इस्लाम की रोशनी फैलने लगी
(छब्बीसवीं किश्त)
मर्हब का भाई यासिर निकला। उसे हजरत जुबैर बिन अब्बास रजि. ने खाक में सुला दिया।
इसके बाद हजरत अली मुर्तजा रजि. के आम हमले से नाअिम किला जीत लिया गया।
उसी दिन किला सअब की हजरत हुबाब बिन मुंजिर रजियल्लाहु अन्हु ने घेरे के तीसरे दिन बाद फत्ह कर लिया। किला सअब से मुसलमानों की जो, खजूर, छोहारे, मक्खन, रौगन,े जैतून, चर्बी और दूसरी चीजें बडी मिक्दार में मिलीं। फौज में रसद की कमी से जो तक्लीफ हो रही थी, वह दूर हो गयी। इसी किले के किले तोडने वाले हथियार भी बरामद हुए, जिस की खबर यहूदी जासूस दे चुका था। उससे अगले दिन किला नुतात जीत लिया गया। अब किला जुबैर जो एक पहाडी टीले पर वाकेअ था और अपने बानी जुबैर के नाम से याद किया जाता था, हमला किया गया। दो दिन के बाद एक यहूदी फौजी इस्लामी खेमें में आया। उसने कहा, यह किला तो महीने भर तक भी तुम फतह नहीं कर सकोगे। मैं एक राज बताता हूं। इस किले के अन्दर पानी एक जमीन के नीचे की राह से जाता है। अगर पानी का रास्ता बन्द कर दिया जाए, तो फत्ह मुम्किन है, मुसलमानों ने पानी पर कब्जा कर लिया। अब किले वाले किले से बाहर निकलकर खुले मैदान में आकर लडे और मुसलमानों ने उन्हें हराकर किले को जीत लिया।
फिर हिस्ने उबई पर हमला शुरू हुआ। इस किले वालों ने सख्त मुकाबला किया। उनमें से एक शख्स, जिस का नाम गजबान था, मुकाबले के लिए बाहर निकला। हुबाब रजियल्लाह मुकाबले को गये। उसका सीधा हाथ कट गया। वह किले को भागा। हुबाब ने पीछा किया। फिर हमला किया, वह गिर पडा और कत्ल कर दिया गया।
किले से एक और जवान निकला, जिसका मुकाबला एक मुसलमान ने किया, मगर मुसलमान
उसके हाथ से शहीद हो गया। अबूदुजाना रजि. निकले। उन्होंने जाते ही उसके पांव काट दिए और फिर कत्ल कर डाला।
यहूदियों पर रौब छा गया और बाहर निकलने से रूक गये। अबू दुजाना रजि. आगे बढे। मुसलमानों ने उनका साथ दिया। तक्बीर कहते हुए किले की दीवार पर जा चढे। किला फत्ह कर लिया। किले वाले भाग गये। इन किले से बकरियां और कपडे और अस्बाब बहुत-सा मिला।
अब मुसलमानों ने हिस्ने बिर्र पर हमला कर दिया। वहां के किले वालों ने मुसलमानों पर इतने तीर बरसाए और इतने पत्थर गिराए कि मुसलमानों को भी तोपों का इस्तेमाल करना पडा। तोप वही थे जो हिस्ने सअब से गनीमत में मिले थे। तोपों से किले की दीवारें गिरायी गयीं और किला जीत लिया गया।
रोशनी फैलने लगी
इसी तरह हुदैबिया के समझौते ने हर-हर कबीले के लिए इस्लाम कूबूल करने का दरवाजा खोल दिया, एक तरफ तो प्यारे नबी सल्ल. की कुरआन की शक्ल में दलील भरी बातें, दूसरी तरफ आप की पाक और अमली जिन्दगी, तीसरी तरफ जाहिली ताकत का खौफ दूर होना, ये सब चीजे ऐसी थीं, जिसने उन के दिल सच्चाई और नेकी के पैगाम के लिए पूरी तरह खोल दिए। उन्हीं ने खुद अपने अन्दर से सच्चाई के इस नूर की प्यास महसूस की थी, इस प्यास से बे-ताब होकर मदीना की तरफ लपके, वहां के जाम भर-भर कर पिए और फिर जाकर अपने इलाकों और कबीलों में लोगों के दिलों मंे ईमान की उस मिठास को उतार दिया, जिसे वे खुद अपने भीतर महसूस कर रहे थे।
