ख़ानकाहों से होकर भी जाता है कामयाबी का रास्ता-वारसी

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भारत में कव्वाली का प्रचलन ख्वाजा गरीब नवा$ज के दौर से शुरू हुआ जिसे ह$जरत अमीर खुसरो ने एक नई पहचान दी। भारत में वैसे तो अनेक कव्वाल हैं जिनके नाम का डंका पूरी दुनिया में बजता है। इन्हीं में से एक नाम है उस्ताद अहमद हुसैन खान वारसी का जो सूफियाना कलाम पढऩे के लिए विश्व विख्यात हैं और उनको अनेक देशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने मौका मिला। विगत दिनों म.प्र. राज्योत्सव के समापन समरोह में भाग लेने आप भोपाल आए, इस अवसर पर रईसा मलिक की उनसे हुई बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं-
प्र. कव्वाली पढऩा आपने कब से शुरू किया?
उ. मैं शुरू से, बचपन से $कव्वाली में हूँ, क्योंकि मेरे पूर्वज नवाब रामपुर के यहां क्लासिकल गाया करते थे। ऐसा समय आया जब सभी नवाबी रियासतों का भारत में विलय हो गया। गाने सुनने का शौक नवाबों को हुआ करता था, रियासतों के विलय होने के बाद उन गायकों के सामने यह समस्या आई कि अब कहां जायें। उसी दौरान कुछ रेडियो स्टेशन खुले,ं कुछ गाने बजाने वाले वहां जाने लगे। हम $कव्वाली में आ गये।
प्र. आपके परिवार में आपसे पहले भी कोई $कव्वाली पढ़ता था ?
उ. हां हमारे वालिद, हमारे दादा सभी कव्वाली करते थे और शास्त्रीय गीत भी गाते थे।
प्र. आपकी पैदाइश कहां की है?
उ. मेरी पैदाइश रामपुर की है।
प्र. अभी तक आप कहां-कहां कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुके हैं?
उ. हिन्दुस्तान में कोई जगह ऐसी नहीं है कोई दरगाह ऐसी नहीं है जहां मैं नहीं जाता हूँ और हिन्दुस्तान के बाहर भी जाना होता है। भारत सरकार की ओर से भी मुझे विदेशों में भेजा जाता है।
प्र. विदेशों में आपने कहां-कहां $कव्वाली प्रस्तुत की है?
उ. अधिकांश देशों में हम अपने कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुके हैं। दो-चार देशों को छोड़कर-
आप क्यों पूछते हो दर्द की हालत
एक जगह हो तो बता दूँ॥
अभी अमरीका नहीं गया, क्योंकि जंग से पहले मैं इराक गया था और वहां की सरकार ने मुझे सम्मान प्रदान किया था। उस समय वहां सद्दाम हुसैन की हुकूमत थी। सद्दाम हुसैन जल्दी किसी से नहीं मिलते थे लेकिन अल्लाह का करम था कि उन्होंने मुझे खासतौर से मिलने के लिये बुलाया। सद्दाम हुसैन ने मुझे बहुत सराहा। वहां के कार्यक्रम में 52 देशों के कलाकार शामिल थे, मगर $कव्वाल अकेला मैं ही था।
इस कार्यक्रम में जाने के लिए उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने भी भारत सरकार से निवेदन किया था। तब राष्टï्रपति अब्दुल कलाम साहब ने कहा कि आप नहीं जायेंगे वारसी साहब जायेंगे। सभी कलाकारों के कार्यक्रम 15 से 20 मिनट के ही हुए लेकिन मैंने लगभग डेढ़ घण्टे $कव्वाली पेश की। मैं तो ये समझता हूँ कि ये सब ख़्वाजगान का करम है।
ये हिन्दुस्तान में जो देन है यह बुजुर्गों की है। मैं तमाम दरगाहों पर उर्स में $कव्वाली पेश करने जाता हूँ। ह$जरत नि$जामउद्दीन औलिया के वालिद की दरगाह जो बदायूँ शरीफ में है वहां की पगड़ी मेरे सर है। ह$जरत ख्वाजा निज़ामउद्दीन औलिया की उन्नीसवीं पुश्त अहमबाद में है। ह$जरत ख्वाजा नसीरउद्दीन चिरा$ग देहलवी, सूफी अल्लामा कमाल और उनके बेटे चले गये पाक पट्टन शरीफ। वहां की पगड़ी भी मेरे सर है।
प्र- विदेशों में $कव्वाली के कार्यक्रम कैसे रहते हैं?
