नवाब अली बहादुर सानी ‘नवाब बांदा

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पांचवी किश्त:-
सर ह्यïूज कौंच से रवाना होकर 9 मई को कालपी की तरफ जो 42 मील दूर जमना नदी के किनारे दाहिने जानिब वाक्ये है, रवाना हुआ। उसने फौज को 2 हिस्सों में तकसीम किया, एक हिस्सा फौज को जिसमें सवार फौज और तोपखाना शामिल था, खुद अपने जैरे कमान लेकर रवाना हुआ। 15 मई 58 ई. को गलौली के मुकाम पर जो कालपी से 6 मील के फासले पर है, पूरब जानिब अपने डेरे डाला दिये। 17 मई को अंग्रेजी फौज का दूसरा ब्रिगेड जब कालपी के करीब पहुंचा, इंकेलाबियासें से मुठभेड़ हुई। इंकेलाबियों की हार हुई। 20 मई को इंकेलाबियों की बड़ी जमात के साथ अंग्रेजी फौज को घेरे में लेना चाहा, लेकिन उसी वक्त सिख रेजिमेंट 88 नम्बर की दो कम्पनियां और राजपूताना ब्रिगेड के शूटर सवारों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर भारी गोलीबारी की, यहां भी वतन परस्तों की हार हुई। सिख फौज और शूटर सवार राजपूतों ने वतन परस्तों पर इतनी गोलीबारी की कि हजारों जांबाजों ने जंगलों में दम तोड़ दिया। रानी झांसी, राव साहब नवाब अली बहादुर सानी ने भी यहां से बचकर बचे हुए फौजियों को साथ लेकर ग्वालियर की तरफ रूख किया। तात्या टोपे, कालपी की जंग में शामिल नहीं थे, इन्होंने चरखी से रवाना होने मुरारा छावनी और ग्वालियर पहुंच कर महाराज सिंधिया की 10 हजार फौज में वतन परस्ती और नाना साहब के पेशवा होने और मराठा सल्तनत कायम करने की रूह फूंकी। वतन परस्तों की फौज में इस वक्त 4 हजार घुड़सवार, 7 हजार पैदल सिपाही थे। वतन परस्तों की फौज भी अपने सरदारों के साथ सिंधिया के खिलाफ लडऩे को तैयार हो गये। दूसरी जानिब सिंधिया की फौज के सिपाही तोपें छोड़कर अलग हो गए, सिंधिया हालत को बिगड़ते देखकर अपने वजीर दिनकर के साथ धौलपुर होता हुआ आगरा की ओर भाग निकला। बैजाबाई समेत उसकी रानियों ने नरवर के किले में पनाह ली। इंकेलाबियों के सरदारों ने बढ़कर ग्वालियर के शहर और किले पर कब्जा कर लिया। शहर के लोगों ने इंकेलाबियों का जोरदार खैर मखदम किया। शहर में पूरी तरह अमनो अमान बरकरार रहा। सिंधियसा के खजाने से फौजियों को तीन माह की तंख्वाह अदा कर दी गई। और दो माह की तंख्वाह पेशगी दे दी गई। रानी झांसी और नवाब अली बहादुर को भी अपने और अपने फौजियों के रखरखाव के लिये रूपया दिया गया। रानी झांसी को 20,000 रूपया, नवाब सा. को 60 हजार रूपया, राव सा. ने अपने लिये सोने की 15 हजार मोहरें रख लीं औरराव साहब रंगरलियों में डूब गये। अंग्रेज फौज कूच करती हुई 17 जून 1858 की सुबह ग्वालियर की तरफ बढ़ी, इधर रानी झांसी और नवाब अली बहादुर भी अपनी फौजें लिये हुए ग्वालियर के रास्ते में रूकावटें खड़ी किये थे। अंग्रेज की फौज के एक हिस्से ने तोपों के गोले दा$गना शुरू किये, जबरदस्त गोला बाकी के बीच फौज के सीधे हाथ वाले हिस्से पर हमला