भारतीय मनीषा की पहचान सतत् जिज्ञासा है, जो उसे कुछ प्रश्नोंï के प्रति रही है और आज भी जिनके समाधान हेतु चिंतन-मनन एवं ध्यान की सतत् धारा बह रही है। ये प्रश्न हैï जैसे कि इस जगत का मूल कारण कौन है, हम कौन हैï, कहाँ से आए हैï, हमेï कौन जीवित किए हुए है, हमेंï सुख-दु:ख क्योïं प्राप्त होते हैं? आदि। श्वेताश्वरतर उपनिषद के प्रथम अध्याय मेंï इन प्रश्नोïं पर काफी विचार हुआ है। उसके अनुसार इस जगत का कारण न तो काल है न स्वभाव है न नियति है। यह जगत किसी आकस्मिक घटना के परिणामस्वरूप भी नहीïं है और न ही इसका कारण कोई जीव हो सकता है 1योïंकि वह तो स्वयं सुख-दु:ख आदि द्वंदोंï से बंधा है। वह इस जगत की रचना करने मेंï समर्थ नहीïं हो सकता।
इस दिशा मेंï सर्वप्रथम ऋषियोंï ने सतत्-मनन एवं ध्यान करते हुए समाधि मेंï परमात्मा की त्रिगुण युक्त गूढ़ शक्ति को अनुभव किया जो काल से लेकर समस्त सृष्टि एवं जीव की रचना एवं अस्तित्व का आधार है। इसे शक्ति, प्रकृति, माया, अभक्त एवं महत् नामोंï से पुकारा गया है। यह स्थूल और सूक्ष्म या परा और अपरा नाम के भेदोïं से वर्णन की गई है। इसीलिए चारोंï वेदोïं मेंï परमात्मा की विभिन्न शक्तियोïं के प्रार्थना मंत्र हैï जैसे- स्थूल शक्ति, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, इन्द्र (वर्षा), सूर्य, औषधि (अन्न एवं वनस्पतियां) आदि क्योïंकि इन शक्तियोंï का अनुकूल रहना समस्त जगत के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। परमात्मा की इन्हींï शक्तियोïं को जाग्रत करने के लिए ऋषियोïं ने मंत्रोंï का सहारा लिया और अब यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि प्रार्थना करने का चाहे वह स्वयं कर रहा हो या उसके लिए कोई कर रहा हो उसका प्रभावी परिणाम होता है। यद्यपि सामान्यजन इसी उपासना, यज्ञ आदि कर्म मेंï लग गए परन्तु भारतीय ऋषियोंï की इससे जिज्ञासा शांत नहीïं हुई। उन्होïंने इस शक्ति के अधिष्ठïाता अर्थात परमात्मा को पाने का प्रयास जारी रखा। परमात्मा को जानने की आवश्यकता का कारण यह भी था कि प्रकृति से प्राप्त सुख मनुष्य को तृप्त नहींï कर पाये उल्टे काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के अधीन बनाकर भयंकर दु:ख एवं पीड़ा का पात्र बना दिया। अत: ऋषियोïं ने तप पूर्वक मनन, चिंतन करते हुए धारणा से ध्यान मेंï अपने को स्थूल शरीर, प्राण, मन एवं बुद्धि से पृथक दृष्टïा रूप मेंï पाया। उन्होंïने अनुभव किया कि उक्त शरीरादि तो उसके कारण हैï जो उसे भोग का अनुभव कराते हैïं, वह तो उनसे अलग साक्षी मात्र हैं। तदनंतर और गहराई मेंï समाधि मेंï जाने पर परमात्मा की झलक मात्र मेंï देखा कि अनंत चेतन, ज्ञान एवं आनंदस्वरूप परमात्मा ही सर्वत्र है। न मेरा स्वयं का कोई अस्तित्व है न प्रकृति का कोई अस्तित्व है एक वही केवल अभिन्न, अपृथक चेतन आनंद सर्वत्र व्याप्त है। समस्त संसार, उसके क्रियाकलाप समुद्र की लहरेïं जैसे समुद्र से अभिन्न हैï उसी तरह उससे अभिन्न हैं। जो केवल अनुभव किया जा सकता है परन्तु शब्दोïं से बताया नहींï जा सकता। उसी अनंत की अभिव्यक्ति समस्त ब्रह्मïांड एवं सृष्टिï के रूप मेंï हो रही है।
– रामकुमार शुक्ल