देश की पहली महिला ट्रेन ड्राइवर

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लोकल गाडिय़ां मुंबई शहर की सांसेï, नब्ज समझती जाती हैïं। इस शहर को एक कोने से दूसरे कोने तक जोडऩे मेंï 12 कम्पार्टमेंïट वाली लोकल मेïं क्षमता से चार-पाँच गुना ज्यादा लोग चलते हैïं, यानी सुरेखा 20 से 25 हजार लोगोïं को लेकर लोकल ट्रेन चलाती हैïं।
शादी से पहले सुरेखा यादव थीं सुरेखा रामचंद्र भोïंसले। महाराष्टï्र के सातारा जिले मेï एक मध्यमवर्गीय परिवार मेïं उनका जन्म हुआ, माता गृहणी और पिता किसान थे। उनके परिवार मेंï सुरेखा के अलावा एक बहन और दो भाई हैंï। सातारा जैसे जिले मेï ंरहकर भी उनके पिता रामचंद्र भोंसले ने अपने चारोंï बच्चोï को कॉन्वेन्ट स्कूल मेïं पढ़ाया। सुरेखा पढऩे मेंï अच्छी थी, उसकी मैकेनिकल-टेक्निकल चीजोंï की रिपेयरिंग की दिलचस्पी को देखते हुए उनके पिता ने उन्हेंï कराड़ के गर्वन्टमेïट पॉलीटेक्निक कॉलेज पढऩे भेजा। 1986 मेंï सुरेखा ने इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग मेंï डिप्लोमा किया। सुरेखा कहती हैï जिन दिनोïं मैंïने इंजीनियरिंग मेंï प्रवेश लिया उन दिनोïं बैच मेंï मेरे अलावा कोई दूसरी लड़की नहीïं थी।
सुरेखा का कहना है कि आज वह देश की एकमात्र महिला ट्रेन ड्राईवर हैïं इसका श्रेय मेरे माता-पिता को है। मेरे माता पिता ने लड़के-लड़की मेïं कभी अंतर नहींï समझा। स्वयं की जरूरतोïं को अनदेखा कर अपने बच्चोंï की शिक्षा, उनकी महत्वाकांक्षा और ख्वाबोïं को पूरा करने मेïं जीवन बिताया। सुरेखा उन्हेïं सही मायने मेïं ‘एडवान्सड्Ó मानती हैï।
सुरेखा कहती हैï मैïंने रेलवे बोर्ड मेïं असिस्टेïंट ड्राइवर के लिए आवेदन किया, अप्रैल 1987 मेंï लिखित परीक्षा दी, उसमेंï उत्तीर्ण होने पर इंटरव्यू के बाद 1989 मेंï मेडिकल टेस्ट मेंï भी अव्वल आयी। वह कहती हैïं कि मुझे फरवरी 1989 मेंï भारतीय रेलवे मेïं नौकरी मिली, मैïंने ढेरोïं मर्दों के बीच मेरिट के बल पर यहां तक का सफर पार किया। सुरेखा कहती हैï प्रशिक्षण काल कठिनाइयोïं भरा था, इंजन चलाना, इनके पुर्जों की जानकारी, मरम्मत, सिग्नल नियंत्रण आदि जानना आसान न था। कड़ी परीक्षाओïं मेंï आगे बढ़ते हुए मालगाड़ी मेंï बतौर असिस्टेïंट ड्राइवर का मौका मिला। मालगाड़ी से लोकल ट्रेन की मुख्य ड्राइवर बनना किसी चुनौती से कम न था, इसमेï दो साल का वक्त लगा। पिछले 12 सालोंï से सुरेखा को सी एस टी से बदलापुर या सी एस टी से घाटकोपर दो चक्कर लगाने पड़ते हैï। सात घंटे की ड्यूटी मेंï लापरवाही की जरा भी गुंजाइश नहीïं, क्योïंकि हजारोंï लोगोïं की जिंदगी का दारोमदार होता है। स्त्री होने के नाते काम मेंï उन्हेंï कोई रियायत नहींï मिलती, न उन्होïंने इस तरह की उम्मीद रखी।
सुरेखा कहती हैï लोकल गाडिय़ां भी लेट हो जाती हैंï, कई बार विलंब की वजह तकनीकी दोष होता है। ऐसे मौकोंï पर भीड़ बेकाबू हो जाती है, लोग चालक पर पथराव व हमला तक कर देते हैंï। स्त्री होने के नाते लोग मुझ पर पत्थरबाजी करने के बजाय सम्मान की नजर से देखते हैï। सिग्नल न मिलने पर सुनसान स्थानोïं पर ट्रेन रोकनी पड़ती है, ऐसी स्थिति मेंï केबिन मेïं अकेली सुरेखा सुरक्षा की दृष्टिï से दरवाजे बंद कर लेती हैïं, पर डरना उन्होïंने कभी नहींï सीखा। उनका कहना है कि अन्य शहरोïं के मुकाबले मुंबई स्त्रियोंï के लिए सबसे सुरक्षित शहर है।
सुरेखा ने बताया कि 1990 मेंï शंकर यादव से मेरी शादी हुई, मेरे पति पुलिस मेंï हैï। मेरे दो बेटे हैïं अजिंक्य और अजिनेश (9)। जब नाइट शिफ्ट रहती थी उस वक्त बेटे की देखभाल करना मुश्किल था, इस वजह से मुझे एक बेटे को अपनी माँ के पास रखना पड़ा। किचेन और घर के काम मेïं पति ने हमेशा सपोर्ट किया इसीलिए यह तनाव भरा काम मंैï हँसते-हँसते निभा रही हूँ।
सुरेखा कहती हैï कि 20 अप्रैल 2000 को सी एस टी से कल्याण लेडीज स्पेशल ट्रेन चलायी, वह दिन मैंï कभी नहीïं भूल सकती। तमाम महिलाओïं ने फूलोïं के हार पहनाकर सम्मान किया और मिठाई बाँटी। सुरेखा का कहना है कि मुझे सहकर्मियोïं व अधिकारियोंï से पूर्ण सहयोग मिलता है। सुरेखा नहींï मानतीं कि वह कुछ अलग काम कर रही हैïं। वह अपना काम पूरी निष्ठïा से करना जानती हैïं शायद इसीलिए कामयाब हैï। – रईसा मलिक