ग्राम -माता

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चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे सरई के घने झाड़ों के कारण सूर्य की किरणें तक $जमीन नहीं छू पा रही थी। पहाडिय़ों के बीच कल-कल करती एक नदी के किनारे बसा वह रमखिरिया गांव जिला मुख्यालय से दो सौ किलोमीटर दूर था। जिले की दक्षिणी सीमा का अंतिम गांव। साठ किलो मीटर तक तो गिट्टïी की सड़क बन गई थी पर इससे आगे पथरीला रास्ता ही था। खुले मौसम में बड़ी मुश्किल से वहां जीप पहुंच सकती थी। मुझे याद नहीं कि मेरे पहले कभी कोई कलेक्टर उस गांव गया हो…..कलेक्टर के दौरे के समय उस गांव के फरियादियों को वहां 30 किलोमीटर दूर के एक बड़े गांव में बुलवा लियसा जाता था। वहीं कलेक्टर उनकी फरियाद सुनते तथा अधीनस्थों को आवश्यक निर्देश देते थे।
पर इस बार मैंने सोचा कि एक रात्रि विश्राम रमखिरियसा गांव में ही करूंगा। रमखिरिया गांव के प्रति मेरा आकर्षण्उा उस समय से हुआ जब उस गांव की अस्सी नब्बे साल की एक बुढिय़ा ने मेरे बंगले पर आकर मुलाकात की। वह बुढिय़ा एक फटी धोती पहिने थी कमर उसकी झुक गई थी। चेहरा झुर्रियों से भरा था। वह एक हाथ में लाठी लिये थी तथा दूसरे हाथ में मैली कुचैली पोटली।
‘हाँ माँ, क्या काम हैÓ उसके कमरे के भीतर आते ही मैंने पूछा।
‘माँÓ शब्द सुनते ही उसका चेहरा बड़ा भावुक हो उठा। लगा वह शायद यही शब्द सुनने को आकुल थी। उसने कांपते हाथों से लाठी $जमीन पर रक्खी और पोटली में से मुड़े तुड़े काग$जों का बंडल निकाल कर मेरी और बढ़ाते हुए कहा- ‘बेटा दिल्ली तक फरियाद कर चुकी हूँ- किन्तु कोई सुनता नहीं। सब कहते हैं बुढिय़ा पागल हो गई है- मुझे देखते ही चपरासी डांट कर बाहर भगा देते हैं। आज हुजूर में मुझे ‘माँÓ कहा मेरी आत्मा तृप्त हो गई। मैं अपना अधिकार मांगती हूँ बेटा किसी भी भीख नहीं- दस एकड़ ज़मीन से क्या इस बुढिय़ास का पेट नहीं चल सकता।Ó
अब तक मैंने उसके का$ग$जात पढ़ लिये थे। $जमीन के खानदानी बंटवारे का झगड़ा था। बुढिय़ास की कोई औलाद नहीं थी। पन्द्रह बीस साल पहिले जब उसका पति मरा तो उसने मरने के पहिले गांव की पंचायत के सामने वह वसीयत नामा कर दिया था कि उसकी दस एकड़ ज़मीन का मालिक उसके बाद उसका भतीजा रामाधार होगा पर जब तक उसकी पत्नी जीती रहेगी यह रामाधार उसे खाना कपड़ा देता रहेगा।
बुड्ढï़़े के मरने के एक दो साल तक तो इस बुढिय़ा की खूब खातिरदारी दाग़े होती रही। इसी बीच रामाधार ने गांव के पटवारी से मिलकर उसकी $जमीन पर अपना नाम चढ़वा लिया। अब वह और उसकी बीवी बुढिय़ा से बुरा बर्ताव करते हैं, न ठीक समय पर खाना न ठीक से कपड़े।
