(14वीं किश्त)
मदीने में
8 रबीउल अव्वल सन् 13 नबवी को, सोमवार के दिन, मुताबिक 23 सितम्बर सन् 622 ई. अल्लाह के रसूल सल्लाल्लाहू अलैहि व सल्लम कफबा में पहुंचे।
मदीने वालों ने जब से सुना था कि हुजूर सल्ल. ने मक्का छोड दिया है, वे हर दिन सुबह-सवेरे शहर से निकल कर बाहर जमा होते और दोपहर तक इंतिजार कर के वापस लौट जाते। एक दिन ये लोग अभी वापस ही हुए थे कि हुजूर पहुंच गये और एक शख्स के पुकारने से सब वापस लौट आए और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के चारों ओर परवानों की तरह जमा हो गए।
अक्सर मुसलमान ऐसे थे कि जिन्होंने अभी तक हुजूर सल्ल. का दीदार नहीं किया था, उन्हें नबी सल्ल. और हजरत अबूबक्र रजि. को पहचानने में परेशानी होने लगी। हजरत अबु बक्र रजि. इस परेशानी की समझ गए और आप के मुबारक सर पर साया कर के खडे हो गए।
कबा मदीने से तीन मील की दूरी पर एक जगह है, अंसार के बहुत से खानदान आबाद थे। उनमें अम्र बिन औफ सब से मशहूर खानदान था और कुलसुम बिन हदम उसके सरदार थे। यह सआदत उन्हीें की किस्मत में थी कि हजरत मुहम्मद सल्ल. ने सब से पहले उन की मेहमानी कफबूल फरमायी और आप ने कफबा में उनके मकान पर कियाम फरमाया।
हजरत अली रजि. जो आप के रवाना होने के तीन दिन के बाद चले थे, वे भी तश्रीफ लाए और यहां ही कियाम फरमाया।
कुबा में आंहजरत सल्लाल्लाहु अलैहि व सल्लम का पहला काम एक मस्जिद की तामीर थी। आपने मुबारक हाथों से मस्जिद की बुनियाद रखी और दूसरे साथियों के साथ मिल कर खुद उस मस्जिद की तामीर की।
कुछ दिन कुबा में ठहरने के बाद आप मदीने की तरफ रवाना हुए। यह जुमा का दिन था। रास्ते में बनी मालिक के मुहल्ले में जुहर की नमाज का वक्त हो गया। यहां सौ आदमियों के साथ जुमे की नमाज पढी और खुत्बा दिया। यह इस्लाम में पहला जुमा था।
जुमा की नमाज से फारिग होकर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम यसरिग के दक्खिन से शहर में दाखिल हुए और आज ही से शहर का नाम मदीनतुन्नबी (नबी का शहर, जिसे अब सिर्फ मदीना कहते हैं) हो गया।
दाखिले की अजीब शान थी। गली-कूचे अल्लाह की पाकी, बढाई और तारीफ के कलिमों से गूंज रहे थे। मर्द-औरत-बूढे-बच्चे, सभी प्यारे नबी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के दीदार के शौक में बेताबी से इन्तिजार कर रहे थे।
अंसार की मासूम लडकियां प्यारी आवाज और पाक जुबानों से उस वक्त के गीत गा रही थीं’
अश्रकल बद-रू अलैना मिन सनी यानिल बिदाओ
व–बश्शुक्रू अलैना मा दआ लिल्लाहि दाअी
अय्युहल मव्असु फीना जिअ्-तबिअ अम्रिल मताअी
(चैदहवीं का चांद निकल आया, विदाअ की पहाडियों से हम पर खुदा का शुक्र वाजिब है जब तक दुआ मांगने वाले दुआ मांगे। तेरे हुक्म की इताअत फर्ज है, तेरा भेजने वाला बुर्जुग व बरतर है।)
ये मासूम लडकियां दफ बजा-बजा कर गा रही थीं।
नहनु जवारिम मिम बनिन्नज्जारि या हब्बजा मुहम्मदम मिनजारी
हम नज्जार खानदान की लडकियां हैं। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कैसे अच्छे पडोसी हैं।)
इसी तरह मदीने में दाखिले के वक्त हर जांनिसार अंसारी के दिल की तमन्ना थी कि हुजूर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मेहमानी का शर्फ उसे हासिल हो। हर कबीला सामने आ कर अर्ज करता कि हुजूर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम यह घर है, यहां कियाम फरमाएं। इसलिए मेहमानी का शर्फ किसे हासिल हो? यह एक सवाल था, जिस का जवाब आसान न था।
आंहजरत नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया कि मेरी ऊंटनी जिस के मकान के सामने ठहर जाए, वहीं इस खिदमत को अंजाम दे। चुनांचे यह शर्फ अबू अय्यूब अंसारी के हिस्से में आया, जहां अब मस्जिदे नबवी है। इसके करीब उनका मकान था। यह मकान दोमंजिला था। उन्होंने ऊपरी हिस्सा पेश किया, लेकिन आंजरत नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों के आने-जाने की आसानी देखते हुए नीचे की मंजिल में रहना पसन्द फरमाया और हजरत अबू अय्यूब और उनकी बीवी के हिस्से में ऊपर की मंजिल आयी।
हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सात महीने तक यहीं कियाम फरमाया। इसके बाद जब मस्जिदे नबवी के करीब आप के कियाम के लिए हुजरे बन गए, तो वहां चले गए। थोडे ही दिनों के अन्दर आप के खानदान के लोग भी मदीना चले आए।