तारीखे इस्लाम

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(चैबीसवीं किश्त)
हुदैबिया का समझौता
इस बैअत में मुहम्मद सल्ल. ने अपने बाएं हाथ को उस्मान रजि. का दायां हाथ करार दिया और उनकी तरफ से अपने दाएं हाथ पर बैअत की। इस बैअत का हाल सुन कर कुरैश डर गए और उनके सरदार एक-एक कर हुदैबिया में हाजिर हुये।
उर्वः बिन मसउद्, जो कुरैश की तरफ से आया था, उसने कुरैश से वापस जा कर कहा-
’ऐ कौम! मुझे नजाशी (हब्शा का बादशाह), कैसर (रूम का बादशाह), किसरा (ईरान का बादशाह) के दरबार में जाने का मौका मिला है, मगर कोई भी बादशाह ऐसा नजर नहीं आया, जिसकी अजमत उसके दरबार वालों के दिल में ऐसी हो, जैसे मुहम्मद (सल्ल.) के साथियों के दिल में मुहम्मद की है। मुहम्मद थूकता है, तो उस का लुआब जमीन पर गिरने नहीं पाता, किसी न किसी के हाथ ही पर गिरता है और वह शख्स इस आबे देहन को अपने चेहरे पर मल लेता है।
जब मुहम्मद कोई हुक्म देता है- तो तामील के लिए सब दौड पडते हैं, जब वुजू करता है, तो इस्तेमाल किये हुये पानी के लिए ऐसे गिरे पडते है।, गोया लडाई हो पडेगी, जब वह कलाम करता है तो सब के सब चुप हो जाते हैं। उनके दिल में मुहम्मद का इतना अदब है कि वह उसके सामने नजर उठा कर नहीं देखते। मेरी राय है कि उस से सुलह कर लो, जिस तरह भी बने।
सोच-समझ कर कुरैश समझौता करने पर तैयार हो गये।
कुरैश ने सुहैल बिन अस्र को अपना सफीर बना कर भेजा, ताकि वह समझौते के बारे में बात-चीत करें।
उन से देर तक सुलह के बारे में बात-चीत होती रही और आखिर कार सुलह की शर्तें हो गयी। जिन शर्तों पर समझौता हुआ था, वे यह थीं-
0 मुसलमान इस साल वापस चले जाए।
0 अगले साल आएं और सिर्फ तीन दिन ठहर कर वापस चले जाएं।
0 हथियार लगा कर न आएं, सिर्फ तलवार साथ रख सकते हैं, मगर वह भी म्यान में रहेगी, बाहर न निकाली जाएगी।
0 मक्के में जो मुसलमान बाकी रह गये हैं उनमें से किसी को अपने साथ न ले जायें और अगर कोई मुसलमान मक्के में वापस आना चाहे तो उसे भी न रोकें।
0 काफिरों को मुसलमानों में से अगर कोई शख्स मदीना चला जाए तो उसे वापस कर दिया जाए, लेकिन अगर कोई मुसलमान मक्का में जाए तो वह वापस नहीं किया जाएगा।
0 अरब कबीलों को अख्तियार होगा कि वे मुसलमानों या काफिरों में से जिसके साथ चाहें, समझौता कर लें।
यह समझौता दस साल तक कायम रहेगा।
शर्त नं. 5 सुन कर तमाम मुसलमान, अलावा अबूबक्र रजि. घबरा उठे। हजरत उमर रजि. इस बारे में ज्यादा जोश में थे, लेकिन नबी सल्ल. ने हंस कर इस शर्त को भी मंजूर फरमा लिया।
समझौता हजरत अली रजि लिखा था। उन्होंने शुरू में लिखा ’बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम‘
सुहैल जो कुरैश की तरफ से समझौता करा रहा था, बोला, खुदा की कसम! नबी सल्ल. ने वही लिख देने का हुक्म दिया।
हजरत अली ने फिर लिखा, यह समझौता मुहम्मद रसूलुल्लाह और कुरैश के दर्मियान हुआ है।