मुझे मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पंचपरमेश्वरÓ याद आ गई जुम्मन की खाला की भी यही हालत थी, पर अब गांवों में वे अलगू चौधरी कहां है जो दूध का दूध और पानी का पानी कर दे। न्याय के सामने वर्षों की दोस्ती या नाते रिश्तेदारी आड़ी न आये। वे दिन बीत गये जब पंच के मुंह की कहीं बात परमेश्वर की बात मानी जाती थी। अब न तो वे पंच रहे और न ही वह पंचायत जो गांव वालों को सही न्याय दे।
हमारे गांव इतनी गुटबाजी में फंस गये है कि सही बात कहते हुए दस प्रकार से आगा पीछा सोचना पड़ता है।
बुढिय़ा ने गांव की पंचायत से गुहार की पर रामाधार के दबदबे के कारण कोई उसके पक्ष में नहीं बोला। सब ने कहा रामधार खाने को तो देता है इस बुढिय़ा को अब चाहिये ही क्या। अदालतों में गई तो उसके पति द्वारा लिखा वसीयत नामा बाधक बना और वह कहीं से भीऐसा कोई उपचार न पा सकी कि इस बुढ़ापे में उसे उसकी $जमीन का लाभ मिले जिससे वह चैन से दोनों समय की रोटी खा सके। घरेलू उपेक्षा झलेते वह पूरी तरह टूट चुकी थी तथा न्याय पाने की आशा में वह सात दिन तब लगातार पैदल चलकर मेरे बंगले पर आई थी।
मैंने एक बार उसको ऊपर से नीचे तक देखा मुझे कही बनावट न$जर नहीं आई। लगा एक करूणा की मूर्ति मेरे सामने खड़ी है। कानूनन तो मैं उसकी कोई सहायता नहीं कर सकता था सिवा इसके कि निराश्रित कोश में से उसे कुछ अनुदान दे दूं पर इससे उसका अहम्ï संतुष्टï नहीं होता उल्टे उसे ठेस पहुंचती वह अपनी दस एकड़ की $जमीन की पैदावार से ही सम्मान सहित अपना पेट भरना चाहती थी।
मैंने कहा- ‘माँ जीÓ मैंने आपका मामला देखा। आपके गांव आकर मैं मौके पर जांच कर जो उचित होगा वह करूंगा और हाँ आप अपने गांव पैदल मत जाईये मैं आपके लौटने का इन्त$जाम किये देता हूँ।
मैंने उसी समय वन मण्डल अधिकारी को फोन किया कि अगर उनकी कोई गाड़ी रमखिरिया की ओर जा रही हो तो इस बुढिय़ा को भी लेती जाये साथ ही रास्ते में उसकेि भोजन पानी की व्यवस्था भी कर दें।
बुढिय़ा के जाते ही मैंने तय कर लिया था कि अगले माह का एक रात्रि विश्राम रमखिरिया में होगा। मेरे मासिक भ्रमण कार्यक्रम में इसे शामिल किया गयसा तथा सारी व्यवस्थायें हो गईं।
मैं शाम 3 बजे के करीब रमखिरिया पहुंचा। तहसीलदार वगैरह पहले से हाजिर थे गांव में जंगल विभाग का एक छोटा सा रेस्ट हाउस था उसी में मेरी रूकने का प्रबंध किया गया।
रेस्ट हाऊस सामने के मैदान में ग्रामीण इक_ïे थे मैंने तहसीलदार को प्रकरण शुरू करने के निर्देश दिये।
ढेर सारी समस्यायें थीं। $जमीनों के झगड़े, गांवों की निस्तारी भूमि, जंगल से संबंधित मामले, कर्मचारियों की शिकायतें, आपसी झगड़े।
