पर्यटन के क्षेत्र में आध्यात्मिक पर्यटन एक नवीन आस्था है। भारत ने सदा से ही ‘अतिथि देवो भव:Ó के संस्कारों का परिपोषण किया है। मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग भी इन संस्कारों को आत्मसात किए हुए है। पुराणों के कथनानुसार सागरमंथन से निकाले चौदह रत्नों में अमृत कुंभ भी निकाला जिसे उज्जिनी के महाकालवन में देवताओं को बिठा कर अमृतपान कराया गया था। तब से उसी मुहूर्त के अनुसार सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर ‘सिंहस्थ पर्वÓ मनाने की परंपरा है। विशाल जनसमूह की आस्था का पर्व सिंहस्थ कुंभ 2016 इसका साकार रूप था। 21 अप्रैल से 21 मई 2016 तक निंरतर चलते हुए इस आध्यात्मिक अनुष्ठान में करोड़ों व्यक्तियों ने भागीदारी लेकर पुण्य कमाया।
आध्यात्मिक पर्यटन स्थल से तात्पर्य किसी धर्म या धार्मिक व्यक्ति से संबंधित स्थल नहीं होता, अपितु ऐसा स्ािल, जहां व्यक्ति अपने आंतरिक चेतना के विकास की प्राप्ति करता है। अध्यात्मिकता-प्राकृतिक और सार्वभौमिकता तत्व है ओर इसका अनुसरण करने वालों को किसी खास धर्म से संबंधित होना जरूरी नहीं है। इस दृष्टि से भारत भूमि पर अनेक ऐसे पर्यटन स्थल हैं जहां कुछ समय गुजारने पर व्यक्ति को चेतना का परिष्कार होने लगता है, उसमें लोक-कल्याण के भाव तरंगित होने लगते हैं। ऐसी भाव-तरंगों का मानस-पटल पर प्रविष्ठ होने का रहस्य यह है कि उस क्षेत्र विशेष में, वर्तमान अथवा पहले कभी सिद्ध व्यक्तियों, फकीरों, ऋषियों अथवा मुनियों की लोकमंगल हेतु छोड़ी गई घनीभूत भाव-तरंगें।
इस विषय का सबसे बड़ा पर्यटन स्थल हिमाचल क्षेत्र माना जा सकता है, जहां अनेक ऋषियों ने सैकड़ों वर्ष तक साधना की थी। उन्होंने स्वयं के दुर्गणों को हटा कर अपनी चेतना को गंगा जल जैसा निर्मल बना दिया था, उनकी भाव संवेदनाओं में इतना प्रेम भरा होता था। पौराणिक कथाएं, उपनिषद बताते हैं कि शेर, भालू, गाय और बकरी भी उनकी बराबरी में आकर बैठ जाते थे। जो यात्री श्रद्धापूर्वक कैलाश मानसरोवर, सिंधु, गंगा, जमुना, मंदाकिनी, अलकनंदा आदि पवित्र नदियों के किनारों पर बने तीर्थ स्ािलों के सान्निध्य में रहते हुए वहां के सात्विक भोजन को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं उनके हृदय एवं स्वभाव में हुए परिवर्तन को स्वयं परखा जा सकता है।
काश्मीर के अमरनाथ, शंकराचार्यमठ जहां शंकराचार्य ने बैठ कर लोककल्याण हितार्थ साधानाएं कीं और उत्तराखंड में चारधाम, उत्तरकाशी आदि क्षेत्र भी आध्यात्मिक पर्यटन के अनेक स्थान हैं। हरिद्वार सप्तर्षि क्षेत्र में बने शांतिकुंज आश्रम में रह कर अपने स्वभाव को परिष्कृत कर रही प्रक्रिया का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। इसी स्थान पर ऋषि विश्वामित्र और बाद में आचार्य श्रीराम शर्मा ने गायत्री मंत्र की साधना करके क्षेत्र को लोक मंगल की भावनाओं से घनीभूत कर दिया। इन्हीं भावनाओं का साकार रूप नैसर्गिक वातावरण में सृजित, विश्व की मानवीय मूल्यों व आदर्शों का संदेश देने वाला महान शिक्षण केन्द्र ‘ देव संस्कृति विश्वविद्यालयÓ के रूप में स्थापित किया गया है, जहां पर विदेशों से आए हजारों शोधार्थी भारतीय संस्कृति को समझने और सीखने हेतु प्रयत्नशील रहते हैं।
