नवाब गौहर बेगम का जन्म 1801 ईसवी में हुआ। इनके पिता ने कुदसिया बेगम का खिताब दिया। नवाब नजर मोहम्मद से सिर्फ एक साहबजादी सिकंदर जहां बेगम पैदा हुईं थीं। उसी समय इनके पति का देहांत हो गया। उस समय अमीर मोहम्मद खान रियासत के दावेदार बन कर खडे हो गए। वो अपने आपको रियासत का दावेदार समझते थे। उन्होंने पाॅलीटिक्ल एजेंट आदि को दावेदारी के संबंध में लिखा-पढी शुरू की। परंतु इंकार हो जाने के कारण चुप होकर बैठ गये।
नवाब कुदसिया बेगम को हुकूमत के अधिकार दे दिये गये। परंतु अपने पिता अमीर मोहम्मद खान और पाॅलीटिकल एजेंट के इशारे पर मुनीर मोहम्मद खान ने रियासत के कामकाज में दखल अंदाजी शुरू कर दी। इसके पश्चात अपने गलत सलाहकारों के कारण मुनीर मोहम्मद खान ने खून खराबे का मन बना लिया और रायसेन के किले पर कब्जा कर लिया और भोपाल की नाकेबंदी कर दी। जब शहजाद मसीह को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने मुनीर मोहम्मद खान को दीवानखाने में नजरबंद कर दिया और उनके सलाहकारों की नाकेबंदी कर दी। चार-पांच दिन तक जब उनको रसद नहीं मिली तो कुदसिया बेगम के आगे खुद को सुपुर्द कर दिया। और बेगम साहिबा से माफी की दरख्वास्त की।
बेगम साहिबा ने 40 हजार की जागीर देते हुए रियासत पर दावेदारी खत्म करने के संबंध में एक कागज पर हस्ताक्षर करवा लिये। इसके पश्चात मुनीर मोहम्मद खान के पिता अमीर मोहम्मद खान पहले सिरोंज फिर टोंक चले गये। इसके पश्चात पाॅलिटिक्ल एजेंट ने इनके दूसरे बेटे जहांगीर मोहम्मद खान से रिश्ता करने का सुझाव दिया और कहाकि 22 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर वो नवाब हो जायेंगेे। उस वक्त उनकी उम्र 8-9 वर्ष की थी। इस मंगनी की मंजूरी पाॅलीटिकल एजेंट के द्वारा गर्वनर जनरल से करा ली गई।
जहांगीर मोहम्मद खान से सिकंदर जहां का रिश्ता तय हो जाने के बाद इनकी शिक्षा की व्यवस्था की गई। यह जिम्मेदारी मौलवी अब्दुल कादिर और मुल्ला शहाबउद्दीन के हाथों सौंपी गई। लेकिन इनकी तरबियत इनके पिता अमीर मोहम्मद खान और इनके मामू असद अली खान के द्वारा हुई। इस बीच पाॅलीटिकल एजेंट को भी इन लोगों ने अपने साथ मिला लिया था। अतः 13 वर्ष की आयु तक पहुंचने के बाद जहांगीर मोहम्मद खान ने रियासत पर अपना दावा पेश कर दिया।
इसी बीच लार्ड विलियम बेन्टिक सागर आए तो बेगम साहिबा ने मदारूल मुहाम करम मोहम्मद और दीवान खुशबख्त राय को उनके साथ लार्ड साहब से मिलने के लिए रवाना किया। उन्होंने ने गवर्नर जनरल से अपने निकाह और नवाबी की इच्छा जाहिर की। इस पर गवर्नर जनरल ने एजेन्ट के द्वारा कुदसिया बेगम को शादी का मश्विरा दिया और जहांगीर मोहम्मद खान से थोडा सब्र करने को कहा। जब यह वफ्द वापस आया तो हालात सुन कर बेगम साहिबा बहुत नाराज हुईं। अमीर मोहम्मद खान को रायसेन और उनके सलाहकारों को शहर बदर कर दिया।
नवाब कुदसिया बेगम के खिलाफ साम्राजी साजिश