यों उजाला फैलता गया और अंधेरियां दूर होती चली गयीं।
बादशाहों के नाम इस्लाम
की दावत
सच तो यह है कि हुदैबिया के समझौते से कुछ इत्मीनान हुआ तो हजरत मुहम्मद सल्ल. ने दावत व तब्लीग के काम पर और ज्यादा तवज्जोह फरमायी। एक दिन आप ने अपने साथियों को खिताब फरमाया कि ऐ लोगों! अल्लाह तआला ने मुझे दुनिया के लिए रहमत बना कर भेजा है (मेरा पैगाम सारी दुनिया के लिये है और यह सबके लिये रहमत है) देखो, ईसा के हवारियों की तरह इख्तिलाफ न करना, जाओ मेरी तरफ से हक का पैगाम सब को पहुंचा दो।
इसी जमाने में यानी सन् 06 हि. के आखिर या शुक्र 07 हि. में आप ने बडे-बडे बादशाहों के नाम दावती खत भी लिखे, जिन को लेकर मुख्तलिफ सहाबा मुख्तलिफ मुल्कों को भेजे गये। वे खत छोटे देशों को भी भेजे गये थे और बडे देशों को भी, जैसे रूम और ईरान के बादशाहों को भी।
मक्का जीत लिया गया
हुदैबिया के समझौते के मुताबिक यह भी तै हुआ था कि, ’दस साल तक लडाई न होगी और जो कौमें नबी सल्ल. से मिलना चाहें, वे इधर मिल जाएं और जो कौमें कुरैश की तरफ मिलना चाहें वे उधर मिल जाएं। इसके मुताबिक बनी खुजाआ नबी सल्ल. की तरफ और बलू विक्र कुरैश की तरफ मिल गये थे।
समझौते को अभी दो साल न हुए थे कि बनू बिक्र ने खुजाआ पर हमला किया और कुरैश ने भी बनू विक्र की हथियारों से मदद दी, इक्रिमा बिन अबू जह्ल, सुहैल ने बिन अम्र (समझौते पर इसी ने दस्तखत किए थे) सफवान बिन उमैया (कुरैश के मशहूर सरदार) खुद भी नकाब पोश हो कर मय अपने साथियों के बनू खुजाआ पर हमलावर हुए।
इन बेचारों ने अमान भी मांगी, भाग कर खाना काबा में पनाह भी ली, मगर उनको हर जगह बे-रहमी के साथ कत्ल कर डाला। वे मज्लूम जब ’इलाह-क, इलाह-क‘ (अपने खुद के वास्ते, अपने खुदा के वास्ते) कह कर रहम की दख्र्वास्त करते थे, तो ये जालिम उनके जवाब में कहते थे ’ला इलाहा यौम‘ (आज खुदा कोई चीज नहीं)।
मज्लूमों के बचे-खुचे चालीस आदमी जिन्हों ने अपनी जान बचा ली थी, नबी सल्ल. की खिदमत मंे पहुंचे और अपनी मज्लूमी और बर्बादी की दास्तान सुनायी। अम्र बिन सालिम खुजाई ने दर्द भरी नज्म में तमाम वाकिए सुनाये।
प्यारे नबी सल्ल. को जब वे हालात मालूम हुए, तो आपको सख्त तक्लीफ हुई और आपने कुरैश के पास एक दूत भेजा और कहला भेजा कि कुरैश अपनी हरकत से बाज आ जाएं और इन तीन शर्तों में से किसी एक को कुबूल कर लें-
1. खुजाआ के जो लोग मारे गये हैं, उनका खून वहां अदा किया जाए या
2. कुरैश बनू बिक्र की हिमायत न करें, या फिर
3. इस बात का एलान कर दिया जाए कि हुदैबिया का समझौता खत्म हो गया।
दूत के जरिए यह पयाम सुन कर कुरैश में से एक शख्स कुरता बिन उमर ने कहा कि, ’हमें सिर्फ तीसरी शर्त मंजूर है।‘
दूत के चले जाने के बाद उन्हें अफसोस हुआ और उन्होंने फिर अपनी तरफ से अबू सुफियान को दूत बना कर भेजा कि वह हुदैबिया के समझौते को बहाल करा लाएं। लेकिन प्यारे नबी सल्ल. को अब कुरैश की तरफ से इत्मीनान नहीं था, इसलिए आपने अबू सुफियान की बात को ना-मंजूर कर दिया। (क्रमशः)