अजमेर में रहने वाले चिश्ती सम्प्रदाय के संस्थापक लोकप्रकारी ख्वाजा मुईनउद्दीन भी हिन्दू, मुसलमान दोनों में समान रूप से लोकप्रिय थे। उनके सरल उपदेश दरियादिली याने उदारवादी, दानशीलता जो सूर्य जैसी हो, दया और जमीन जैसी खातिरदारी सबकी करो। सच बोलो। हमें जीवन केवल सेवा के लिए मिला है। उन्होंने अपने सभी शिष्यों में इसी ज्ञान को बांटा, तभी तो वह आफताब-ए-हिंद कहलाए। आज भी जो व्यक्ति उस दरगाह पर माथा टेकने जाता हैं वह तनाव मुक्त हो जाते हैं। ऐसा स्थल पानीपत के श्रद्धेय पीर कलंदर की दरगाह है। इसी प्रकार पांडेचेरी का अरविंद आश्रम, रामकृष्ण परमहंस साधना केन्द्र ‘वैलूर मठÓ, तिरुपति बालाजी देवस्थानम् तथा शिर्डी में साईंधाम आदि आध्यात्मिक पर्यटन केन्द्र हें, जहां जाने पर व्यक्ति में लोकमंगल की भावनाएं स्वमेच प्रस्फुटित होने लगती हैं। भारतीय संस्कृति इसे ही श्रेष्ठ पर्यटन मानती रही है।
भारत भूमि पर स्थित, आध्यात्मिक पर्यटन स्थलों का दर्शन तो केवल भाग्यवान व्यक्ति ही कर सकता है। अरस्तु, ऐनी बेसेंट और मेक्समूलर दार्शनिक भी आध्यात्मिक पर्यटन में भी विज्ञान का समन्वय देखते थे। उन्होंने उसमें विविध प्रकार का वैशिष्टय देखा। उत्तर भारत में पहाड़ों को सौंदर्य, तो दक्षिण में कन्याकुमारी में अरब सागर व हिंद महासागर की लहरें मनमोहक लगती हैं। इन क्षेत्रों के मध्य की नदियों व्यास, झेलम, कृष्णा, कावेरी, वेत्रवति और नर्मदा बरबस आकर्षित करती हैं। पूर्व दिशा में पश्चिम की बहने वाली नर्मदा मातृशक्ति से कम नहीं है। अमरकंटक बड़ा पावन तीर्थ है, जहां से नर्मदा का उद्गम हुआ है। नर्मदा मैया मंडला की लाल चट्टानों पर अपना स्नेह लुटाते हुए, जबलपुर के भेड़ाघाट व धुंआधार पहुंचती है तब इसका सौंदर्य और कई गुना बढ़ जाता है।
नर्मदा की 1740 मीन परिक्रमा का महत्व असाधारण है। श्रद्धालु भक्तजन नदी के तटों पर बने नैसर्गिक आश्रमों की पैदल यात्रा भी करते हैं। इस आर्यावर्त में पर्यटक, यात्री अलग-अलग दृष्टि से यात्राएं एवं पद्यात्रा करते हैं। कोई भौगोलिक अवलोकन तो कोई ऐतिहासिक, किन्हीं को ध्येय विभिन्न प्रदेशों के खान-पान, रीति-रिवाज, पहनावे का वैज्ञानिक विश्लेषण, कोई औषधयुक्त जड़ी-बूटी, वनस्पति ढूंढने, तो कोई सागरों के किनारों पर रत्न, मूंगा व मोतियों की खोज करते हैं। कुछ पर्यटक अलग-अलग स्थानों पर लोक संगीत व लोक-नृत्य कलाओं में वैज्ञानिक महत्व खोज लेते हैं। हर कोस के अंतर पर पानी मिट्टी के साथ लोगों के स्वभाव में भी अंतर दिखाई पड़ता है। कोई अन्यान्न क्षेत्रों में व्यापार की शैली का अध्ययन करने में रुचि लेता है। अनेक यात्री भ्रमण करते-करते यात्राओं में मिले अनुभवों को आत्मसात कर लेते हैं। कुछ पर्यटक आध्यात्मिक वातावरण से परिष्कृत हो बुराईयों से भी मुक्त हो चुके होते हैं।