उ. दक्षिण अफ्रीका में ह$जरत ख्वाजा गरीब नवा$ज रह. का 786वां उर्स बहुत धूमधाम के साथ मनाया गया। उस कार्यक्रम में भी मैं गया। प्रीटोरिया में यह कार्यक्रम बहुत बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया था।
रख ही लेते हैं भरम इनके करम के सद$के।
जब किसी बात पे दीवाने मचल जाते हैं॥
प्र. आपने क़व्वाली ही क्यों पढऩा शुरू किया ग़$जलें आप क्यों नहीं पढ़ते?
उ. $ग$जलें भी हम पढ़ते हैं मगर $कव्वाली में हम आ गये थे रियासतों के विलीनीकरण के बाद।
हम तो ये समझते हैं कि ज़मीं है न गगन है।
यह फूलों की तुरबत है वो तारों का कफन है॥
एक ऐसे नये मोड़ पे ले आई है $िजन्दगी।
इन्सान जहां मैयते बे गौरो कफन है।
हालात से मुतास्सिर होकर ही आदमी कोई काम करता है। तो हम इस तरह से $कव्वाली में ही रम गये।
प्र. आपकी आने वाली पीढ़ी में किसी को $कव्वाली पढऩे का शौक है?
उ. हां हमारे बच्चे भी $कव्वाली कर रहे हैं हालांकि कभी भी मैंने अपने बच्चों पर $जोर नहीं डाला। मैंने अपने सब बच्चों को अच्छी तालीम दी है। मेरा बेटा भी मेरे साथ कार्यक्रम पेश करता है और तबले पर संगत करता है। नुसरत फतेह अली खां पुलिस में अफसर थे लेकिन वो $कव्वाली में ऐसे आए कि वो इसी में रम के रह गये और आज दुनिया उन्हें इसी सिलसिले से जानती है।
प्र. आजकल रीमिक्स का दौर है, उससे $कव्वाली पर क्या असर पड़ेगा?
उ. कोई भी दौर आता है उसका $गलबा थोड़ी देर के लिए ही होता है। मगर ख़ानकाही $कव्वाली दब तो सकती है खत्म नहीं हो सकती। ये वो ची$ज है कि जिस काम की बुनियाद ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती ने रखी थी तो फिर उसको $जवाल है ही नहीं। जितना भी पढ़ा-लिखा तबका है वो इसको पसंद करता है।
प्र. आप $कव्वाली के दौरान जो फारसी के अशआर पढ़ते हैं उसके लिए आपको अध्ययन करना पड़ता होगा?
उ. इसमें सूफी ह$जरात का बहुत बड़ा हाथ रहा है। हमारे जो सुनने वाले हैं उन्होंने भी हमारी इसमें बहुत मदद की। $कव्वाली में सबसे पहले तो शीन-$काफ दुरूस्त होना चाहिए। सही अल्फा$जों की अदायगी यह सबसे बड़ी बात है। 1993 में मैं ईरान गया था वहां मुझे $कव्वाली पढऩे का बड़ा म$जा आया क्योंकि वहां की $जबान फारसी है। वहां की हुकूमत ने मेरा सम्मान किया।
प्र. आपको ईरान जाने का मौ$का कैसे मिला?
