त्याग का पर्व है ईद-उल-अज्हा

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शरियत में जिन दो पर्वो कोे मंजूरी मिली हुई है, वे हैं ईद-उल-फितर और ईद-उज-जुहा। सही अर्थो में देखा जाए तो केवल ये दोनों पर्व ही इस्लामी पर्व हैं। मुसलमानों में लोकप्रिय कुछ दूसरे पर्व स्थानीय, राष्ट्रीय और सामाजिक परंपराओं से प्रेरित हैं और उनकी कोई धाार्मिक पृष्ठभूमि नहीं है।
ईद-उल-जुहा का मतलब कुर्बानी की ईद है। इसे अक्सर बकरीद कहकर संबोधित किया जाता है जो गलत है। इसका इस्लामी नाम ईद-उल-जुहा है जो कुर्बानी को महत्व देता है। यह चंद्र कैलेंडर के अंतिम महीने में जिलहिज के 10वें दिन मनाया जाता है। इस दिन कुर्बानी के साथ सामूहिक प्रार्थनाएं की जाती हैं।
ये दोनों पर्व खुदा में यकीन रखने वालों को उनके दैवीय कार्यों की याद दिलाने के लिए मनाए जाते हैं। रमजान के महीने में धैर्य और सहिष्णुता व आत्मानुशासन की दिशा में एक तरह का प्रशिक्षण पाठयक्रम है जिसके आखिर में ईद-उल-फितर आता है। यह इस बात पर जोर देता है कि मुसलमानों के उपवास और निषेध के एक महीने के आहार-विधान को सफलतापूर्वक गुजार लिया है। ईद-उल-जुहा की भी ऐसी ही एक कहानी है। इसमें कुर्बानी के रूप में भक्तों के लिए सबक छिपा होता है कि उन्हें आत्म बलिदान के लिए तैयार रहना है। इसके बिना न तो जिंदगी की जिम्मेदारियां पूरी हो सकती हैं और न खुदा के चंद प्रिय लोगों मंें ही उसका शुमार हो सकता है।
ईद-उल-जुहा या ईद-ए-कुर्बानी हजरत इब्राहिम की जिंदगी का सबूत है और इस दिन को उनके ऐतिहासिक कार्यों के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। इस दिन का महत्व समझने के लिए हमें हजरत इब्राहिम के जीवन का गहन अध्ययन करना चाहिए।
हजरत इब्राहिम एक पैगंबर थे। वह लगभग चार हजार साल पहले इराक मंे पैदा हुए थे। उन्होंने लोगों को प्रेरित किया कि वे खुदा और इंसानियत का अनुसरण करें। लेकिन उनके भतीजे को छोडकर उनके उपदेशों को दूसरे लोगों पर असर नहीं पडा। आडम्बरी जीवन के प्रलोभन ने आम जनता की सहज जिंदगी को भोथरा बना दिया था। लोग अपने अंतःकरण में झांकने के बजाए बाह्य आडंबरों में ज्यादा दिलचस्पी लेते थे।
इसका मुकाबला करने के लिए हजरत ने एक नई प्रजाति तैयार करने की योजना बनाई। वह अपने बेटे को अरब के रेगिस्तान में ले गए और उसे वहां बसा दिया, जहां कोई आबादी नहीं थी। इब्राहिम और उनके बच्चों को केवल ऊबड-खावड मैदानों, पहाडों, रेत, सूर्य और चांद के बीच बहुत मुश्किल परिस्थितियों में रहना पडा। ऐसी परिस्थितियों में रहना फ्निषेधय् का ही एक रूप है। अपने बेटे को ऐसी क्रूर परिस्थितियों में बनु इस्माइल के रूप में एक नई पीढी ने जन्म लिया।
ये वही लोग थे, जिन्होंने बाद में पैगंबर मुहम्मद की नए धर्म के प्रसार में सहायता की। इस संयोग ने समानता और स्वतंत्राता के विचारों को जन्म दिया। स्वामी विवेकानंद ने इस बारे में लिखा है कि मेरा अनुभव यह है कि अगर किसी भी धर्म में समानता की बात कही है तो यह इस्लाम और सिर्फ इस्लाम ही है। समानता के मूलभूत सि(ांत का प्रसार इसी दल ने किया, जो अरब के रेगिस्तानों में पले-बढे थे और जिसे इस्लाम धर्म ने प्रारंभ से विकसित किया।
यह ईद इस तथ्य को रेखांकित करती है कि जीवन में कुर्बानी के बिना कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। एक प्रजाति के विकास, समाज में सुधार या किसी भी राष्ट्र के निर्माण के लिए कुर्बानी की ऐसी ही क्षमता की जरूरत है। किसी जानवर की कुर्बानी देना कुर्बानी का केवल एक सबक है। परिस्थिति विशेष में ही व्यक्तिगत कुर्बानी की जा सकती थी। लेकिन हमारे जीवन में कुर्बानी की पर्याप्त गुंजाइश हमेशा ही रहती है। कभी-कभी दूसरों की खातिर अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की भी कुर्बानी देनी पडती है।
ईद-उल-जुहा का पैगाम ’’कुर्बानी’’ के लिए मुस्तैद रहना है। जानवर की कुर्बानी की तरह हरेक को सभी की भलाई के लिए अपना सब कुछ त्यागने के लिए तत्पर रहना चाहिए। वास्तव में, पशु की कुर्बानी व्यक्तिगत कुर्बानी की एक दृढ प्रतिज्ञा है। और यह सर्वोच्च कुर्बानी तभी बन पाती है जब कोई इंसान इसे अपनी जिंदगी में कर पाने में कामयाब हो पाता है। 0 सैफ मलिक