एक-एक कर मैं सारी बातें सुनता गया। संबंधित पक्ष को भी सुना। ग्रामीणों की बाते अगर धीरज के साथ सुन ली जाये तो आधी सी समस्यायें तो अपने आप ही हल हो जाती है। उन्हें इसी बात का संतोष मिलता है कि जिले के राजा ने उनकी बात सुनी। गांवों के झगड़े होते ही क्या है कुछ नासमझी की बातें और कुछ आपसी द्वेष गांव वाले भोले-भाले तथा सीधे सच्चे होते हैँ। उन से सहज व्यवहार किया जाये तो अनेक समस्यायें अपने आप ही सुलझ जाती हैं।
मैं भीड़ में लगातार देख रहा था कि वह बुढिय़ा कहां है। उसका मामला पंजीबद्घ तो था नहीं कि तहसीलदार उसकी बुला के रखता। मुझे शंका होने लगी कि कहीं उसे जबरदस्ती मुझसे मिलने से तो नहीं रोका गया था कि वह बीमार तो नहीं है।
मैंने एक बार फिर न$जर घुमाकर देखा वह बुढिय़ास कहीं नहीं दिखी।
शाम के सात बज चुके थे अंधेरा घिरने लगा था। तहसीलदार ने गैस जलवा के रख दिया। खेतों से भी किसान घर लौट आये थे और धीरे-धीरे रेस्ट हाउस में भीड़ बढऩे लगी थी। गांव के बच्चों में भी उत्सुकता थी कि देखे कलेक्टर कैसा होता है। बच्चों की भीड़ को गांव का कोटवार दरवाजे के बाहर रोके खड़ा था। बच्चे आपस में धक्कापेल कर रहे थे। मैंने सोचा कि मैं खुद इनसे बात करके इनकी उत्सुकता क्यों न शांत करूं।
मैंने गांव के मास्टर से जो कि वही मेरे सामने बैठा था कहा कि मैं स्कूल के बारे में बच्चों से बात करना चाहता हूँ।
बच्चों के चेहरों से बात मुस्करा उठे पर मास्टर सा. सकपका गये न जाने कलेक्टर सा. बच्चों से क्या पूछे और बच्चे न जाने क्या उत्तर दें।
मैं खुद उठकर रेस्ट हाउस के बाहर खड़े बच्चों के बीच पहुंच मास्टर सा तथा तहसीलदार भ्ज्ञी मेरे साथ हो लिये। उनसे एक दो रस्मी संवाल पूछे ‘क्या पढ़ते हो। स्कूल कैसा है, गुरूजी तो अच्छे हैं नÓ मुझे स्कूल का इन्सपेक्षन तो करना नहीं था केवल बच्चों की उत्सुकता शांत करना थी- कि कलेक्टर कैसा होता है। अफसरों के प्रति अंग्रेजी शासन काल से जो एक अजीब सा डर निकाला जायेगा तब तक अफसरों और गांव वालों के बीच की दूरी बनी ही रहेगी और प्रशासन को वह जन सहयोग नहीं मिल पायेगा जो कि किसी जन कल्याणकारी शासन व्यवस्था के लिये जरूरी है।
बच्चे जब शांत हो गये तो मैंने उन्हें जाने के निर्देश दिये तभी मुझे दिखा कि वहीं बुढिय़ा दूर लाठी टेकती चली आ रही है।
मेरे पास आते ही बोली ‘हुजूर आने में देर हो गई, रामाधार खेत घ्ज्ञर नहीं लौटा था- मैं उसके छोटे बच्चे को खिला रही थी। जब उसकी महतारी खेत से लौटी तब आ पाई हुजूर- फिर हाथ जोड़कर बोली ‘हुजूरÓ बड़ी दया की आपने जो हमारे गांव पधारे- आज हमारा न्याय हो जायेÓ
मैंने तहसीलदार से कहा रामाधार कौन है उसे बलाया जाये।
एक चालीस पैंतालीस साल का अधेड़ सा ग्रामीण मेरे सामने खड़ा हो गया।
‘तुम रामाधार होÓ।
‘जी हां हुजूरÓ।
‘ये बुढिय़ा तुम्हारी कौन हैÓ।
