चौथी कड़ी
सितम्बर का आखिरी सप्ताह था, बरसात खत्म हो चली थी तथा सूरज में काफी गर्मी आ गई थी। दिन में तेज धूप रहती, मच्छरों के प्रकोप के कारण चारों तरफ बुखार और मलेरिया फैला था। स्वास्यि विभाग ने डीडीटी के छिड़काव का कार्यक्रम सघन कर दिया था फिर भी मच्छरों पर काबू नहीं पाया जा रहा था। लगता था अब मच्छड़ भी डीडीटी के आदी हो गये हैं।
शाम होते ही मच्छड़ भिनभिनाने लगते। राज में वल्ब जलाते ही उनके आसपास सैकड़ों लाखों की संख्या में छोटे बड़े नाना तरह के कीड़े आ जाते, रात का खाना खाना मुश्किल था।
मेरे बंगले में चारों तरफ खूब डीडीटी छिड़का गया किन्तु मच्छड़ कम नहीं हुए। शीला नियमित रूप से बच्चों को मच्छड़ों से बचाव के लिये लोशन लगाती थी।
मेरा बड़ा लड़का पप्पू सातवीं कक्षा में पढ़ता था। पूरी सावधानी रखी जा रही थी कि कहीं उसे मलेरिया न हो, पर बच्चे तो बच्चे हैं स्कूल जायेंगे खेलेंगे कूदेंगे दूसरे लोगों के साथ उठेंगे बैठेंगे। न जाने कहा क्या हुआ कि एक दिन पप्पू स्कूल से लौटा तो उसका सिर तपने लगा था। घर आते ही उसने अपनी मॉ को बताया, उसको ठंड लग रही है और वह कांपने लगा। शीला ने उसे रजाई ओढ़ाकर लिटा दिया तथा अस्पताल फोन करके डॉक्टर को खबर दी।
सिविल सर्जन मेरे पूर्व परिचित थे। वे कभी मेरे गांव के पास के शहर में डॉक्टर रहे थे इसलिये मेरे परिवार से भी परिचित थे व मुझे अपने लड़के के समान मानते थे। फोन मिलते ही वे खुद मेरे बंगले पर आये और पप्पू को देखा-
‘कुछ नहीं हैÓ उन्होंने शीला से कहा-मलेरिया का अटैक है दो तीन दिन में ठीक हो जायेगा। उन्होंने परचा लिख दिया तथा उसी समय खाने को कुछ गोलियां दीं।
शाम को दफ्तर से लौटा तो शीला ने सब बताया। मैंने पप्पू के पास जाकर उसका माथा छुआ तो वह गरम तवे के समान तप रहा था। थर्मामीटर लगाकर देखा तो बुखार 102 के करीब पहुंच गया था। घबराहट तो मुझे भी हुई किन्तु मैंने संयत होते हुए कहा- ‘चिन्ता की कोई बात नहीं यह बुखार ऐसे ही तेज आता है। सिविल सर्जन सा. ने दवा दे दी है। अभी उतर जायेगा और तब मैं तो उठकर अपने स्टडी रूप में चला आया किन्तु शीला वही पप्पू के पास बैठी रही।Ó
रात दस बजे तक भी पप्पू की तबियत में कुछ सुधार नहीं हुआ। उल्टे उसकी तबियत घबड़ाने लगी। बुखार की गर्मी में वह उल्टा सीधा बोलने लगा कभी वह रोता कभी कराहता।
मैं भी स्टडीरूम से उठकर उसके पास पहुंच गया। पप्पू की आंखें खूब लाल हो गई थीं। मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा- ‘बेटा घबराओ नहीं बुखार है- अभी उतर जायेगाÓ। सिविल सर्जन सा. ने तीमार दारी के लिये एक नर्स को भी भेज दिया था। वह गीले कपड़े की पट्टïी पप्पू के माथे पर रख कर बुखार की तेजी कम करने का प्रयास कर रही थी। मैं वही डली आराम कुर्सी पर बैठ गया। शीला भी पप्पू के पलंग पर उदास बैठी रही वह सारी रात आंखों में ही कटी। बीच-बीच में जब पप्पू की झपकी लगती तो जरा चैन मिलता किन्तु जैसे ही वह कराहने लगता हम पति-पत्नी चिन्ता में पड़ जाते। उस रात हम लोगों से खाना भी नहीं खाया गया। पंडित ने पूछा भी तो कह दिया भूख नहीं है। रात में एक दो बार चाय ही पी।