उ. यहां हिन्दुस्तान में ईरान एम्बेसी में र$जा शाह पहलवी के $जमाने में एक कार्यक्रम हुआ था इसमें हिन्दुस्तान से 15 पार्टियों को बुलाया गया था जिनके बीच मुक़ाबला हुआ। उस मु$काबले में मैं ईरान जाने के लिए चुना गया था। इस मुकाबले के जजों में अली सरदार जाफरी और सभी दरगाहों के बड़े-बड़े सज्जादा नशीन शामिल थे। इस मु$काबले में हमने मौलाना शम्स तबरे$ज हाफि$ज शीरा$जी के $फारसी $कलाम पढ़े और उर्दू में अल्लामा इ$कबाल का कलाम पढ़ा। जिसका शेर हैं-
मजनू ने शहर छोड़ा है तो सहरा भी छोड़ दे।
दीदार की हवस है तो लैला भी छोड़ दे॥
सौदा गरी नहीं ये इबादत खुदा की है।
ओ बेखबर ज$जा की तमन्ना भी छोड़ दे॥
लुत्फे $कलाम क्या जो न हो दिल में सो$जे इश्क़।
बिस्मिल नहीं है तू तो तड़पना भी छोड़ दे॥
ला$िजम है दिल के पास रहे पासबाने अक़्ल।
लेकिन कभी-कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे॥
प्र. इसके अलावा आप और क्या शौक रखते हैं?
उ. क्रिकेट देखना मुझे बहुत पसंद है। यही दुआ है कि जो अभी वल्र्ड कप हो रहा है इसमें हमारी इंडिया जीत जाये। जब इंडिया जीत जाती है तो बड़ी खुशी होती है।
प्र. नये $कव्वाली पढऩे वालों के लिए आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?
उ. मैं उनसे यही कहूँगा कि आने वाली नस्लें अच्छे तरीक़े से इस काम को करें, सीखें और इस तरफ इनकी तवज्जो हो और मेरी तो यही दुआ है कि अल्लाह तआला उनको कामयाबी हासिल करे। $कव्वाली में ठेके का भी बहुत महत्व है। धुनें भी रागों में बनाई जाती हैं। आजकल बच्चों का रूझान उर्दू की तरफ नहीं है।
आजकल के नये गाने वाले यह सोचते हैं कि आसमान से तारे तोड़ लाऊं जबकि कामयाबी और बुलंदी का एक रास्ता खानक़ाहों की तरफ से भी होकर रास्ता है बुलंदी इधर ही है। बड़े-बड़े गायक, क्लासिकल गाने वाले और फिल्मी दुनिया के तमाम बड़े-बड़े लोग माथा टेकने अजमेर शरीफ आते हैं और कामयाबी की दुआएं मांगते हैं।
प्र. आपकी बच्चियों में से भी कोई गाने का शौक रखती हंै क्या?
उ. मेरी एक बच्ची, जिसका नाम शबाना वारसी है रेडियो पर $ग$जलें और गीत गाती है। बचपन से ही उसे गाने का शौक था उसने स्कूल कॉलेजों में होने वाले मुकाबलों में हिस्सा लिया और इनामात हासिल किये। वो लोकगीत भी गाती है और कई कार्यक्रमों में अनाउंसर के रूप में भी उसको बुलाया जाता है।
प्र. आपके बेटे $कव्वाली पढ़कर आपका नाम रौशन करेंगे?
उ. खा गईं न$जरें धोखा कुछ,
देखा कुछ था समझा कुछ।
एक उस्ताद थे थिरकवां खां साहब जिनका कोई जवाब नहीं था लेकिन आज उनकी औलादों में वो बात नहीं। इसी तरह शहनाई में उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब ने जो मुकाम हासिल किया उनकी औलादों में से कोई वहां तक नहीं पहुंच सकता। अब देखो अल्लाह इन्हें किसी क़ाबिल कर दे। वो चाहें तो सब सीख सकते हैं क्योंकि घर में ही सब कुछ है।
कामयाबी में किस्मत का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। रामपुर में एक उस्ताद व$जीर खां थे वो बहुत ही अच्छा क्लासिकल गाया करते थे मगर शरे आम पर नहीं आये। गाने के साथ-साथ ढोलक, तबला और सारंगी भी बहुत अच्छा बजाते थे लेकिन मशहूर नहीं हो पाये। – रईसा मलिक