‘मेरा ये कर दीजिये- मेरा वो कर दीजिये- अरे साहब सब चलता है-हुजूर आप क्या नहीं कर सकते कलेक्टर हैं। सारे जिले के मालिक-जिले की जमीन के अंदर $जमीन के ऊपर तथा $जमीन पर जितना भी है सब आपके अंडर में है।Ó
यह सब सुन-सुन कर मेरे कान पक गये- उन्हें कैसे समझायें कि ये सारे अधिकार कलेक्टर को इसलिये नहीं मिले हैं कि उसकी मर्जी ही कानून है, उसके मन मस्तिष्क को इतना अनुशासित माना गया है कि वह इन अधिकारों की जवाबदारी निभा लेगा। हम किसी को कोई अधिकार तभी देते हैं जब हम समझ लेते हैं कि इसमें उस अधिकार की जवाबदारी निभाने की ताकत है क्षमता है।
दफ्तर से आकर मैं चुपचाप अपने कमरे में लेटा था। विचारों का तूफान इस तरह तेजी से उमड़ घुमड़ रहा था कि एक बिन्दु पर ठहरने का अवकाश ही नहीं मिलता, सिगरेट जलाने तक की इच्छा नहीं हो रही थी।
चीफ सेके्रटरी का एक डीओ आया था लिखा था। मुख्यमंत्री जी जिले में बढ़ रहे असंतोष से चिंतित है। आप शांति व्यवस्था सुधारने का प्रयत्न करें।
जिला सुधार समिति की ओर से मुझे नोटिस दिया गया था कि अगर एक हफ्ते में बढ़ती कीमतें, मुनाफाखोरी तथा जमाखोरी के खिलाफ प्रभावशाली कदम नहीं उठाये गये तो जिला बंद की कार्यवाही की जायेगी। सारे प्रशासन को ठप्प कर दिया जायेगा।
जिला सुधार समिति का अध्यक्ष कोई सुधीर था- तीस-पैंतीस साल का युवक। उसका बाप जिले में दो-तीन वनस्पति घी की मिलों का डीलर था। किन्तु वह बाप से अलग रहता तथा एक होटल चलाता था।
होटल क्या थी जिले भर के बदमाशों का अड्ड़ा था। जिला मुख्यालय के बस स्टेण्ड के पास बनी इस होटल में जिला कार्यालय में काम करने वाले दलाल लोग इक_ïे होते थे।
चाहे कलेक्टरी में काम हो या शिक्षा विभाग में सहकारी बैंकों में ही या वन विभाग, पी.डब्ल्यू डी का ठेका लेना हो या शराब की दुकान का हर काम कराने वाला आदमी यहां मिल जाता था।
इसी होटल में ग्राहक पटाये जाते अफसर और बाबुओं की रिश्वत तय होती तथा यही चुकारा भी होता था।
नीचे चाय-नमकीन-मीठा तथा पक्के भोजन की व्यवस्था थी तथा ऊपर ठहरने के लिये तीन कमरे थे। इन कमरों में जुआ तो नियमित चलता ही था। ये कमरे अफसरों और बाबुओं का मन बहलाने के काम भी आते थे।
मेरे आने के पूर्व सुधीर सारे जिला-प्रशासन पर छाया हुआ था। वह हर अफसर का मुंह लगा था तथा अफसरों की हर वक्त हर किस्म की सेवा करने को तत्पर रहता था। अफसर द्वारा कहा गया छोटे से छोटा काम भी वह पूरी जवाबदारी से निभाता।
व्यवहार में शिष्टï बोलचाल में मीठा तथा देखने में आकर्षक व्यक्तित्व वाले इस युवक से पहली भेंट में मैं भी प्रभावित हुआ था, किन्तु मुझसे उसका मकसद छुपा नहीं रह सका दूसरी या तीसरी मुलाकात में ही उसने मुझसे एक क्लर्क के ट्रन्सफर की सिफारिश की।
पता लगाने पर मुझे ज्ञात हुआ कि वह क्लर्क न तो उसका रिश्तेदार था और न ही अन्य किसी प्रकार के घरेलू मामलों से संबंधित, वह उसका कलेक्टरी में काम निकालने वाला दलाल था।
मैंने उसकी सिफारिश नामंजूर कर दी तथा उसे लिफ्ट देना भी बंद कर दिया। उसने भी मेरे बंगले पर आना छोड़ दिया।
उसकी सारी कार्यवाहियों मेरे कड़े अनुशासन के कारण शिथिल पड़ गई थी। नेताओं को दलाली के जितने कम अवसर किये जा सकते थे मैंने करने की कोशिश की।
नियमों के जाल में काम की प्रक्रिया को कुछ इस प्रकार से कसा कि दलाली की गुंजाइश न रहे पर फिर भी लोग रास्ता तो निकाल ही लेते थे देने वाला ही जब मूर्ख हो तो लेने वाले को कहां तक रोका जा सकता है।
पर मेरी कठोरता का इतना असर जरूर पड़ा कि सुधीर की होटल की रौनक कम हो गई। वह मुझे रास्ते का कांटा समझने लगा।
