तारीखे इस्लाम

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(15वीं किश्त)
मदीना पहुंचने पर
मदीने में कियाम के बाद सब से पहला और जरूरी काम एक मस्जिद को तामीर था, जहां आपने कियाम फरमाया था, उसके करीब ही कुछ जमीन बंजर पडी थी, जो दो यतीमों की थी। उनकी कीमत देकर यह जमीन हासिल की गयी और मस्जिद की तामीर शुरू की गयी। उस वक्त भी आप मजदूरों की तरह सबके साथ मिल कर काम करते थे और पत्थर उठा-उठा कर लाते थे। यह मस्जिद बहुत ही सादा तरीके पर बनायी गयी थी। कच्ची ईंंटों की दीवारें, खजूर की छत, खजूर के तनों के स्तून। इस मस्जिद का किब्ला भी वही था। फिर जब किब्ला काबे की तरफ हो गया, तो मस्जिद में भी उसी हिसाब से घट-बढ कर दी गई। मस्जिद का फर्श कच्चा था, बारिश होती तो मस्जिद में कीचड हो जाती थी, कुछ दिनों के बाद फर्श बना लिया गया।
मस्जिद के एक सिरे पर एक पटा हुआ चबूतरा था, जिसे सुफ्फा कहते हैं। यह उन लोगों के ठहरने की जगह थी, जो इस्लाम लाए थे, लेकिन उनका कोई घर-द्वार न था। पास ही प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की बीवियों के लिए हुजरे भी बने।
2. मक्के से जो मुसलमान घर-बार छोड कर मदीना आ गये थे, वे लगभग सभी बे-सहारा थे। उन में जो लोग खाते-पीते थे, वे भी अपना माल मक्का से नहीं ला सके थे और उन को छोड-छाड कर यों ही आना पडा था। अगरचे ये सब मुहाजिर मदीना के मुसलमानों (अंसार) के मेहमान थे, लेकिन बहरहाल अब उन के रहने के बन्दोबस्त की जरूरत महसूस हो रही थी। यों भी लोग अपने हाथों ये मेहनत के जिन्दगी बसर करना पसन्द करते थे, चुनांचे जब मस्जिदे नबवी को तामीर खत्म हो गयी, तो आंहजरत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक दिन अंसार को बुलाया और उनसे मालूमात कि ये मुहाजिर तुम्हारे भाई हैं। फिर आपने एक शख्स को अंसार में से और एक को मुहाजिरों में से बुला कर फरमाया कि आज से तुम दोनों एक दूसरे के भाई हो। इस तरह सब मुहाजिरों को एक-दूसरे का भाई बना दिया और ये अल्लाह के मुख्लिस बन्दे सच-मुच भाई ही क्या, भाई से भी कहीं ज्यादा साथी बन गए।
अंसार मुहाजिरों को अपने घर ले गए और अपनी कुल जायदाद और सामान का हिसाब उनके सामने रख दिया और कह दिया कि आधा तुम्हारा और आधा हमारा। बागों की आमदनी, खेती की पैदावार, घर का सामान, मकान, जायदाद, गरज वह कि हर चीज उनमें भाईयों में तरह बंट गयी और ये बे-घर मुहाजिर सबके सब अंसार के साथ मिल जुल कर रहने लगे। बहुत से मुहाजिरों ने अपना कारोबार भी शुरू कर दिया, दुकानें खोल लीं और दूसरे कामों में लग गए। इस तरह मुहाजिरों ने बसने का काम अंजाम दिया और इस तरफ से इत्मीनान हासिल हुआ।
बद्र की लडाई
0 मदीने में मुख्तलिफ अकीदों वाले और मुख्तलिफ मजहब वाले लोग आबाद थे। वहां थोडी तायदाद में यहूदी भी आबाद थे। यहूदियों के तो कई जबरदस्त कबीले, बनू नजीर, बनू कैनुकाअ, बनू कुरैजा थे, जो अपने जुदा-जुदा किलों में रहा करते थे, तिजारत और सूद के कारोबार की वजह से बहुत मालदार थे।
ये यहूदी इस्लाम और मुसलमानों को किसी कीमत पर पसन्द न करते थे, बल्कि इस इन्तिजार में थे कि मौका मिले तो मुसलमानों का गला काटें।
0 यही हाल ईसाईयों का भी था। इन्होंने जब देखा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ईसाईयों के खुद गढे हुए फर्जी अकीदों, जैसे खुदा के बेटे का ख्याल, तीन खुदाओं का ख्याल वगैरह को रद्द कर रहे हैं और हजरत ईसा अलै. की सही तालीम दे रहे हैं और उन्होंने देखा कि उन का झूठ और मन गढत बातों की हकीकत खोल दी गयी है, तो वे भी पैगम्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के दुश्मन हो गए।
मदीने की हालात का अन्दाजा करने के लिए अब्दुल्लाह बिन उदई बिन सलूल के हाल पर भी एक नजर डाल लेना जरूरी है। यहूदियों के अलावा मदीने का मशहूर और असरदार आदमी यह भी था। औस व खजरज के कबीलों पर इस का पूरा रौब था और इस को उम्मीद थी कि इन ताकतवर कबीलों की मदद से मदीने की सब से बडी ताकत वही बन जाएगा। जब उसने देखा कि औस व खजरज मुसलमान हो रहे हैं, तो खुद भी (बद्र की लडाई के बाद) जाहिरी तौर पर मुसलमानों से मिल गया, लेकिन जब उस ने देखा कि यहूदी नबी सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम के खिलाफ हो गए हैं, तो उसने चाहा कि यहूदियों पर भी उस का पहला असर कायम रहे और मुसलमान होने वाले कबीले भी पहले ही की तरह उसके मातहत रहें। उसने यह रवैया अपनाया कि मुसलमानों में बैठ कर उन से अपनी दोस्ती जाहिर करता और दूसरी कौमों के सामने उन के साथ अपने मेल का बखान करता।
यहूदी, ईसाई और मुनाफिक-ये तीनों अब जहां इस्लाम और मुसलमानों के मुखालिफ और दुश्मन बन गए थे और इन्हें सामने रख कर हुजूर सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम को नयी पालीसी और नया अन्दाज अख्तियार करना था, वहीं मदीना में आने के बाद अब नयी बात यह पैदा हुई थी कि मुसलमानों की एक छोटी-सी स्टेट जन्म ले चुकी थी, जिसे न सिर्फ यह कि अपने पैरों पर खडा होना था, बल्कि जिसे मजबूत बनाने के लिए उसके दुश्मनों का जो उस की जड काट देने पर तुले हुए थे, मुकाबला करना था।