जंगे आजादी के यह मुस्लिम योद्धा

0
367

(३ किश्त)
मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी
मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी को जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा मुल्क की आज़ादी की खातिर जि़लावतनी की दिल दहला देने वाली मुश्किलों से गुजरना पड़ा। वह इस इंकलाबी तंजीम के सातवें लीडर बनाए गये। जिसके दूसरे लीडरों ने अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से निकालने का अहद कर रखा था। मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी की पैदाइश 10 माचज़् 1871 में मियानवाली (पंजाब ) में हुई आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के शौक में वह देवबंद मौलाना महमूदुल हसन के पास आ गये। उस ज़माने में देवबंद का मदरसा हुब्बुलवतनी का प्रचार करता था ताकि वह आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा ले सकें। मौलाना महमूदुल हसन से हुब्बलवतनी के जज़्बात लेकर दिल्ली चले गये और इंकलाबी पार्टीं बनायी। जिसका मकसद हथियारों के ज़रिये अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से खदेडऩा था। उनके मज़हबी पेशवा महमूदुल हसन को मालूम था कि बाहरी मदद के बगैर अंग्रेजों से लोहा नहीं लिया जा सकता। इसलिए उन्होंने मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी को काबुल भेजा जहां बहुत सी तकलीफें उठाकर उन्होंने हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिये एक टेम्परेरी तौर से आज़ाद हिन्द सरकार बनायी एक फौज की भी तशकील की। उनके प्लान की भनक अंग्रेजों को लग गयी, उनको काबुल में कैद कर लिया गया वहां से छूटकर वह रूस, तुर्कीं, इटली और मक्का गये ताकि हिन्दुस्तान की आज़ादी की कोई शक्ल निकल आये। 22 साल की जि़लावतनी के बाद वह हिन्दुस्तान की मुकद्दस सरज़मीन पर आये। 21 अगस्त 1944 को दीनपुर (बहावलपुर) में उनका इन्तेकाल हुआ।
हाजी फज़़ल वाहिद
हिन्दुस्तान की मर्गिंबी शुमाली सरहद पर बसे कबाइली इलाके के बहादुर हाजी फज़़ल वाहिद ने अपने हमलों से ब्रिटिश सरकार को कभी चैन से नहीं बैठने दिया। आम लोग उन्हें तुरंग जई के हाजी के नाम से जानते हैं। यह भी शाह वलीउल्लाह की तहरीक से वाबस्ता थे, उन्होंने पठानों की आज़ादी के साथ-साथ हिन्दुस्तान की आज़ादी में बराबर का हिस्सा लिया। उन्होंने हिन्दुस्तान में मौलाना महमूदुल हसन से राब्ता कायम करके मुत्तहिदा कोशिशों से अंग्रेजों से लडऩे का मंसूबा बनाया उन्होंने अपने कबाइली इलाके में मदरसे खोले ताकि तलबा को पढ़ाई के साथ-साथ अंग्रेजों से लडऩे के काबिल भी बनायें। 1914 में महमूदुल हसन के मश्विरे से उन्होंने 20 जून को तमाम कबीलों में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजा दिया। 17 अगस्त को अम्बाला दर्रें से होते हुए ब्रिटिश इलाके पर कब्जा किया। अंग्रेजों से लड़ाई करते हुए 1930 के बाद उनका इंतकाल हुआ।
मौलाना फज़़ले हक़ खैराबादी