सुबह पांच छै: बजे पप्पू का बुखार फिर तेजी से बढऩे लगा, उसकी घबड़ाहट रूक ही नहीं रही थी। शीला तो बच्चे की ये दशा देख कर लगभग रोने सी लगी। मैं भी अपने आंसुओं का बांध भीतर बांधे रखने की भरपूर कोशिश कर रहा था कि तभी नर्स ने कहा, सर! सीएससा. को फोन कर दें- मेरी समझ से पप्पू को अब अस्पताल में भरती करवा देना चाहिये।
मैंने फोन लगाया तो उस समय सिविल सर्जन सा. बिस्तर पर ही उन्होंने बड़े प्यार से कहा- ‘बेटे घबड़ाओ नहीं फ्लू है इस में यही होता है, आता हूं और कुछ ही समय में सिविल सर्जन सा. मेरे बंगले पर आ गया उन्होंने पप्पू को कोई इन्जेक्षन दिया, फिर कहा-कि इसे अस्पताल में भरती किये लेते हैं- वहां डॉक्टरों की देखभाल ठीक से हो जायेगी। शीला भी पप्पू के साथ अस्पताल चली गई, सुबह दस बजे के करीब शीला ने खबर दी कि अब पप्पू का बुखार कम होने लगा है।Ó
मेरा दफ्तर का समय हो रहा था। मैं चटपट तैयार होकर अस्पताल पप्पू को देखते हुए दफ्तर चला आया। दफ्तर में जाते साथ ही मुझे खबर मिली कि जिले के एक गांव में कुंये से पानी भरने के सवाल को लेकर दलितों-सवर्णों में तनाव उत्पन्न हो गया है तथा स्थिति नियंत्रण के बाहर होती जा रही है।
मैंने एसपीसा. को सुरक्षा के आवश्यक प्रबंध के साथ गांव पहुंचने के निर्देश दिये। और मैं सोचने लगा दलित-सवर्णों के तनाव का ऐसा नाजुक मामला होता है कि छोटी सी घटना कभी-कभी बड़ा रूप धारण कर लेती है। मुझे लगा कि मुझे स्यवं ही मौके पर पहुंच कर स्थिति संभालना चाहिये।
मैं जीप उठाकर अस्पताल पहुंचा। शीला पप्पू के पास थी, बुखार कम हो जाने के कारण पप्पू की आख लग गई थी। मैंने पूछा- अब क्या हाल है।
अभी तो ठीक है डॉक्टर सा. आये थे कह रहे थे फिलहाल तो बुखार कन्ट्रोल में हो गया किन्तु तीन चार बजे के करीब फिर बढ़ेगा। अगर उस समय नहीं बढ़ा तो समझिये सब ठीक है।
मुझे अभी बाहर जाना है एक गांव में दलित सवर्णों में तनाव उत्पन्न हो गया है। मैंने शीला को बताया।
अभी आप एडीएम को क्यों नहीं भेज देते वह बोली पप्पू बीमार है। मैं अकेली हूँ। अगर फिर उसका बुखार बढ़ा तो मैं बहुत िघबड़ा जाऊंगी। आप पास रहते हैं तो धीरज बना रहता है।
वह ठीक है- मैंने कहा पर मैें सोचता हूँ- मेरे पहुंचने की बात कुछ और ही होगी वैसे एडीएम भी बहुत कुशल है। पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि मुझे ही पहुंचना चाहिये।
तो आप सिविल सर्जन से पूछ लीजिये शीला ने उदास होते हुए कहा- मैं उसकी मनोभावना समझ गयसा मैंने कहा-शीला उदास नहीं होते भगवान सब जगह होते हैं। जब हमने जीवन में किसी का अहित नहीं किया तो ईश्वर की कृपा से अपना भी कोई अहित नहीं होगा, फिर दुख बीमारी तो हर घर परिवार में चलती ही रहती है।
जैसी आपकी इच्छा शीला ने कहा- पर जल्दी लौट आईयेगा,
मैं सिविल सर्जन से मिलकर उस गांव पहुंच गया।
वहां की हालत बड़ी ना$जुक थी। पचास साठ घरों वाले उस गांव में पीने के पानी का केवल एक ही कुआं था जिससे सवर्ण तो पानी भरते थे किन्तु गांव के दलितों को पीने का पानी गांव से लगभग डेढ़ मील दूर गहने वाली नदी से लाना पड़ता था। यह परम्परा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही थी।
