मीना कुमारी भारतीय सिने इतिहास की एक ऐसी अदाकारा थीं, जिनके खामोश होठों और अनकहे आंसुओं की भाषा कोई नहीं समझ पाया। चार दशकों तक $गमज़दा जिंदगी का बोझ उठाने के बाद वे इस दुनिया से चली गईं और छोड़ गई अपने पीछे तन्हाइयों की एक लंबी कविता..
आज दुनिया जिसे ट्रेजिडी क्ïवीन के नाम से जानती है। वह स्वयं एक ट्रेजिडी में जी रही थी। यह बात किसी से छुपी नहीं है। सफलता के मुकाम पर निकाह बन तो जाते हैं, लेकिन उन्हें सहेजकर जिंदगी को रोशन करना सभी मोहब्ïबत करने वाले सीख नहीं पाते। शराब जैसी नाकारा बला को अपने गले से लगाने से नहीं चूकते।
टूटकर बिखरने वालों की गिनती बहुत ज्यादा होती है, लेकिन बिखरकर भी टूटने का अहसास न दिला पाने वालों की भी शुमारी इन्हीं में होती है। जो रहते तो एक छत के नीचे लेकिन राहें जुदा-जुदा होती हैं। ऐसी ही कथा-व्यथा मीनाकुमारी की थी।
पांच वर्ष की उम्र में कैमरों के सामने आने वाली मीनाकुमारी ‘लेदर फेसÓ नामक फिल्म से फिल्माकाश में प्रविष्ïट हुईं। कहते हैं कि मजबूरी में भी व्यक्ïित अच्छे काम अधिक कर जाता है। अपनी बदहाल पारिवारिक आर्थिक स्थिति के चलते बेबी मीना को फिल्मों में काम करना पड़ा। जैसे पूरे परिवार के पेट पालने का जिम्मा नन्हे-नन्हे कंधों ने उठाया।
चाहे वह गर्मी हो, ठंड हो या फिर बरसात उसे आदत पड़ चुकी थी। बड़ी-बड़ी फ्ïलेश लाइटों के बीच अभिनय करने की। करती भी क्यों नहीं और तो कोई चारा भी न था। लगभग 12 फिल्मों में बेबी मीना ने बाल कलाकार के रूप में अभिनय यात्रा को विस्तार दिया। 1946 में फिल्म ‘बच्ïचों का खेलÓ से मीना कुमारी बतौर नायिका पर्दे पर आईं। इस दरमियान भी वे सफलता से कोसों दूर थीं।
उन दिनों वे एक फिल्म ‘मांÓ कर रही थीं। इस फिल्म की आउटडोर शूटिंग पर वे अपनी मां के साथ जा रही थीं कि कार का एक्सीडेंट हो गया। मीनाकुमारी को भी कुछ चोटे आई। कुछ दिन वे हॉस्पिटल में भर्ती रहीं। उन्हें बिना बताए उनकी एक उंगली जो एक्सीडेंट में चकनाचूर हो चुकी थी। काट दी गई। (ध्यान देने वाली बात यह है कि सिनेमा के पर्दे पर उस कटी हूई उंगली पर कैमरे की आंख को जाने नहीं दिया गया। साथ ही मीनाकुमारी ने कभी भी स्वयं इस बात का जिक्र नहीं किया।
उस उंगली को इस तरह कैमरे की आंख से बचाया गया कि साड़ी का पल्लू या फिर दुपट्ïटे का कोना उस उंगली को हमेशा ढंकता रहा। उस उंगली को छुपाए रखने की उन्होंने स्टाइल बना ली।) इस घटना से वे बहुत विचलित हो गईं। उन्हें बताए बगैर उंगली काट दी गई। वे अब और परेशान हो गई कि उनके अभिनय कैरियर का अब क्या होगा, लेकिन मुसीबत में भी आशा की किरण कहीं न कहीं से तो आ ही जाती है।
उनका बीमार पडऩा और उंगली कट जाना जैसे वरदान साबित हुआ। ऐसे समय में कमाल अमरोही का प्रवेश होता है। यह समय था 1950 का जब कमाल साहब की फिल्म ‘महलÓ सफलता के परचम लहरा रही थी। कमाल साहब से मीनाकुमारी की दोस्ती हुई। यह दोस्ती कब प्यार में बदल गई मीना को पता ही न चला। कमाल अमरोही ने विश्वास और संघर्ष करने के साथ ही हौसला अफजाई की।
