(45वीं किश्त)
चैथे खलीफा हजरत अली रजि.
हजरत अली रजि. ने लोगों को यकीन दिलाया कि वह कूफा को मदीना के बजाए राजधानी बनायेेंगे, बशर्तें कि लोग इस मौके पर उनकी मदद करें।
फिर वह खुद बीस हजार फौज लेकर बसरा आ गये, कई दिन तक बातचीत चलती रही। दोनों फौजें एक दूसरे के मुकाबले में डेरे डाले पडी रहीं।
हजरत अली रजि. ने हजरत आइशा रजि. को पैगाम भेजा कि छैः हजार मुसलमान पहली लडाई में काम आये हैं, मैं खुद हजरत उस्मान रजि. के कातिलों से बदला लेना चाहता हूं, मगर मजबूर हूं, अगर आगे लडाई हुई तो और छैः हजार मुसलमान मुफ्त में मारे जाएंगे।
हजरत आइशा रजि. ने पैगाम कहलाया कि पांच महीने हो गये और हजरत उस्मान के कातिलों को कोई सजा नहीं मिली, अगर हमें यकीन दिलाया जाए कि कातिलों से बदला लिया जाएगा तो जिस तरह हजरत चाहें, हम करने को तैयार हैं। बहरहाल बात-चीत चलती रही।
अभी यह बात-चीत ही रही थी कि उसी रात हजरत अली रजि. के दुष्ट सिपाहियों ने, जो फसादी थे, हजरत आइशा रजि. की फौज पर यकायकी हमला कर दिया। घमासान की लडाई हुई कि हजारों मुसलमान शहीद हुए, तमाम रात भयानक लडाई जारी रही। बहुत सबेरे हजरत आइशा रजि. एक ऊंट पर सवार इस नीयत से खेमे से निकलीं कि शायद उन्हें देखकर लोग लडाई से रूक जाएं।
लडाई ने भयानक शक्ल अख्तियार कर ली। हजरत तल्हा, जुबैर और हजरत अली रजि. आपस में मिले, उन्होंने लडाई खत्म करने की हर मुम्किन कोशिश की, मगर उनकी समझ में नहीं आता था कि क्या किया गया।
इस हालत में जबकि लोग मशविरे में लगे हुए थे, फसादियों ने हजरत आइशा के ऊंट को घेर लिया। वे चाहते थे कि हजरत आइशा रजि. को गिरफ्तार कर लिया जाए और मुसलमान मजबूर थे कि प्यारे नबी सल्ल. की चहेती बीवी को हर सूरत से बचाएं, चाहे जान की बाजी लगानी पडे। इसलिए खूब जोर की लडाई शुरू हो गयी।
तीरों की बारिश हो रही थी। खतरा बहुत बढ गया था। हजरत अली रजि. खुद बढकर आये और उन्हें पूरी इज्जत व एहतराम के साथ अपने साथ ले गये। वहां कुछ दिनों ठहरने के बाद फिर वह मदीना वापस हो गयीं। मदीना पहुंच कर वह उमरः के लिए मक्का तश्रीफ ले गयीं, फिर मदीना वापस लौट आयीं और कई साल तक वहां रहीं और सन् 58 हि. में जबकि उन की उम्र 66 साल की थी, वह इंतिकाल फरमा गयीं।
हजरत तलहा और हजरत जुबैर रजि. को भी फसादियों ने धोखे से शहीद कर दिया।
राजधानी की तब्दीली
फिर हजरत अली रजि. ने वायदे के मुताबिक मदीना के बजाए कूफा को राजधानी बना लिया। हजरत अली रजि. का ख्याल था कि मदीने के लोग उतने काम नहीं आएंगे जितने कूफे के लोग आएंगे। उनका विचार था कि हजरत मुआविया रजि. से उन्हें जरूर लडना पडेगा, इसमें कूफा के लोग ही काम आएंगे।
हजरत उस्मान के कत्ल की मांग कुछ दिनों के लिए ठंडी पड गयी। हजरत अली ने अपने चचेरे भाईयों को जो हजरत अब्बास के बेटे थे, कई जगहों पर गवर्नर की हैसियत से मुकर्रर किया, मगर इससे कोई फायदा न हुआ और जल्द ही फिर माहौल बिगड गया।
उश्तर ने जो असल फसादियों में से एक था, बसरा में फिर शरारत शुरू कर दी, कहता, हमें हजरत उस्मान के कत्ल से क्या फायदा पहुंचा है? हमने अपने भाईयों तल्हा और जुबैर रजि. को कत्ल करके क्या हासिल किया है? वगैरह-वगैरह।