मौलाना फज़ले हक़ खैराबादी अपने ज़माने के बहुत बड़े दौलतमंद और मुमताज़ आलिम थे। वह 1797 में ख़ैराबाद (सीतापुर) में पैदा हुए। अरबी के बहुत बड़े शायर थे। मशहूर इन्क़लाबी आलिम शाह अब्दुल अज़ीज़ के चहेते शागिज़्द थे। कई आला सरकारी ओहदों पर फायज़ रहे। मगर दिल में आज़ादी का जज़्बा था, इसलिए अंग्रेजों की नौकरी रास न आई। नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरे हिन्दुस्तान की छोटी-छोटी रियासतों का दौरा करके अंग्रेजों के खिलाफ़ जंग करने और मुल्क को आज़ादी दिलाने का जोश नवाबों, राजाओं को दिलाया। मगर कोई राज़ी नहीं हुआ। वह दिल्ली पहुंचे और जामा मस्जिद में एक लम्बी तकरीर करके अंग्रेजों के खिलाफ जंग करने का फतवा दे डाला। इस फतवे के असर से नब्बे हजार सिपाही बादशाह के झण्डे तले आ गये। बग़ावत के जुर्मं में मौलाना पकड़े गये। और उनको काले पानी की सज़ा हुई। 1861 में क़ैद में ही उनका इन्तक़ाल हुआ।
मौलवी अहमद शाह
मौलवी अहमद शाह फैज़ाबाद जिले के एक बड़े जागीरदार थे, लेकिन ऐश परस्ती उनको छू भी न पाई थी। वह अच्छे चाल-चलन की वजह से राजाओं, नवाबों के महलों से लेकर किसानों की मामूली झोपडिय़ों तक में याद किये जाते थे। मुल्क में अंग्रेजों की बढ़ रही ताक़त से उनको बहुत दुख था। जब नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने कैद कर लिया तब मौलवी अहमद शाह समझ गये कि अंग्रेज एक-एक करके सबको क़ैद में डाल देंगे। उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों में एक साथ मुल्क की आज़ादी के नाम पर अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने का प्रचार किया। वह लखनऊ से आगरा तक सफर करके अंग्रेजों के खिलाफ तकरीरें करते रहे। अंग्रेजों के जासूसों का जाल हर जगह बिछा हुआ था। मौलवी अहमद शाह गिरफ्तार कर लिये गये, उन्हें फांसी का हुक्म सुना दिया गया। मौलवी साहब हिन्दुओं और मुसलमानों में इतने मक़बूल थे कि पूरे फैज़ाबाद में लोग घरों से बाहर निकल पड़े, जेल की दीवारों को तोड़ कर उन्हें आज़ाद कराया। एक हिन्दू सूबेदार दिलीप सिंह ने फैज़ाबाद के सभी अंग्रेज़ अफसरों को कै़द कर लिया और फैज़ाबाद की आज़ादी का ऐलान कर दिया। मौलवी साहब ने फैज़ाबाद की बागडोर संभालते ही सभी अंग्रेज़ों को उनके बाल-बच्चों के साथ फैज़ाबाद से रवाना किया। मौलवी साहब ने कई बार जंग में अंग्रेजों से लोहा लिया। 5 जून 1958 को उनका इंतकाल हो गया।
मौलाना मोहम्मद बरकत उल्लाह भोपाली
मौलाना बरकत उल्लाह भोपाल से आला तालीम के लिये इंग्लैण्ड गयें वहीं से भोपाल आकर मुल्क की आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गये। उनका कहना था कि मुसलमानों की भलाई इसी में है कि वह हिन्दुओं के साथ मिलकर अंग्रेजों से मोचाज़् लें। अपने अखबार में वह हिन्दुस्तानियों को आज़ादी का महत्व समझाते थे। जारिहाना नज़रियात रखने के सबब सरकार इस अखबार को बर्दांश्त न कर पायी और उन्हें मुल्क छोड़कर जापान जाना पड़ा। वह वहां एक यूनीवर्सिंटी में प्रोफेसर हो गये। वहां से भी एक अखबार निकाला। अंग्रेजों ने जापानियों पर दबाव डालकर उनको वहां से निकलवाया और मौलाना अमरीका चले गये। 1910-11 में अमरीका में गदर पार्टीं की तश्कील हुई। मौलाना उसमें जी जान से शामिल हो गये। जबकि उस पार्टीं के लीडर सिख थे। मुल्क की आजादी के लिये मौलाना ने जर्मंनी अफगानिस्तान, ब्रुसलीज, सैन फ्रांसिसको का सफर किया। 5 जनवरी 1928 को वह इन्तेकाल कर गये।