उस वक्त जब रियासत एक नाजुक दौर से गुजर रही थी। उस वक्त रियासत के खैरख्वाह करम मोहम्मद खान मदारूल मुहाम का इंतकाल हो गया। इससे कुदसिया बेगम को बडा धक्का लगा। उनके मश्विरे से ही बेगम साहिबा सारे काम किया करती थीं। अपने भाई फौजदार मोहम्मद खान को नायबुल रियासत बनाना चाहा, लेकिन पाॅलीटिकल एजेंट ने इस पेशकश को रद्द कर दिया। तब अपने बडे भाई मआज मोहम्मद खान से काम लिया। मियां साहब की जागीर एक लाख की और फौजदार मोहम्मद खान की चालीस हजार थी। इस कठिन दौर में बेगम साहिबा ने रियासत का काम बहुत खूबी से चलाया।
इसी दौरान पाॅलीटिकल एजेंट ने उनको लिखा कि ’’आज ही जहांगीर मोहम्मद खान का निकाह सिकंदर जहां बेगम से कर दीजिए, शादी की रस्में बाद में होती रहेंगी। जब तक शादी के नक्कारे की आवाजें अपने कान से न सुन लूं, सीहोर न जाऊंगा। मेरा क्याम भोपाल ही में रहेगा।‘‘
इस हुक्म पर 1835 में यह शादी कर दी गई। कुदसिया बेगम की फरमाबरदारी का इकरारनामा लिख दिया गया। नवाब जहांगीर मोहम्मद खान को राजा खुशवक्त राय के जरिये हुकूमत की तालीम दी जाने लगी। लेकिन इसी बीच गलत सलाहकारों की सलाह पर नवाब जहांगीर मोहम्मद खान ने बगावत करने का मन बना लिया और 11 वीं शरीफ पर जो कि रियासत में शानदार तरीके से मनाया जाता था के मौके पर गुप्त रूप से सिपाही तैनात कर दिये गये। शहर के बाहर भी हमलावर फौज तैनात कर दी गई। महल में भी एक सश्स्त्र पलटन नवाब साहब के हुक्म के इंतजार में बैठी थी। सिकंदर जहां बेगम को एक वफादार सरदार ने इस गुप्त साजिश से आगाह कर दिया। फौरन एक विशेष पलटन नियुक्त की गई जिसने की नवाब साहब के गलत सलाहकारों को गिरफ्तार करके हवामहल में नजर बंद कर दिया गया। इसकी सूचना पाॅलीटिकल एजेंट को दे दी गई। परंतु अपने साम्राजी आकाओं के इशारे पर रियासत में फूट के बीज बोकर अपना उल्लू सीधा करने का इरादा रखने वाले एजेंट ने नवाब साहब का पक्ष लिया।
पालीटिकल एजेंट ने बेगम साहिबा को लिखा कि नवाब साहब की इन बचकाना हरकतों पर बेगम साहिबा कुछ ख्याल न करें और इनको अपने साया-ए-उलफत में रखें। नवाब साहब का कयाम भोपाल में हो या सीहोर में, लेकिन खबरदार इन पर जुल्म न हो। जब नवाब साहब को एजेंट की सरपरस्ती हासिल हो गई तो उनके वालिद अमीर मोहम्मद खान और मामू असद अली खान सीहोर पहुंचे और गफूर खां नाम के एक आदमी को खुफिया तौर पर दो घोडों के साथ भोपाल पहुंचाया कि वो मौलवी मुहम्मद जियाउद्दीन साहब की टेकरी (जहां अहमदाबाद है) ठहर कर नवाब को खुफिया इत्तिला पहुंचा दें। चुनांचे जहांगीर मोहम्मद खान भेस बदल कर फरार हो गये और घोडे पर बैठ कर सीहोर पहुंच गये।
नवाब जहांगीर मोहम्मद खान ने वालिद और मामू की सलाह पर महाजनों से कर्ज लेकर एक फौज मुलाजिम रखी और सीहोर से आगे बढ कर दोराहा, देहपुरा, बरखेडा पर कब्जा कर लिया। पाॅलीटिकल एजेंट ने बेगम साहिबा को लिखा। ’’मैं आपकी हुकूमत में दखल नहीं देना चाहता, पर इस मामले को रफा-दफा करना चाहता हूं। यह कि दीवान खुशवक्त राय को सीहोर भेज दिया जाए। चुनांचे दीवान साहब व हकीम गुलाम हुसैन बेगम साहिबा की तरफ से सीहोर पहुंचे। नवाब साहब की तरफ से असद अली खां, वाजिल अली खां एजेंट की कोठी पर जमा हुए। बेगम साहिबा की तरफ से 10 साल की मोहलत और असद अली खान की तरफ से 3 साल की मोहलत मांगी गई और समझौता न हो सका।