द्वादव ज्योर्तिलिंग में महाकालेश्वर याने, न्यायाकारी राजा विक्रमादित्य की अवंतिका का विशेष महत्व है। यह स्थल भूमध्य रेखा में नाभि केन्द्र पर स्थित है। इसके मंगलनाथ मंदिर पर मंगल गृह की रश्मियां सीधी स्पर्श करती हैं। यह वह स्थान है जहां भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप बनाकर अमृत कुंभ असुरों से लेकर, देवताओं को पिलाया था। द्वापर युग में श्रीकृष्ण व सुदामा की शिक्षा-दीक्षा भी यहीं ऋषि संदीपन के गुरूकुल में हुई थी। यहीं के राजा भृतहरि ने श्रृंगार रस पर काव्य लिखे, किंतु मायावी संसार का बोध होने पर उसने सिंहासन त्याग दिया और पूर्ण आध्यात्मिक हो गए थे। ऐसे प्रसंगों से जुड़ी कहानियों से भारतीय दर्शन को जानने का सुयोग भी प्राप्त होता है।
बिहार प्रांत के गया जी में प्राचीन बोधि वृक्ष है, जहां राजकुमार सिद्धार्थ ने आत्म साक्षात्कार किया था। जहां कुछ क्षण बैठने पर चेतना की सूक्ष्म परतें खुलती हैं, उनके शील विचार व सिद्धांतों को समाज ने नैतिक कत्र्तव्यों का उत्पादक माना है। उनकी शिक्षाओं के निरंतर अध्ययन के लिए विश्व की कई सरकारों ने अपने देशों में विश्वविद्यालय स्थापित किए। खालसा पंथ का मुख्य गुरूद्वारा स्वर्ण मंदिर अमृतसर में है जहां भावागीत क्षेत्र में सकारात्मक तरंगे हिलोरें लेने लगती हैं। गौहाटी में कामाक्ष्या तीर्थ है। उड़ीसा का जगन्नाथपुरी धाम। प्रयाग, नासिक व हरिद्वार के कुंभ मेले। संत निरंकारी मिशन का वार्षिक समागम, पूना में तेजज्ञान संस्था का मनन आश्रम एक जाग्रत तीर्थ है। लेह लद़्दाख में ‘हिमजी गोम्माÓ दलाई लामा आश्रम तथा चेन्नई में ‘अडियार आश्रमÓ लो थियॉसाफिकल सोसायटी का अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालयÓ है, असीम शांति की वैज्ञानिक शोधशाला है। ऐसे क्षेत्रों में शांति पाने के साथ-साथ जीवन के होने के अर्थ को भी समझाा जा सकता है।
हमें प्रसन्नता है कि अमेरिका एवं योरोप से विद्वानों ने अक कांक्रीट से बने जंगलों व पांच सितारा पर्यटन अनुपयोगी मानते हुए प्रकृति से बिना छेड़-छाड़ किए पर्यावरण मिद्ध होते हुए हरित पर्यटन की वकालत की है। सनद रहे कि हमारे ऋषि हजारों वर्ष पहले भी नदी-तट पर अमराई-आंवला, वट व पीपल के मध्य आश्रम बनाकर बड़े आनंद से लोक शिक्षण करते हुए सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। चाणक्य और गांधी ने भी यही किया था। वृक्षों का आदर, गृह आंगन में तुलसी रोप कर उनके सानिध्य में संध्या वंदन करना और परमपिता से सबके लिए सद्बुद्धि एवं सुख-शांति के वातायन की कामना हमारी मूल संस्कृति है। पूरे भारत को प्रेम सूत्र में बांधे रखने के लिए चार धाम बनाए ताकि लोग गंगोत्री से जल लेकर जो व्यक्ति रामेश्वरम में चढ़ाने जाएंगे, वे सारे भारतीय संस्कृति को भी देखते हुए जाएंगे। यही है हमारा प्रेम और श्रद्धासिक्त आध्यात्मिक पर्यटन। हर नागरिक को पूर्ण प्राथमिकता से इसे करना और कराना चाहिए। – ओमप्रकाश खुराना