तारीखे इस्लाम

0
217

(37वीं किश्त)
दूसरे खलीफा हजरत उमर रजि
5. दमिश्क की हार के बाद सभी
बहुत ना-उम्मीद हो गये, मगर एक बार फिर उन्होंने हिम्मत से मुकाबला करने की ठानी, जबरदस्त तैयारी की और चालीस हजार की फौज मुसलमानों से मुकाबले के लिए शहर बेसान के करीब जमा हो गयी। लेकिन यह तैयारी भी मुसलमान फौज पर कोई असर न डाल सकी। वह जीतती रही और आगे बढती रही।
6. हजरत अबू उबैदा की सरदारी में शाम के हम्स जिला पर भी कब्जा कर लिया गया। अब हजरत अबू उबैदा हिरक्ल की राजधानी तक पहुंच आये थे।
7. रूमियों की लगातार हार ने इन की हिम्मतें पस्त कर दी थीं। कैसर हिरक्ल ने फिर हिम्मत बांधी और जोरदार हमला करके मुसलमानों की कमर तोड देने का इरादा किया। जबरदस्त तैयारी के बाद रूमी फौज आगे बढी। यर्मूक में हजरत अबू उबैदा ने अपना पडाव किया। घमासान की लडाई हुई, मुसलमानों को जीत नसीब हुई।
8. बैतुलमक्सिदस कई हैसियत से मुसलमानों के लिए एक खास अहमियत रखता है। बैतुलमक्दिस बहुत से नबियों का गहवारा है, साथ ही वह मुसलमानों का किबला भी रहा है। अब जीतते हुए हजरत अबू उबैदा रजि. की फौजों ने बैतुल मक्दिस का रूख किया। मुसलमानों का रौब पहले दूर-दूर तक पडा हुआ था, इस भारी फौज को देखकर ईसाईयों ने तुरन्त समझौते की दख्र्वास्त की। मगर एक शर्त यह लगायी कि खलीफा खुद तशरीफ लाकर अपने हाथ से समझौते की शर्त तै करें। जब हजरत उमर को इसकी इत्तिला दी गयी, तो आप आने में कुछ झिझके, मगर सलाह व मश्विरा के बाद यह तय पाया कि हजरत उमर का बैतुलक्दिस जाना निहायत अहम और जरूरी है। हजरत अली को अपना नायब मुकर्रर करके 3 रजब को आप मदीना से रवाना हुए।
जाबिया का समझौता
बैतुलमक्दिस से करीबी जगह जाबिया में मुसलमान सरदारों और जनरलों ने हजरत उमर रजि. का स्वागत किया। मुसलमान सरदारों और जनरलों के चमचमाते कपडों को देखकर हजरत उमर बहुत बिगडे और अपना गुस्सा और रंज जाहिर करने के लिए उन पर कंकरियां फेंकी उन सबने एक मुंह होकर उन्हें यकीन दिलाया कि हम सब ने कपडों के नीचे फौजी हथियार पहन रखे हैं, फिर डर से कांपते हुए अर्ज किया कि दुश्मन पर रौब बिठाने के लिए यह जरूरी है कि हुजूर भी अपना कपडा बदल लें। यह सुनकर हजरत उमर रोने लगे और फरमाया, तुम्हें मालूम नहीं, हम अनजाने, जाहिल और बुतों के पुजारी थे, खुदा ने हमें इस्लाम की दौलत से मालामाल किया, क्या यह काफी नहीं कि हम उसका शुक्र अदा करें और फिर उसी गुमराही में न जाएं।
ईसाईयों के सरदार के साथ अमीरूल मामोमिनीन ने शहर का मुआयना किया और कई जगहों की सैर की। ईसाई तारीख लिखने वाले लिखते हैं कि नमाज का वक्त होने पर सरदार ने, जब वह अमीरूल मोमिनीन को एक गिरजा दिखा रहा था, अर्ज की कि हुजूर नमाज अदा फरमा लें। अमीरूल मोमिनीन ने इन्कार कर दिया और फरमाया कि अगर आज में यहां नमाज अदा करूं, तो मुम्किन है मुसलमान इस ख्याल से कि यहां एक वक्त नमाज अदा की गयी थी, गिरजा पर कब्जा करने की कोशिश करें। इसी ख्याल को ध्यान में रखते हुए खलीफा ने एक दस्तावेज एक और गिरजा के पादरी को दी कि, ’एक वक्त में एक से ज्यादा मुसलमान इस गिरजा में दाखिल नहीं हो सकंे।
वहां मुसलमानों और ईसाईयों में जो समझौता हुआ, वह इस बात का खुला सबूत है कि मुसलमानों ने दूसरी कौमों के साथ कितनी नर्मी का सबूत दिया है?
समझौता इस तरह है-
खुदा का बंदा अमीरूल मोमिनीन उमर अल्लाह पाक की मेहरबानी से बैतुल मक्दिस के लोगों के साथ नीचे लिखा समझौता करता है-
1. वह उन्हें यकीन दिलाता है कि उनकी जानें, जायदादें, इबादतगाहें, उनके गिरजे, उनकी सलीबें (क्रास), जिनकी वे इज्जत करते हैं हर तरह से महफूज होंगी और हुकूमत का फर्ज होगा कि वह उनकी हिफाजत करे।
2. उनको अख्तियार होगा कि वे जिस तरह चाहें गिरजों में या गिरजों के बाहर अपने विश्वास के मुताबिक इबादत करें।
3. उनकी जायदादें और मिल्कियतें किसी हाल में भी जब्त न की जाएंगी।
4. उनके गिरजे, मस्जिद या दूसरी इमारतें हरगिज न बदली जाएंगी। न उनकी सलीबें उनसे छीनी जाएंगी।
5. यहूदी और ईसाई दूसरे लोगों की तरह जिजया अदा करेंगे।
6. यूनानी शहर से निकाल दिए जाएंगे, मगर उनसे किसी किस्म की छेडखानी न की जाएगी, मगर जो ठहरना चाहें और वचन दें कि वे होगा। वे ईसाई जो यूनानियों के साथ जाना चाहें अपने तमाम सामान के साथ जा सकते हैं।
7. जब तक आगे फसल पक कर तैयार न हो, किसी से भी जिजया न वसूल किया जाएगा।
इस समझौते पर खालिद बिन वलीद, अम्र बिन आस, मुआविया बिन अबू सुफियान और अब्दुर्रहमान बिन औफ ने गवाह के तौर पर दस्तखत किये हैं।
यह समझौता आज की तरक्की की दुनिया की आंख खोल देने के लिए काफी है। (क्रमशः)