तारीखे इस्लाम

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(47वीं किश्त)
हजरत अली रजि. चार साल नौ महीना खलीफा रहे। अगरचे यह सब साजिशों और आपस के लडाई-दंगों में बीत गया, फिर भी उन को हुकूमत बडे इंसाफ की हुकूमत थी।
खलीफा होते हुए भी आप की यह हालत थी कि एक मोटा सा तहबंद बांधे रहते थे, उस पर एक मोटी रस्सी लिपटी होती थी। कभी एक चादर ओढ लेते और एक से तहबंद का काम लेते। इस हाल में कूफे के बाजारों में यह देखते फिरते थे कि कहीं दुकानदार नाप-तौल में कमी तो नहीं करते। एक दिन बाजार में खडे थे, देखा कि एक लौंडी रो रही है। पूछा तुम क्यों रो रही हो? कहने लगी, मेरे आका ने एक दिरहम की खजूरें मंगाई थीं वह उसे पसन्द नहीं आयीं, इसलिए फेर दीं अब दुकानदार वापस नहीं लेता। हजरत अली रजि. ने दुकानदार से कहा, भाई खजूर बेचने वाले! अपनी खजूरें ले ले और दिरहम वापस कर दे।
उसने आप को धक्का दिया। यह देख कर लोग जमा हो गये और कहने लगे, तू नहीं जानता? यह अमीरूल मोमिनीन हैं। दुकानदार ने यह सुनकर खजूरें ले लीं और दिरहम वापस कर दिए और हजरत अली रजि. से कहने लगा, मैं चाहता हूं कि आप मुझसे खुश हो जायें। आपने फरमाया कि, मुझे सिर्फ यही बात खुश कर सकती है कि तू लोगों को उनका पूरा हक दे दिया कर।
आपके कपडों में कितने ही पेबन्द होते थे। कपडा फट जाता था तो उसे अपने आप सी लेते थे। जूती फट जाती थी तो उस की मरम्मत भी आप ही कर लिया करते थे। जाडे के मौसम में भी उनका यही हाल होता था कि एक ही चादर ओढे हुए हैं और ठन्ड से सारा बदन कांप रहा है।
एक बार कपडा खरीदने निकले। आपका गुलाम कबंर साथ था। दो मोटी-मोटी चादरें खरींदीं। फिर से कहने लगे इनमें से जो तुझे पसन्द है वह ले ले। एक उसने ले ली और दूसरी आप ने ओढ ली।
हजरत इमाम हसन रजि.
हजरत हसन रजि. बहुत समझदार, संजीदा मिजाज, सखी दाता थे, आपको फित्नों और खूंरेजी से सख्त नफरत थी। आप ने पैदल पचीस हल किए। उमैर बिन इस्हाक कहते हैं कि सिर्फ हजरत हसन रजि. ही एक ऐसे शख्स थे कि जब बात करते थे, तो मैं चाहता कि आप बातें किए चले जाएं और अपनी बात खत्म न करें और आपकी जुबान से मैंने कभी कोई गाली या गन्दी बात नहीं सुनी। अली बिन जैद रजि. कहते हैं कि हजरत इमाम हसन रजि. ने दो बार अपना माल अल्लाह की राह में खैरात किया और तीन बार आधा-आधा खैरात किया, यहां तक कि एक जूता रख लिया, एक दे दिया। एक मोजा रख लिया, और हक दे दिया। एक बार आप के सामने जिक्र हुआ कि अबूजर रजि. कहते हैं कि मैं खुशहाली से गरीबी को और तन्दरूस्ती से बीमारी को ज्यादा अजीज रखता हूं, आपने फरमाया कि खुदा उन पर रहम करें, मैं तो अपने आप को बिल्कुल खुदा के हाथ में छोडता हूं और किसी बात की तमन्ना नहीं करता कि वह जो कुछ चाहे करे, मुझे दखल देने की क्या मजाल है।
आपने रबीउल अव्वल सन् 41 हि. में खिलाफत हजरत अमीरन मुआविया रजि. के सुपुर्द कर दी। आपने माह रबीउल अव्वल सन् 50 हि. में वफात पायी। कुछ लोग कहते हैं कि आप की शहादत जहर के जरिए हुई। हजरत इमाम हुसैन रजि. ने आप से बहुत मालूम करने की कोशिश की कि बता दें, जहर किसने दिया, मगर आपने न बतलाया और फरमाया कि जिस पर मेरा शुबहा है, अगर वही मेरा कातिल है, तो अल्लाह तआला सख्त इन्तिकाम लेने वाला है, वरना कोई क्यों मेरे वास्ते कत्ल किया जाए।
हजरत हसन रजि की खिलाफत के कुछ वाकिए
हजरत अली रजि. से वफात के वक्त पूछा गया था कि आपके बाद हजरत हसन रजि. के हाथ पर बैअत की जाए? हजरत अली रजि. ने फरमाया, मैं अपने हाल में फंसा हुआ हूं, तुम जिसकी पसन्द करो, उसके हाथ पर बैअत कर लेना। लोगों ने इसकी इमाम हसन रजि. के बारे में इजाजत समझ कर उनके हाथ पर बैअत की। बैअत के वक्त हजरत इमाम हसन रजि. लोगों से इकरार लेते जाते थे कि-
मेरे कहने पर अमल करना, जिससे मैं लडूं, तुम भी लडना और जिससे मैं सुलह करूं, तुम भी उससे सुलह करना।
इस बैअत के बाद ही कूफा वालों में कानाफूसी शुरू हो गयी कि इनका इरादा लडाई लडने का नहीं है। उधर हजरत अली रजि. की शहादत की खबर सुनते ही अमीर मुआविया रजि. ने अपनी खिलाफत का एलान कर दिया और बैअत लेने लगे। हजरत अमीर मुआविया रजि. बैअत के काम से फारिग होकर दमिश्क से कूफा की तरफ रवाना हुए और हजरत इमाम हसन रजि. के पास पैगाम भेजा कि सुलह लडाई से बेहतर है और मुनासिब यही है कि आप मुझको खलीफा मानकर मेरे हाथ पर बैअत कर लें। हजरत हसन रजि. ने यह सुनकर कि हजरत अमीर मुआविया रजि. कूफा का इरादा रखते हैं, चालीस हजार की फौज अपने साथ ली और कूफा से रवाना हुए। बाद में यही फैसला हुआ कि अमीर मुआविया रजि. से सुलह कर ली जाए, खिलाफत उनको सौंप दी जाए और मुसलमानों के खून-खराबे से बचा जाए। अगर ये हजरत हसन रजि. के इस फैसले की मुखालफत उनके घर वालों ने भी की और करीबी साथियों ने भी, लेकिन आप ने किसी मश्विरे को तस्लीम न किया और सुलह कर ली।
यह सुलह सन् 41 हि. में हजरत अली रजि. की शहादत से छैः कूफा से दमिश्क चले गये और जब तक इमाम हसन रजि. जिन्दा रहे, उनके साथ अमीर मुआविया रजि. इज्जत व ताजीम का बर्ताव करते रहे।
हजरत इमाम हसन रजि. जल्द ही कूफा से मदीना मुनव्वरा मुंतकिल हो गये और वहीं सन् 50 हि. या 51 हि. में वफात पायी।