बोल दिया, रानी झांसी और नवाब अली बहादुर इसी तरफ की कमान संभाले हुए थे, वह भी $िजन्दगी की आस छोड़कर दुश्मनों पर पिल पड़े जबरदस्त मार काट होने लगी, रानी अपने घोड़े की लगाम दांतों में दबाकर अंग्रेज फौज का मुकाबला दोनों हाथों में तलवार लेकर करती रहीं, इंकेलाबी सिपाहियों के पैर उखडऩे लगे, ऐसी हालत में रानी झांसी और नवाब साहब ने अपने सिपाहियों को रोकने की कोशिश भी की। सोनरेखा नाले पर रानी का घोड़ा अड़ गया और रानी के बगल में एक गोली लगी। रानी निढ़ाल होकर घोड़े पर गिरने लगी तो एक अंग्रेज सिपाही ने तलवार का वार रानी पर किया। रानी का सिर दायीं ओर से आंख तक चिर गया। रानी ने गिरते-गिरते उस अंग्रेज के कंधे पर तलवार का वार कर दिया और रानी के जांनिसार सरदार गुल मोहम्मद खां ने उस अंग्रेज को खत्म कर दिया। रानी को मौत के बाद बाबा गंगादास की कुटियास में लाकर घास के ढेर में रखकर आग लगा दी गई। रानी इस वक्त मर्दाना भेष में थी। रानी झांसी लक्ष्मीबाई 17 जून 1858 ई. को खत्म हुई। भवानी सिंह का यह कहना कि रानी लक्ष्मीबाई की मौत 17 जून को हुई और नवाब अली बहादुर सानी इस आखिरी जंग में रानी झांसी के साथ अंग्रेजों से लड़ते रहे।
तात्या टोपे, राव साहब, नवाब अली बहादुर अपनी बची खुची फौज के साथ जावरा, अलीराजपुर की ओर बच निकले। अंग्रेज फौज के यहां पहुंचने पर तीनों सरदार नर्मदा पार करके जयपुर की ओर रवाना हो गये। अंग्रेजों की डर की वजह से इन सरफरोश सरदराों को राजे महाराजे भी अपने इलाके में नहीं रहने दे रहे थे, यह तीनों जयपुर से टोंक, बूंदी, मेवाड़, भीलवाड़ा, कॉकरोली, झालरापाटन वगैरह से होकर सितम्बर माह के दरम्यसान ब्यावरा के पास आ पहुंचे, यहां 15 सितम्बर को अचानक इन पर छापा मार दिया लेकिन यह फिर भी बच निकले। चंदेरी, तालबेहट, ललितपुर, जाखलौन वगैरह इनकी सरगर्मी के मरकज बन गये, जनरल माइकल ब्यावरा से इनका पीछा करते 10 अक्टूबर को मुंगावली में हमला कर दिया। यह लोग हारे तो लेकिन फिर यहां से निकल जाने में कामयाब हो गये, यह लोग नर्मदा पार करके बड़ौदा के मराठा हुकूमत में पनाह पा सकने की कोशिश में उस तरफ बढ़ें, वहां पहुंचने से पहले ही बड़ौदा से 50 मील पहले छोटा उदयपुर में अंग्रेज अफसर पार्क ने इन्हें पीछे खदेड़ दिया। यहां से निकलकर राव साहिब तात्या टोपे नवाब अली बहादुर बांसवाड़ा की राजपूत रियासत में दाखिल हुए यह सब अक्टूबर की आखिर व नवम्बर के शुरू में जब यह बांसवाड़ा में ही थे, तभी गर्वनर जनरल लार्ड केनिंग इलाहाबाद के एक दरबारी तकरीब में एक नवम्बर 1858 को मलका ए विक्टोरिया का वह फरमान जारी किया जिसमें हिन्दोस्तानी राजे, रजवाड़े, नव्वाबीन को यकीन दहानी करायी गई थी कि उनसे हुए पहले समझौतों की शर्तों को मान लेने से