हजरत अली रजि. ने मुंह बन्द करने के लिए उसे एक ओहदा भी दे दिया, लेकिन उस का कोई फायदा न हुआ। मिस्र में और सरहदों पर बगावत शुरू हो गयी। हजरत मुआविया रजि. जो भरे बैठे थे, वह अलग।
सिफ्फीन की लडाई
अमीरूल मोमिनीन हजरत अली रजि. की राजधानी की तब्दीली के बाद कुछ वक्त अम्न रहा, इसलिए आस-पास के लोग अमीरूल मोमीनीन की बैअत लेने के लिए जुट कर कूफा आने शुरू हुए।
एक बद्दू सरदार के साथ अमीर मुआविया रजि. के ताल्लुकात बडेे अच्छे थे और वह कूफा का रहने वाला था। हजरत अली ने उन्हें अमीर मुआविया रजि. के लिए पैगाम लेकर भेजा कि वह अमीरूल मोमिनीन की बैअत करलें और इस्लामी हुकूमत को बिखरने और टूटने से बचा लें।
अमीर मुआविया रजि. ने अपने दोस्त बद्दू सरदार की बहुत आवभगत की और अर्ज किया कि मुझे बैअत लेने में कतई कोई इंकार नहीं है। मुझे इसका भी डर है कि मेरे न करने से इस्लामी हुकूमत बिखर सकती है, मगर जब तक हजरत उस्मान रजि. के कातिलों से बदला न लिया जाए, मेरा बैअत लेना नामुमकिन है। इतना ही नहीं, हम शामी सरदारों ने कसम खायी है कि हम सोने के लिए बिस्तर और पलंग इस्तेमाल नहीं करेंगे, गुस्ल न करेंगे, जब तक कि हम कातिलों को तलवार की धार पर न चढा लें।
हजरत अली रजि. को जब सब बातें मालूम हुई तो कातिलों को मारने के बजाए उन्होंने अमीर मुआविया रजि. से लडने का ही फैसला किया। पचास हजार की फौज ले कर हजरत अली रजि खुद आगे बढे।
अमीर मुआविया की फौज भी मुकाबले पर आ डटी।
पहले बात-चीत का दौर शुरू हुआ, लेकिन वह नाकाम रही।
फौजें आमने-सामने डटी रहीं, लेकिन दोनों को इसी का इंतिजार रहा कि शायद मामला बात-चीत से हल हो जाए और खूंरेजी न हो। इसी बीच नया साल शुरू हो गया, वक्ती तौर पर एक महीने के लिए समझौता हो गया। फिर बातचीत शुरू हुई, हर फरीक अपनी जिद पर अडा हुआ था, इसलिए बेहतर नतीजा नहीं निकल सका।
यह वक्ती समझौते की मुद्दत भी खत्म हो गयी। हजरत अली ने नये सिरे से जंग की तैयारियां शुरू कर दीं। हालात बद से बदतर होते चले गये, लडाई छिड गयीं, घमासान की लडाई।
फैसला न हो सका, मामला खुदा को सौंप दिया गया। तै हुआ कि हर फरीक अपना एक आदमी मुकर्रर कर दे और वे सब खुदा के हुक्म के मुताबिक जो फैसला दें, उस पर अमल करें। दो आदमी हजरत उम्र बिन आस और हजरत मूसा अश्अरी मुकर्रर किये गये।
सरपंचों का फैसला
समझौते के मुताबिक सरपंच चार-चार सौ सवारों के साथ निहायत शान व शौकत से दौमतुल जुंदल में जो कूफा और दमिश्क के दर्मियान वाके है, इकट्ठा हुए, एक आलीशान खेमें के चारों तरफ गार्ड लगा दिये गये कि कोई बीच में खलल न डाल सके। देर तक हर पहलू पर बातें होती रहीं।
अबू मूसा और अम्र इस पर एक राय थे कि हजरत उस्मान का कत्ल जालिमाना और नाजायज था। अम्र ने निहायत होशियारी से कहा तो अमीर मुआविया की मांग जायज और दुरूस्त है कि उस्मान के कातिलों से बदला लेना जरूरी है, ऐसी हालत में हम क्यों न अमीर मुआविया को अपना खलीफा बनायें। (क्रमशः)