जब उसने मेरे विरोध में जिला सुधार समिति की स्थापना की तो मेरे सारे विरोधी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके झंडे के नीचे इक_ïे हो गये और उसे हर तरह से सहयोग देने लगे।
उन सबका उद्देश्य था कि किसी प्रकार जिले में अशान्ति फैला दी जाये तथा मुझे अक्षम करार करा कर इस जिले से ट्रान्सफर करा दिया जाये।
अब मेरे सामने दो ही रास्ते थे या तो इन सफेद पोश बदमाशों से हाथ मिला लूं तथा जैसा चलता आ रहा है उसे चलने दूं जमके रिश्वते मिलेगी सारे जिले में स्वागत समारोहों की धूम मच जायेगी और कलेक्टर सा. जिन्दाबाद के गगन भेदी नारे लगने लगेंगे।
या चैलेंज के साथ इन बदमाशों का मुकाबला करूं- नियम और कायदे से चलूं-मैं जानता था कि इस काम में कई खतरे हैं- इन बदमाशों की राजनैतिक पकड़ भी गहरी है और बदमाशियों का तो कहना ही क्या है- कब क्या कर गुजर जायें- कहा नहीं जा सकता।
इतने खतरे उठाने पर भी मुझे मिलेगा क्या-प्रशंसा के दो शब्द भी नहीं। हां, कुछ गरीब और बेसहारा लोगों तक कानून की मदद पहुंचा सकता हूँ, उन्हें बिना शोषण के शासन के लाभ दिला सकता हूँ।
बहुत सोच विचार के मैंने दूसरा रास्ता ही अपनाया। मैंने उनका चैलेंज स्वीकार कर लिया जो होगा देखा जायेगा का सिद्घांत स्वीकार किया। अगर लोग बुराई में इतना साहस दिखाते हैं तो क्या मैं भलाई में नहीं दिखा सकता।
मैंने सुधीर को अशांति भंग के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। उसकी होटल पर निगरानी रखवा दी तथा पुलिस को निर्देश दिये कि प्रदर्शनकारियो से कड़ाई से निपटा जाये।
ठा. मानसिंह की अवैध भूमि का वितरण मैंने आदिवासियों में कर दिया तथा उमा के रिश्तेदार के अवैध निर्माण कार्य को गिराने के आदेश देकर मैं स्वयं जीप लेकर मौके पर पहुंचा।
पुलिस के संगीन के पहरे में मैंने उमा के रिश्तेदारों का मकान तुड़वा दिया।
राजधानी में मेरे खिलाफ तूफान उठ गया। दर्जनों राजनैतिक व्यक्ति मुख्यमंत्री पर दबाव देने पहुंचे कि मेरा तत्काल स्थानान्तरण किया जाये।
सुधीर का एक खास आदमी नोटों की गड्डिïयां लिये राजधानी में डेरा जमाये बैठा था। राजधानी के पत्रकारों द्वारा भी मेरे खिलाफ माहौल बनाने के सही-गलत प्रयास तेजी से चलाये जा रहे थे। सुधीर ने इसे अपनी प्रतिष्ठïा का प्रश्र बना लिया था। कस्बाई नेता की बुद्घि ही कितनी होती है। मेरे रहने या न रहने से उसकी प्रतिष्ठïा पर क्या आंच आने वाली थी। गलत काम का गलत नतीजा तो उसे कभी न कभी मिलना ही था। मेरे जिले से चले जाने के बाद हो सकता है नया आने वाला उसके प्रति कुछ शिथिल हो जाये-पर ऐसा कब तक चलेगा। अगर जिन्दगी में हमेशा बुराई की जीत होने लगती- तो मानव का काला पक्ष इतना खतरनाक है कि आदमी-आदमी को कच्चा खाने लगता। इसलिये तो कहा गया है कि अंतिम जीत सत्य की ही होती है- चाहे इसमें समय कितना ही लग जाये। सच्चाई का रास्ता ही सही रास्ता है।
उसी फलसफे को लेकर में शुरू से ही चल रहा था तथा संघर्ष की इस चरम सीमा पर भी मैं इन विचारों पर दृढ़ था कि चाहे कुछ भी हो जाये मैं गलत कामों से समझौता नहीं करूंगा।
अचानक एक दिन मुझे आदेश मिला कि मैं तत्काल अपना प्रभार अपने वरिष्ठï मातहत को सौंप कर एक नये जिले में पद्ïभार ग्रहण करूं।
मैंने उसे पढ़ा और घर पर टेलीफोन करने के पहले ही एडीएम को बुलाकर चार्ज लेने का आदेश दिया।
‘सर कुछ रूक लेते एडीएम ने कहाÓ
‘नहीं ब्रदरÓ नौकरी चाहे छोटी हो या बड़ी उस में अनुशासन का बड़ा महत्व होता है- और इसमें नौकर की अपनी कोई निजी प्रतिष्ठïा नहीं होती, पद की प्रतिष्ठïा और गरिमा ही उसकी अपनी प्रतिष्ठïा होती है। मैं रूकता हूँ -या आदेश बदलवाने की कोशिश करता हूँ इससे मुझे मिलेगा क्या। आज नहीं तो कल इस जिले से जाना ही होगा- क्या पता आज जाने के पीछे क्या अच्छाई छुपी हो।