पर अब दलितों में भी जागृति आ गई थी उन्हें सरकार की नीति की जानकारी भी थी कि अब वे सभी सार्वजनिक स्थानों का उपयोग सभी लोगों के समान कर सकते हैं, उनके साथ कोई भेद-भाव नहीं होगा। इसलिये नयी पीढ़ी के दलित उसी कुयें से पानी भरने के लिये जिदकर रहे थे और पुरानी पीढ़ी के सवर्ण उन्हें तैयार बैठे थे। उन्होंने चार पांच लठैतों को कुएं पर तैनात भी कर दिया था कि अगर कोई दलित कुएं पर आये तो उसके हाथ पैर तोड़ दो।
मुझे लगा कि अगर समझौता नहीं कराया गया तो अशांति फैलने की पूरी-पूरी संभावना है। मैंने गांव के सरपंच को बुलाया साथ ही दलितों के चौधरी को।
दोनों कुछ ही क्षणों में मेरे पास आ गये। उनके साथ उनके कुछ समर्थक भी आये थे। मैंने केवल एक बात पूछी की जिस नदी से ये दलित पानी लाते हैं उससे नदी का पानी जिस भी गांव वाले ने आज तक न पिया ही वह खड़ा हो जाये।
गांव में ऐसा कोई नहीं निकला सभी के खेत नदी के इस पार उस पार थे खेतों की जुताई बुआई कटाई आदि के समय जब वे खेतों में काम करते तो उसी नदी से पीने का पानी बुलाते थे। ये बात दूसरी थी कि उनके तथा दलितों के घाट अलग-अलग थे।
जब एक ग्रामीण ने कहा कि हम अपने घाट से पानी लाते हैं। तो मैंने कहा पर पानी को एक ही रहता है ऐसा तो नहीं है कि तुम्हारे घाट का पानी अलग हो और दलितों के घाट पानी अलग, मेरे तर्क के सामने सब निरूत्तर थे इसका कोई उत्तर भी नहीं था।
मैंने आगे कहा कि यही बात कुएं की है। जब आप लोग दलितों का छुआ नदी का पानी पी सकते हैं तो कुएं के पानी में छुआछूत कैसी, हॉ जहां सफाई का प्रश्र है वहां यह बात केवल दलितों के लिये नहीं सवर्णों के लिये भी है कि वे गंदे बर्तनों से कुंये से पानी न निकाले और न ही कुएं के आसपास गंदगी फैलाये।
मेरी बात से सब सहमत हो गये। मैंने गांव की एक दलित महिला से कहा कि वह मेरे सामने कुएं से पानी भरे प्यास लगी है, मैं वह पानी पीना चाहता हूँ।
अंधा क्या चाहे दो आंखें एक दलित महिला झट पट तैयार हो गई उसने अपने पीतल के बर्तन को मांज कर खूब चम चमाया तथा। कुएं से पानी भर कर ले आई।
मैंने वह पानी पिया। मुझे पानी पीते देखकर सरपंच तथा अन्य लोगों ने भी वह पानी पी लिया।
जब स्थिति शांत कराके मैं वापस लौट रहा था तो एक सत्तर अस्सी साल की दलित बुढिय़ा लाठी टेकते हुए मेरे पास आई और बोली हुजूर आपने हम लोगों की बड़ी परेशानी दूर कर दी। हमारी आधी सी जिन्दगी तो नदी से पानी लाने में ही बीती-अब कम से कम बहूबेटियां इसी कुएं से पानी भरेगी तो घर के काम काज के लिये उनहें समय तो मिलेगा, भगवान इस पुण्याई का फल आपको देगा बाल बच्चे खुश रहेंगे।
जब मैं गांव से वापिस लौटा शाम के पांव बज गये थे सीधा अस्पताल पहुंचा देखा पप्पूराजा अपने बिस्तर पर बैठे मौसम्बी छील-छील कर खा रहे थे।
‘मम्मी- पापा आ गयेÓ उसने मुझे देखते ही कहा, शीला वही पलंग के बाजू में कुर्सी पर बैठी किसी पत्रिका के पन्ने पलट रही थी।
उसने न$जर उठाई तथा खड़े होते हुए कहा- आप आ गये, भगवान की कृपा है, तीन बजे से पप्पू का बुखार नहीं बढ़ा। सीएससा भी आये थे। कह रहे थे- अब चिन्ता की कोई बात नहीं दो-तीन दिन में पप्पू बिल्कुल ठीक हो जायेगा। बड़ी अच्छी दवाईयां दे दी है।
‘सब भगवान की कृपा रही मैं भी बहुत लोगों की दुआयें लेकर लौटा हूँÓ मैंने मुस्कराते हुए कहा और शीला को गांव की सारी घटना सुना दी।