‘मेरी बड़ी माँ है हुजूर- पिताजी के बड़े भाई की पत्नीÓ फिर चालाकी भरे स्वर में बोला ‘हुजूर बहुत बूढ़ी हो गई हैं इससे इसका दिमा$ग चल गया- चाहे जो कुछ कहती रहती है- सारे गांव वाले इससे परेशान हैंÓ।
‘हाँ हुजूर- हां हुजूरÓ भीड़ में से दो तीन लोगों ने एक साथ कहा
‘चुप रहोÓ मैंने कड़कते हुए कहा- उसका दिमा$ग चल गया है कि तुम लोगों का- अगर वह पागल होती तो उसके जिम्मे ये रामाधार अपने लड़के को छोड़ कर खेत पर कैसे जाता।
साड़ी भीड़ में सन्नाटा छा गया ‘कलेक्टर गुस्सा हो गयेÓ इससे बड़ी घबड़ाने की बात गांव वालों के लिये और क्या हो सकती थी।
मैंने देखा मेरे क्रोधित होने का अच्छा प्रभाव पड़ा है। अब कोई चालाकी के उसाथ उत्तर नहीं देगा।
मैंने फिर गांव वालों को संबोधित करते हुए कहा- इस बुढिय़ा ने जिला मुख्यालय आकर मुझे सारी बातें बता दी हैं। मैं आप लोगों से केवल दो ही सवाल पूछता हँू।
‘हाँ हुजूरÓ
क्या यह सच है कि इस बुढिय़ा की दस एकड़ ज़मीन रामाधार के पास है जिस पर वह खेती करता है?
‘हां हुजूर- इसके पति ने अपने वसीयतनामा में रामाधार को दी है।Ó
‘ठीक है अब यह बताओ क्या रामाधार इस बुढिय़ा को खाना कपड़ा छेता है।Ó
‘हां हुजूरÓ
‘ठीक उसी मान सम्मान के साथ जैसे हम घरों में अपनी माताओं को देते हैं।Ó
चारों ओर चुप्पी छा गई सब एक दूसरे की ओर देखने लगे एक ग्रामीण ने कुछ साहस करके कहा-
‘हुजूर- हम किसी के घर की बातें क्या जानें।Ó
‘घर की बातेंÓ मैंने कुछ उत्तेजित स्वर में कहा तुम्हें मालूम है कि वसीयतनामें में दस एकड़ जमीन रामाधार को लिखी है पर यह नहीं मालूम कि रामाधार किस प्रकार इस बुढिय़ा को जिसकी $जमीन से वह हजारों रूपया साल कमाता है खाना कपड़ा देता है।
फिर चारों तरफ सन्नाटा छा गया।
मैंने आगे कहा- ‘यह बताओं इस गांव में इससे भी बूढ़ी और कोई औरत हैÓ-
‘नहीं हुजूरÓ
‘तो यह बुढिय़ा गांव के रिश्ते से तुम लोगों की क्या हुईÓ।
‘माँÓ एक स्वर में कई ग्रामीण बोले-
‘तो मैं आज से इस बुढिय़सा को ‘ग्राम माताÓ का खिताब देता हँूÓ मैंने कुछ नेताई अन्दा$ज से कहा- ‘आज से यह तुम सब की माँ है इसकी देखभाल करना तुम सब का काम है। मैं, अधीनस्थों को भी निर्देश देता हूँ कि कभी अगर यह बुढिय़ा शिकायत करें कि उसके साथ ठीक व्यवहार नहीं हुआ तो उसकी जांच की जाये।Ó
सब ग्रामीण एक साथ बोल पड़े ‘जैसे हुजूर का हुक्मÓ।
कुछ दिनों बाद पता चला कि अब बुढिय़ा प्रसन्न है गांव वाले उसे समय समय पर पूछते रहते हैं उन्हें डर लगा रहता है कि अगर इसने किसी अफसर से शिकायत कर दी तो आफत में पड़ जायेंगे।
मुझे लगा कि आवागमन की सुविधाओं से वंचित उपेक्षित स्थानों में अधिकारी सम्पर्क करने में रूचि नहीं रखते अगर वे सही जन सम्पर्क करें तो बहुत सी कठिन लगने वाली समस्यायें सहज ही हल हो सकती है।