जंगे आजादी के यह मुस्लिम योद्धा

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(६किश्त)
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने वालों में और आज़ाद हिन्दुस्तान की तामीर करने वालों में मौलाना का खानदान हिन्दुस्तान के मशहूर मुस्लिम उलेमा के खानदानों में से एक है। आप 1888 में मक्का में पैदा हुए। आपने काहिरा की अल अज़हर यूनीवसिज़्टी से आला तालीम हासिल की। अंग्रेजी में भी आपने महारत हासिल की। मगरिबी साइंस और अदब का भी अपने गहराई से मुतालेआ किया। 14 बरस की कम उम्र में ही आप एक मजहबी मुसलेह (समाज की इस्लाह करने वाले) के तौर पर दुनिया के सामने आये। आपने हिन्दुस्तान सिदक (सच की आवाज) हफ्तेवार निकाला। उस वक्त हिन्दू मुसलमानों से अंगेे्रजों में शक व शुबह का बीज बो दिया था। मौलाना ने इन हालात पर गौर किया और यह फैसला किया कि मुसलमानों को अंग्रेजी साम्राजियत के चंगुल से छुड़ाना है तो उनमें कौमियत का जज़्बा पैदा जरूरी है। उनके दिलों से हिन्दुओं की तरफ से शक व शुबहा दूर करना है और उन्हें बताना है कि उनकी किस्मत अंग्रेजों के साथ नहीं बल्कि हिन्दुओं के साथ वाबस्ता है। आजादी की लड़ाई में पहली बार मौलाना रांची जेल में चार साल तक नजऱबंद रहे 1921, 1930, 1932, 1940 और 1942 में गांधी जी ने जो भी सत्याग्रह चलाये मौलाना आज़ाद उनमें सबसे आगे दिखायी दिये। 1932 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के सदर चुन गये 1947 में आज़ाद मुल्क के ज़ीर-ए-तालीम बने। मुल्क के तमाम लीडर उनकी दानिशमंदी से इतने मुतासिर थे कि दानिशमंदी से इतने मुतासिर थे कि बेशतर मामलात से उनसे मशवरा लिया करते थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की मौत से हिन्दुस्तान का ऐसा लीडर और रहनुमा जाता रहा जिसकी जगह ज़माना मुद्दतें पूरी न कर सकेगा।
मौलाना हुसैन अहमद मदनी
1857 की बगावत में सरगमज़् तौर से हिस्सा लेने वाले उलेमा के जरिये कायम किये गये देवबन्द तालीमी इदारे (दारूल उलूम) का मुसलमानों से कौमियत और कुशादा खयालात की तरवीज और प्रोपगंडे में खास हिस्सा रहा है इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। इस इदारे के दो खास मकसद थे। 1. मुसलमानों में कुरआन और हदीस की सही तालीम की तरवीज और 2 गैर मुल्की हुक्मरानों के खिलाफ इन्कलाब की मशाल रोशन रखना।
देवबंद के बनियों ने शुरू से ही इस हकीकत को महसूस किया था कि न सिफज़् हिन्दुस्तान की आज़ादी में ही मुसलमानों का मफाद है, बल्कि यह भी कि हिन्दू-मुस्लिम इत्तेहाद और भाई-चारे के बगैर आज़ादी कभी हासिल नहीं की जा सकेगी। मौलाना हुसैन अहमद मदनी (1829-1957) देवबंद के मुमताज़ और मशहूर उस्ताद मुजाहिदे आज़ादी मौलाना महमूदुल हसन के चहीते शागिज़्द थे। माल्टा की जेल से छूटने के बाद महमूदुल हुसैन अहमद को मदीने से वापस ले आये। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के कहने पर आपने कलकत्ता के कौमी अरबी मदरसे को चलाने की जिम्मेदारियां संभाली। 1928 में देवबंद के नाजि़म (रेक्टर) बने। कौमी तहरीक में सरगमज़् रोल अदा करने के सबब कई बार जेल की परेशानियां बदाज़्श्त करनी पड़ी।
मौलाना हुसैन अहमद मदनी की सियासत सिफज़् जज़्बाती सतह तक महदूद नहीं थी। कौम और समाज के मसायल के तयीं हकीमाना रवैया रहा। वह एक दानिश्वर थे और इस सिलसिले में उनका तजजिय़ा इंसानी कद्रों में यकीन को ज़ाहिर करता था। यह सच्चाई उनकी कौमी सियासत मआशी निज़ाम या बैनुल अक़वामी मसायत पर उनकी तहरीरों से साफ उभर कर सामने आती है। उनके मज़ामीन का बेशकीमत असासा उनकी सियासत मज़हब और समाजी नुक्तये नजऱ से उनकी मुताआरिफ कराता है।
कांग्रेस के 1920 की मुकम्मल आज़ादी के एलान के बाद वह दोगुना ताकत के साथ हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े । आज़ादी की दीवानगी उनकी रोजमराज़् की जिन्दगी से साफ झलकती है। वह आज़ादी के लिये कोई भी कुबानज़्ी देने को हर वक्त तैयार रहते थे। अज़ीयत ददज़् इंसार उनके लिये मुल्क के तयीं, इंसानियत के तयीं और खुदा के तयीं उनका छोटा सा तोहफा था। और इसी तोहफे की अनमिट याद ही आईन्दा नस्ल की सबसे अनमोल विरासत है।
खान अब्दुल गफ्फ़़ार खान
हस्तनगर के अंतिम जई गांव में 1890 में जमींदार खान बहराम खान के यहां अब्दुल गफ्फार पैदा हुए। उनके वालदैन दौलतमंद होने के बावजूद मज़हबी थे। अगरचे उनके घर में नौकरों की अच्छी खासी पलटन थी। मगर बहराम खान उधर से गुजरने वाले राहगीरों को खाना खिलाने के लिये अपने सर पर नान (रोटियों) से भरी टोकरी और सब्जी का बड़ा बतज़्न लेकर जाते थे। वह अक्सर यह कहा करते थे वह चलते राहगीर जिनको हम नहीं जानते और जिनकी हम फिक्र नहीं करते अस्ल में अल्लाह के भेजे हुए मेहमान हैं इसलिये उनके लिये खाना ले जाना मुझे अच्छा लगता है।
खान अब्दुल गफ्फ़़ार खान को शुरू से ही मुल्क से अंग्रेजों को भगाकर स्वराज कायम करने की तमन्ना थी। उन्होंने इसके लिये अंग्रेजी सरकार के बहुत से दबाव बदाज़्श्त किये। 1921 में उनको सख़्त कैद की सज़ा मिली।
1920 में उन्होंने खुदाई खि़दमतगार तंज़ीम बनाई। इस तंज़ीम के जरिये यह पखतूनी में अपने समाज और मुल्क की खिदमत का जज़्बा और बेदारी भरना चाहते थे। वह 1920 में अपने तीन सौ खुदाई खिदमतगारों के साथ लाहौर कांफ्रेंस में शरीक हुए और गांधी जी जवाहर लाल नेहरू और दूसरे लीडरों से मिले। अप्रैल 1930 तक खुदाई खिदमतगारों की तादाद पचास हजार तक पहुंच गयी। उन्होंने गांधी जी के साथ कई सत्याग्रहों में हिस्सा लिया जेल गये। अज़ीयते बदाज़्श्त कीं। मगर मुल्क को आज़ाद कराने की मुहिम में बराबर जी जान से लगे रहे। उनकी कोशिशों से मुल्क को आज़ादी मिली।
संकलन-सैफ मलिक