सुहैल ने इस पर भी एतराज उठाया और नबी सल्ल. ने उसकी दख्र्वास्त पर मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिखने का हुक्म दिया।
हजरत अबू जुन्दल का मामला
समझौते की शर्त न.ं 5 के बारे में कुरैश का ख्याल था कि इस शर्त के डर कर कोई शख्स आगे मुसलमान न होगा, लेकिन यह शर्त अभी तै ही हुई थी और समझौता नामा लिखा ही जा रहा था, दोनों तरफ से दस्तखतें भी न हुई थीं कि सुहैल बिन अम्र (जो मक्का की ओर से समझौता नामे पर दस्तखत करने का अख्तियार रखता था)
के सामने अबू जन्दल मक्के से भाग कर वहां पहुंच गए। वह मक्का में मुसलमान हो गये थे। कुरैश ने उन्हें कैद कर रखा था।
सुहैल ने कहा, इसे हमारे हवाले कीजिए।
नबी सल्ल. ने फरमाया कि समझौता नामे के पुरे होने पर उसके खिलाफ न होगा, यानि जब तक समझौता नामा पूरा न हो जाए, उसकी शर्तों पर अमल नहीं हो सकता।
सुहैल ने बिगड कर कहा कि तब हम समझौता ही नहीं करते।
नबी सल्ल. ने हुक्म दिया और अबू जुन्दल कुरैश के सुपुर्द कर दिए गये।
कुरैश ने मुसलमानों के कैम्प में उनकी मश्कें बांधी, पांवों जंजीर डाला और खींच कर ले गये। नबी सल्ल. ने जाते वक्त इतना फरमा दिया था कि ’अबू जुन्दल! खुदा तेरी मदद करेगा, घबराना मत!‘
अबू जुन्दल की जिल्लत और कुरैश का जुल्म देख कर मुसलमानों के अन्दर जोश और गुस्सा तो पैदा हुआ, यहां तक कि हजरत उमर ने आं-हजरत से कह दिया कि जब आप अल्लाह के सच्चे नबी हैं तो फिर हम यह जिल्लत क्यों सहें, लेकिन आंहजरत सल्ल. ने फरमाया कि ’मैं खुदा का पैगम्बर हूं और उसके हुक्म की नाफरमानी नहीं कर सकता। ’खुदा मेरीी मदद करेगा।‘
गरज यह कि समझौता मुकम्मल हुआ। अबू जुन्दल को समझौते की शर्त के मुताबिक वापस होना पडा और इस्लाम के फिदाकारों ने रसूल की इताअत का कडा इम्तिहान पास कर लिया।
खुली जीत
इस समझौते को कुरआन मजीद ने खुली जीत कहा और आपने इस समझौते से बहुत बडे-बडे मक्सद हासिल किए-
1. एक यह कि मुसलमानों और मक्का और अरब के मुश्रिकों के दर्मियान हर तरह के मेल-जोल के रास्ते खुल गये। लीग आने-जाने लगे। वर्षों के बिछडे हुए रिश्ते-नातेदार इकट्ठे होकर बैठे। मक्के में जो गलत फहमियां हुजूर और मुसलमानों के बारे में थीं, वे मुश्रिकों की तरफ से सामने आयीं और मुसलमानों ने उनको साफ किया, लोगों के सवालों का जवाब दिया, उन्हें अपनी बातें खोल कर बतायीं, यहां तक कि हक की और इस्लाम की दावत घर-घर चर्चा का मज्मून बन गयी और अम्न की हालत इतनी तायदाद खुशी-खुशी हक के मोर्चे। पर आ खडी हुई, जितनी इस से पहले के अठारह-उन्नीस वर्षों में कुल मिलाकर हासिल हुई थी, यहां तक कि खालिद और अम्र बिन आस जैसे काम के नव-जवान भी इसी समझौते के बाद ही इस्लाम के हल्के में दाखिल हुए।
2. दूसरा फायदा यह कि लडाइयों से निजात पा कर मुसलमानों की जेहनी और अख्लाकी इस्लाह और खुद स्टेट के अच्छे इन्तिजाम का काम अंजाम देने के लिए एक सुनहरा मौका मिल गया।