अभिनय के प्रति मीनाकुमारी की लगन को वे बढ़ाते गए। साथ ही उन्होंने विश्वास भी दिलाया कि एक-न-एक दिन सफलता तुम्हारे कदमों तले होगी। कमाल साहब के मार्गदर्शन ने मीनाकुमारी में आत्मविश्वास पैदा किया। इस दरमियान उनमें प्यार का अंकुर जन्मा। आकर्षण कब प्यार में तब्दील हुआ पता ही न चला। जबकि कमाल अमरोही मीना से 17 वर्ष बड़े थे।
मीना के परिवार वालों को यह नागवार गुजरा। ऐसे में मीनाकुमारी ने बिना परिवार वालों को बताए कमाल साहब से शादी कर ली। इसकी खासियत यह थी कि कमाल साहब पहले से ही शादी-शुदा थे। 1952 वह वर्ष था जब मीनाकुमारी ने सफलता की उड़ान भरना प्रारंभ किया। इस वर्ष उनकी तीन फिल्में आईं ‘अलाउद्ïदीन एण्ड द वंडरफुल लैंपÓ (महिपाल), ‘तमाशाÓ(अशोक कुमार) और ‘बैजू-बावराÓ (भारत भूषण) इनमें प्रारंभ की दोनों फिल्मों ने औसत सफलता हासिल की।
वहीं ‘बैजू-बावराÓ की जबर्दस्त सफलता ने मीना को स्टार का दर्जा दे दिया। इसका गीत-संगीत भी पाप्यूलर हुआ। साथ ही मीना कुमारी के अभिनय की सर्वत्र प्रशंसा हुई। इसी वर्ष से फिल्मफेयर ने फिल्मों के लिए पुरस्कार देना प्रारंभ किया। विशेषता यह रही कि फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठï अभिनेत्री का पुरस्कार पाने वाली पहली अभिनेत्री मीनाकुमारी रही।
फिल्म ‘बैजू बावराÓ के लिए उन्हें यह पुरस्कार दिया गया। फिल्मफेयर के चार पुरस्कार पाने वाली वे पहली अभिनेत्री थीं। सफलता का परचम ऐसा लहराया कि एक के बाद एक सुपरहिट फिल्म आती गईं और मीनाकुमारी का कारवां आगे बढ़ता गया, लेकिन कहते हैं कि ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।Ó इधर सफलता कदम चूम रही थी, उधर वैवाहिक जिन्दगी बिखर रही थी।
उनका वैवाहिक जीवन एक ट्रेजिडी बनता जा रहा था। साथ ही पर्दे पर भी वह ऐसी भूमिकाएं करती जा रही थीं कि जिसका वास्तां निजी जिन्दगी से ताल्लुक रखता था। यहीं वह समय था जब वह ट्रेजिडी क्वीन बन गईं। मीना के पात्र उनका दर्द खुद बयां करने लगे। चाहे वह ‘साहब, बीवी और गुलामÓ की छोटी बहू हो या फिर ‘फूल और पत्थरÓ की विधवा, या फिर ‘मैं चुप रहूंगीÓ की दुखियारी पत्नी और मां, ‘काजलÓ की तड़पती बहन हो या फिर ‘मेरे अपनेÓ की बूढ़ी माई।
ये सब करते-करते 40 साल का सफर कहां गुजर गया उन्हें पता ही न चला। पैसा बनाने की मशीन में वह कब तब्दील हुई वे स्वयं नहीं जान सकीं। मीनाकुमारी लीवर सिरोसिस का शिकार हुईं और महज 40 वर्ष की अल्पायु में ही 31 मार्च १९७२ को इस दुनिया से कूच कर गईं।
मसर्रत पे रिवाजों का सख्त पहरा है, न जाने कौन-सी उम्मीद पे दिल ठहरा है
तेरी आंखों में झलकते हुए इस गम की कसम, ए दोस्त दर्द का रिश्ता बहुत ही गहरा है
– रफी उल्ला खान