नवाब ने किलेदार आष्टा शहामत खां को अपनी तरफ मिला कर आष्टा पर कब्जा कर लिया। जब भोपाल इसकी सूचना पहुंची तो राजा खुशवक्त राय फौज लेकर पहुंचे। मुगली नामक गांव में दोनों फौजों का मुकाबला हुआ। आष्टा की पार्वती नदी बाढ पर आई हुई थी। इसलिये भोपाल की फौजों को थोडी परेशानी हुई, लेकिन नवाब की फौज अपनी नातर्जुबेकारी से मुकाबले में न ठहर सकीं और बाद में किले में बंद हो गईं। इसकी सूचना गर्वनर जनरल को मिली तो उसने पाॅलीटिकल एजेंट के जरिये हस्तक्षेप किया और दिसम्बर 1837 में भोपाल की फौज को वापस होने पर मजबूर कर दिया। नवाब जहांगीर मोहम्मद खां को सीहोर बुलाया गया और आष्टा पर अपनी तरफ से हाकिम मुकर्रर किया। अंग्रेजी पलटन को गुनगे नामक स्थान पर तैनात किया गया और बेगम साहिबा को लिखा अगरचे आपकी फतेह हुई और जहांगीर मोहम्मद खान की शिकस्त, लेकिन यह खानदानी झगडे हैं जिनको सरकार पसंद नहीं करती। नवाब साहब का कुसूर माफ करके सिकंदर बेगम को इनके पास पहंुचा दिया जाए ताकि वो समझा-बुझा कर नवाब को ले आएं। इस हुक्म पर अमल के बावजूद एजेंट बहादुर ने बेगम साहिबा के खिलाफ अपने तरकश का आखिरी तीर फेंक दिया और लिखा कि मेरी इत्तिलाई रिपोर्ट पर गर्वनर जनरल साहब की तरफ से हुक्म हुआ है कि आप अपने वादे के मुताबिक सिकन्दर बेगम के शौहर को रियासत हवाले कर दें। इस मामले में गौर करने की मुद्दत एक साल से ज्यादा नहीं होगी। इस समझौते तक जो फौज गुनगे में रहेगी उसका तमाम खर्चा रियासत के जिम्मे होगा।
चुनांचे इस हुक्म के कारण नवाब कुदसिया बेगम को 18 नवम्बर 1837 को रियासत की जिम्मेदारियों से हटना पडा। एक समझौता बेगम साहिबा की हिफाजत और रियासत में दखल न देने का लिखवा लिया गया। उनको 816 गांव की और राजा खुशवक्त राय को 34 हजार की जागीरें दे दी गईं। कुदसिया बेगम को अंततः इस हुक्म को मानना पडा।
बेगम कुदसिया की उम्र केवल 18-19 वर्ष थी जब वो बेवा हुईं। लेकिन उनकी तालीम बाकायदा हुई थी, दिमाग इतना आला पाया था कि थोडे ही वक्त में रियासत का काम संभालने और तमाम देखभाल करने के काबिल हो गईं थीं। उनके दौर में रियासत में शेर व अदब की कोपलें फूटीं, इल्मी और दीनी तसानीफ की दागबेल डाली गई। बहरहाल भोपाल रियासत के सुनहरे दौर की शुरूआत नवाब कुदसिया बेगम के जमाने से हो गई थी।
बेगम साहिबा इबादत गुजार, अवाम के साथ नरमी से पेश आने वाली औरत थीं। अल्लाह तआला ने उनकी उम्र में बरकत अता फरमाई, चुनांचे नवाब कुदसिया बेगम ने अपनी नवासी नवाब शाहजहां बेगम (जिन्होंने ताजमहल की बुनियाद रखवाई), नवासों नवाब नसरूल्ला खां, जनरल उबैदुल्ला खां की खुशियों को देखा।उनके दौर में काजी अहमद अली शहर काजी और मुफ्ती अब्दुल कुद्दूस शहर के मुफ्ती रहे। बेगम साहिबा हुकूमत से हटने के बाद इस्लामनगर में रहने लगीं थीं। 24 मुहर्रम 1299 हिजरी को उनका इंतकाल हुआ और उनको बडे बाग में दफनाया गया।