मलिका ए विक्टोरिया के इस एलाने आम के बाद अच्छा माहौल बनने लगा। बुंदेलखण्ड की बागियांना सरगर्मियों में पहले ही ठहराव आ चला था, इसी बीच बानपुर के राजा मर्दनसिंह और शाहगढ़ के राजा बख्तबली अंग्रेजों के सामने अपने आपको आगरा में पेश कर चुके थे, बुंदेलखण्ड के खास बागियों, इंकेलाबियों के इस बिखराव की कश्मकश नवाब अली बहादुर सानी पर भी होने लगी। खासकर राजा मर्दन सिह और राजा बख्तबली से अंग्रेजी सरकार जिस तरह उनके अंग्रेज पनाह गुजीनों से अच्छा बर्ताव के लिये नर्मी बरती।
नवाब साहब ग्वालियर की जंग के बाद 6 महीने की भाग-दौड़ से भी उकता चुके थे। आखिरकार सिरोंज से नवाब साहब ने अपने दो मुंशियों को खरीता देकर सेण्ट्रल इण्डिया के गर्वनर जनरल के एजेण्ट सर राबज़्ट हेमिल्टन के पास भेजा। जब इस खत का जवाब नवाब साहब को नहीं मिला तो एक खत भोग बाबू नामी मुंशी के हाथ 2 नवम्बर 1858 को लेफ्टिनेट कर को भेजा। लेफ्टिनेंट कर ने यह खत सेण्ट्रल इण्डिया के ऐजेंट हेमिल्टन को भेज दिया और उसने यह खत गर्वनर जनरल के सेकेट्री एडमस्टन 5 नवम्बर 1858 को भेज दिया। लफ्टिनेट कर ने नवाब साहब के खत के जवाब मे लिखा कि वो खुद तो नवाब सा. को माफ करने का कोई भरोसा तो नहीं दिला सकता, लेकिन अगर यह साबित हो गया कि नवाब सा. ने मजबूरी की हालत में बागियों का साथ दिया तो शायद नवाब सा. की जानबक्शी की जाकर आजाद कर दिया जाएगा। इसी खत में लेफ्टिनेट कर ने नवाब सा. को यह सलाह दी कि जब वह बागियों का साथ छोड़े तो सफेद झण्डा फहराकर छावनी चले आये।
नवाब अली बहादुर सानी 14 नवम्बर 1858 को मालवा डिवीजन के सिपाहसलार मेजर जनरल मिशेल की छावनी में तश्रीफ लाए यहां से नवाब सा. को फौज की टुकड़ी की देखरेख में अपने खानदान के लोगों, रिश्तेदारों, मुलाजिमों और माल व दौलत के साथ महूं रवाना कर दिया गया। जहां नवाब अली बहादुर सानी मय खानदान के 1 दिसम्बर 1858 ई. को पहुंंचे। नवाब सा. अली बहादुर सानी को 3 हजार रूपया महाना पेंशन मुकर्रर कर दी गई। नवाब सा. दिसम्बर 1858 तक महूं में रहे आपके कहने पर नवाब अली बहादुर सानी के कहने पर नवाब सा. को इंदौर रेसिडेंसी इलाकें में बसा दिया। यहां भी अंग्रेज सरकार का शिकंजा ढीला नहीं पड़ा, नवाब सा. को बगैर इजाजत रेजीड़ेंसी इलाके से बाहर जाना भी मना था। इनके खानदान के लोग बांदा जाने को तरसते रहे लेकिन उनको बांदा जाने की इजाजत कभी नहीं मिली। नवाब अली बहादुर सानी की सेहत खराब होती गई। इलाज के लिये बनारस भी गये लेकिन मर्ज बढ़ता गया जूं-जूं दवा की इलाज से कोई फायदा नही हुआ आखिरे कार 27 अगस्त 1873 ई. मुताबिक 1290 हि. बमकाम बनारस सिर्फ 38 साल की उम्र में इस मुजाहिदे आजादी का इंतेकाल हुआ। आपको बनारस में ही दरिया ए गंगा के किनारा फातेमीन में दफनाया गया। आपके वारिसीन और अहले खानदान इस वक्त शहर इंदौर के स्कीम नं. 54, श्रीनगर एक्सटेंशन, इंदौर, बांदा कम्पाऊंड सीहोर और भोपाल में रहकर मुजाहिदे जंगे आजादी की यादों को अपने सीनों से लगाये हुए मुल्क की तरक्की में हिस्सेदारी अदा कर रहे हैं।