदी में, मौजूदा शहर भोपाल, धार के राजा, राजा भोज देवा के माध्यम से 1010 में कायम हुआ। इससे पहले पूरा इलाका वीरान जंगल था जहां गांैड और भील बहुत थोड़ी संख्या में रहते थे। यहां उनका अपना कबाइली निजाम चलता था। राजा भोज देवा के कार्यकाल में ही भोजपुर का विशाल शिवमंदिर बनाया गया था। जो दुनियां भर में मशहूर है। यहां भोपाल ताल भी राजा भोज ने ही बनवाया था। (वर्तमान में भोपाल में जो बड़ा तालाब है यह वह ताल नहीं है।) राजा भोज देवा का ताल 365 नदी और नालों को जोड़कर बनवाया गया था। यह तालाब बेतवा नदी को मुख्य स्त्रोत बनाकर 365 नदी-नालों को उसमें समाहित करके बनाया गया था। यह तालाब भोजपुर क्षेत्र में एक बांध बनाकर रोका गया था। जिससे 250 वर्गमील यानि आज के 375 वर्ग किमी क्षेत्र में तालाब बन गया था। शायद यह विश्व का मानव निर्मित सबसे बड़ा तालाब था। इसे भीमकुण्ड भी कहते थे। तालाब बनाने की जो बाउंड्री बनाई गई थी उसे उस ज़माने में पाल बनाना कहते थे। इसी कारण इस तालाब का नाम भोजपाल पड़ गया था।
ताल तो भोपाल ताल बा$की सब तलैयें
भोजपाल से बिगड़ कर काफी लम्बे अरसे तक भूपाल कहा जाता रहा और बाद में यह भोपाल हो गया। इस ताल की किवदंतियां भी बन गईं। लोग कहते थे ताल तो भोपाल ताल बा$की सब तलैये। दुर्भाग्य से इस विशाल तालाब को होशंगाबाद के संस्थापक हिस्साम उद्दीन होशंगशाह गौरी ने 1405 में सौ गज पहाड़ काट कर, इसका सारा पानी बहा कर बर्बाद कर दिया। इस ताल के अवशेष बंगरसिया से भोजपुर तक अभी भी मिलते हैं। इतिहास से पता लगता है कि राजा भोज देवा के जमाने में और उनके पोतों के जमाने में तो भोपाल काफी हरा-भरा और आबाद रहा होगा। लेकिन 600-700 साल का सफर करते हुए 17वीं शताब्दी में यानि रानी कमलापति का $जमाना आते आते भोपाल एक मामूली गांव या कसबे की शक्ल में रह गया था।
रानी कमलापति का शासन
17वीं शताब्दी का अंतिम काल था। रानी कमलापति भोपाल की शासिका थीं। रानी कमलापति गिन्नौर के राजा निजामशाह की विधवा थीं। नि$जाम शाह को उनेक ही बिरादरी वालों ने $जहर देकर मार डाला था। विधवा रानी को निरबल जानकर गौड राजा उनपर आक्रमण किया करते थे। रानी बड़ी बहादुरी से अपने लक्ष्य के साथ उनका सामना किया करती थी। रानी अपना शासन पुराने किले से चलाती थीं (पुराना किला आज भी कमला पार्क में स्थित है, जिसे रानी कमलापति का महल कहते हैं।)
सेनापति दोस्त मोहम्मद खां का उदय
17वीं शताब्दी के अंतिम काल में दोस्त मो. खां का उदय हुआ। आप अफगानिस्तान के रहने वाले थे। 1696-97 में जलालाबाद जिला मुजफ्फर नगर (उ.प्र.) आये। फिर दिल्ली पहुंचकर बादशाह औरंगजेब के बेटे बहादुर शाह प्रथम की फौज में नौकरी कर ली। बाद में तरक्की देकर इनको मालवा भेज दिया गया। जहां आपने मुगल अम्पायर के खिलाफ होने वाले विद्रोहो को दबाया, और मुखतलिफ इलाकों में मु$गलिया परचम लहराया। बादशाह औरंगज़ेब की मौत के बाद सन्ï 1708 में आपने मु$गलों की फौज से त्याग-पत्र दे दिया और अपने 50 सवारों की टुकड़ी के साथ भोपाल के पास बैरसिया में आकर बस गए। उन्होंने अपने परिवार को भी यहीं बुलवा लिया था। वो जमाना ताकत का जमाना था। उस समय हुकूमतें वोट से नहीं बनती थीं। हुकूमतें तलवार से बनती और बिगड़ती थी। जिसकी तलवार में दम होता था। वही राज करता था। सबसे पहले दोस्त मो. खां ने जगदीशपुर पर कब्जा कर लिया था। आज भी यह किला महफूज है। अब इसे इस्लाम नगर का $िकला कहते हैं। यह $िकला भोपाल में करोंद चौराहे से 7 किमी आगे, लाम्बाखेड़ा के पास है। दोस्त मो. खां ने सांची सहित बहुत से इलाके जीत लिये थे। और फिर भोजपुर भी उनके कब्जे में आ गया था।

लेखक श्री दुलारे जख्मी द्वारा लिखित लेख सूरमा भोपाली की पहली किश्त।