सरदार दोस्त मोहम्मद खान की पूरी जीवन रियासत के विस्तार में बीता। उनके देहान्त के पश्चात रियासत में कोई सही वारिस नहीं था, क्योंकि नवाब यार मोहम्मद खान हैदराबाद में थे। इसलिए उनके 12 वर्षीय पुत्र सुल्तान मोहम्मद खान को तख्त पर बिठाया गया।
सरदार दोस्त मोहम्मद खान के देहान्त का समाचार जब हैदराबाद पहुचा तो निजाम ने यार मो. खान को बूता कर इसकी सूचना दी। समाचार सुनकर यार मोहम्मद खान ने निजाम से कहा कि अगर एक अफगान में साया सर से उठ गया है तो क्या हुआ हुजूर का साया तो बाकी है। निजाम को इनका यह उत्तर बहुत पसंद आया, उन्होंने काजी मोहम्मद मोअज्जम जो यार मोहम्मद के साथ गये थे कि सिफारिश पर इनको नवाबी का खिताब और पंच हजारी मंसब दिया और सेना के साथ भोपाल भेज दिया।
भोपाल पहुंचने के बाद सुल्तान मोहम्मद खान की मां के समझाने से बिना किसी खून खराबे के यार मोहम्मद खान ने रियासती बागडोर संभाल ली। प्रारंभ में इनके भाई आकिल मोहम्मद खान रियासत के दीवान रहे, उनके देहान्त के पश्चात विजय राम को रियासत का दीवान बना दिया गया। नवाब साहब ने इसके बाद रियासत के विस्तार के लिए मुहिम के लिए सेना को लेकर बेगमगंज, पठारी, उदयपुरा और राहतगढ पर चढाई की और इन क्षेत्रों को भी अपनी रियासत के अधीन कर लिया।
इसके पश्चात कोटा बून्दी, रामपुरा परगना आदि क्षेत्रों पर भी अपना अधिकार कर लिया और यहां अपने शासकों को नियुक्त कर दिया। नवाब साहब ने राजकुमारी मामूला बी जो इसी रियासत के कामकाज और इसकी भलाई के लिए इन्होंने कई सुझाव दिये। इनके बारे में यह सुना जाता था कि वो जब तक भोजन नहीं करतीं थीं जब तक उनको इस बात का विश्वास न हो जाये कि भोपाल में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोया।
नवाब साहब अपने पिता की ही भांति विद्वानों एवं ज्ञानियों के कद्रदान थे और उनकी बहुत आदर करते थे। उन्होंने 14-15 वर्ष शासन किया, 1752 में उनका देहान्त हो गया। इनको इस्लामनगर में दफन किया गया, इनके 5 पुत्र और 4 पुत्रियां थीं। इनमें से फैज मोहम्मद खान और हयात मोहम्मद खान इनके बाद नवाब हुये।
नवाब साहब ने अपने शासन काल में भोपाल के निकट हुई निजामुल मुल्क और बाजीराव पेशवा के बीच हुये युद्ध में निजाम की सहायता की। नवाब साहब की सहायता से ही निजाम को इस युद्ध में सफलता मिली थी। यह युद्ध कोरबंद पटिया नामक स्थान पर हुआ था।
नवाब फैज मोहम्मद खान
सरदार साहब और नवाब यार मोहम्मद खान का शासनकाल अधिकांश समय रियासत को फैलाने और जमाने में ही निकला। दोनों ने ही रियासत को बहुत विस्तार दिया, और मजबूत शासन की नींव रखी। इनके देहान्त के पश्चात मांजी साहिबा और दीवान विजय राम की सलाह से नवाब फैज मोहम्मद खान को रियासत के तख्त पर बैठाया गया। इनके भाई सुलतान मोहम्मद खान ने दो बार विद्रोह किया, बाद में इनको राहतगढ जागीर दे दी गयी।
नवाब फैज मोहम्मद खान के शासनकाल में बाजीराव पेशवा ने दोराहे के पास अपनी सेना के साथ डेरा डाला और पुरानी दुश्मनी के कारण रियासत उसको सौंपने की मांग की। दीवान विजय राम और मांजी साहिबा ने आधी रियासत उसको देकर सुलह कर ली।
इसके पश्चात नवाब साहब ने रायसेन की ओर सेना सहित कूच किया, जहां का किलेदार नवेद अली ऐश परस्त व आलसी था और जनता उससे परेशान थी। इससे थोडा बहुत संघर्ष हुआ और नवाब साहब ने रायसेन पर अपना अधिकार कर लिया।
जब सदाशिव राव अहमद शाह अब्दाली से युद्ध करने जा रहा था तो उसने नवाब साहब से भी अपने साथ चलने को कहा। नवाब साहब के इंकार ने उसे गुस्से में आगबबूला कर दिया, उसने कहा कि मैं इस युद्ध के पश्चात इस पठान को भी देख लूंगा। यह सुनकर नवाब साहब ने उत्तर दिया कि यह युद्ध क्षेत्र से जीवित वापस न आ सकेगा। और हुआ भी यही सदाशिव राव इस युद्ध में 1761 में मारा गया।
इसके पश्चात नवाब साहब रियासत की बागडोर दीवान छोटेराम और मांजी साहिबा को सौंप कर ईश्वर की अराधना में लीन हो गये। इस दौरान वह अपनी इबादत गाह से बाहर नहीं आये। सिर्फ एक बार विदिशा की बगावत पर गैरत खान इन्हें अपने साथ ले गया। इनके वहां पहुंचते ही दुश्मन ने बिना खडे ही हथियार डाल दिये।
नवाब फैज मोहम्मद खान एक शासक के अधिक एक बाकमाल वली की हैसियत से जाने जाते हैं। उनकी मजार (कमला पार्क में स्थित) पर आज भी लोग बडी श्रृद्धा से जाते हैं। वह एक बडे बुजुर्ग माने जाते हैं।
नवाब साहब का देहान्त 1770 में हुआ। वह एक सच्चे दरवेश और ईश्वर को मानने वाले बुजुर्ग थे। इनका कद सात फुट का था, जब खडे होते तो हाथ घुटनों तक पहुंचते थे। नवाब साहब ने रायसेन में शाह फतह उल्ला चिश्ती की दरगाह की इमारत बनवाई थी। इनके दौर में काजी मोअल्लम काजी रियासत थे और मुफ्ती रियासत उल्ला मुफ्ती-ए-रियासत थे।