क्या है मानवता का अर्थ?

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मानवता का सही अर्थ है दूसरोंï के दु:ख को बांट लेना और अपने सुख को बांट देना। आत्मीयता का विस्तार दूसरोंï के सहयोग, सहकार से होता है। आत्मसंतोष व आत्मिक आनंद तथा सुख दूसरोंï की सहायता करने मेंï ही निहित है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना विकसित करने मेंï एक दूसरे को सहयोग करने की इच्छा भी बलवती होती है। जिसकी आज के आपाधापी के समय मेंï महती आवश्यकता है।
हमेंï निज स्वार्थ और संकीर्णता से ऊपर उठकर उदारता, सद्भाव, स्नेह, सेवा, सहनशीलता,ममता, दया, करुणा जैसे मानवीय अलंकरणोïं को ँअंगीकार करना है, यही सभ्य समाज की आवश्यकता है। संकीर्ण स्वार्थपरता हमारा सबसे बड़ा दुर्गुण है जो हमेंï दूसरोंï से दूर करता है। इसे हमेंï मानवता की परिधि से दूर ही रखना है। इसी मेंï हमारे साथ-साथ सभी का कल्याण निहित है। पारस्परिक निकटता, सहयोग, सद्भाव की प्रवृत्ति मानव से मानव मेंï विश्वास उत्पन्न करती है और जहाँ विश्वास है वहाँ प्रेम एवं आनंद का सागर हिलोरेï ले रहा होता है। मानवी प्रगति का आधार सहकारिता भी है, केवल बुद्धि अथवा ज्ञान को ही श्रेय देना उचित न होगा। वास्तविक रूप देखा जाये तो मनुष्य ने अब तक जितनी भी प्रगति की है केवल अकेले ही नहीं की, बल्कि उसके पीछे अन्य कई लोगोंï का हाथ रहा है, चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या जीविकोपार्जन का, बिना दूसरे के सहयोग से बात बनने वाली नहींï है। सामूहिक सहयोग से बड़े से बड़े काम आसानी से सम्पन्न किये जा सकते हैï। परमार्थ का वास्तविक स्वरूप जरूरतमंदोïं की मदद करने मेंï देखने को मिलता है। आध्यात्मिकता की पहचान भी यही है कि हम दूसरोंï के अधिकाधिक काम आयेï। मानव होने के लिए मनुष्य को सर्वप्रथम सेवाभावी, सहिष्णु, विनम्र, अनुशासित, सदाचारी और शिष्टïाचारी होना आवश्यक है। ज्ञान अथवा शिक्षा की सार्थकता इसी मेंï है कि हम उसे अपने आचरण या व्यवहार मेंï अधिकाधिक लायेंï। सबके सहयोग से तमाम सामाजिक समस्याओïं से भी निपटा जा सकता है। साथ ही रचनात्मक कार्यों की आशातीत सफलता के पीछे सामूहिकता का ही हाथ होता है।
जैसे कोई मकान बनाने या नहर बनाने के लिए तमाम लोगोंï की आवश्यकता होती है, अकेले के बस की बात नहीïं है। इसके लिए अपने पास चाहे जितना धन क्योंï न हो, बिना दूसरोïं का सहयोग लिए काम बनने वाला नहीïं है। यह सिद्धान्त है कि जब आप दूसरोंï के काम आयेïंगे तो दूसरे भी आपके काम आयेंïगे। खासकर पड़ोस मेंï तो सम्बन्ध मधुर बनाकर ही रखना चाहिए, पता नहींï कब किसी के सहयोग की आवश्यकता पड़ जाये। सहयोग की भावना को सर्वप्रथम अपने स्वभाव का अंग बनाना चाहिए, इसके बाद अपने परिवार तथा मित्रोंï मेंï यह भावना विकसित करना चाहिए। यह मानवता की पहली आवश्यकता है। इससे संकीर्णता घटती है और आत्मीयता का विस्तार होता है। क्योंïकि संकीर्णता लोगोïं को हमसे दूर करती है। सबके सुख मेंï अपना सुख और सबके दु:ख मेंï अपना दु:ख अनुभव करना धर्म का मार्ग है।
– रईसा मलिक