शाहजहां बेगम की पैदाईश जुलाई 1838 में इस्लाम नगर में हुई थी, जबकि इनकी वालिदा सिकंदर जहां बेगम वहां रह रहीं थीं। इनके रोशन भविष्य को देखते हुए इनकी माँ ने तालीम व तर्बियत का विशेष इंतजाम किया। उनकी उम्र जब सिर्फ 6 साल थी कि 1844 में वालिद का इंतकाल हो गया। इसी वक्त उनको शासक कुबूल कर लिया गया। जबकि अधिकार 21 वर्ष की आयु में दिया जाना तय पाया गया और यह कि शादी होने पर इनके शौहर नवाब होंगे। मियां फौजदार मोहम्मद खान नायबुल रियासत बनाए गए। उनको प्रारंभ ही से रियासत की इंतजाम से वाबस्ता कर कर दिया गया ताकि आगे चल कर तजुर्बा काम आए।
सन 1855 में उनका विवाह उमराव दूल्हा के साथ कर दिया गया। जिनका संबंध बख्शी बहादुर मोहम्मद खान से था जो कि रियासत के पुराने वफादार खानदान के थे। 21 वर्ष की उम्र होने पर इन्होंने अपनी सआदतमंदी से अपने हके रियासत को अपनी वालिदा सिकंदर जहां बेगम के सुपुर्द कर दिया और 1 मई 1860 को एजेन्ट बहादुर ने सिकंदर जहां को शासक और शाहजहां बेगम को वली अहदे रियासत की उपाधियां दीं।
नवाब सुलतान जहां बेगम के इंतकाल पर मदरसा सुलेमानियां और मस्जिद सुलेमानी बनाई गई। उमराव दूल्हा 1866 में हज व जियारत के लिए हरमैन शरीफैन गए। इनकी सेहत खराब थी, वहां तबियत और ज्यादा बिगड गई और कुछ दिन मिस्र में इलाज के लिए रूके। लेकिन फायदा नहीं हुआ। फिर भोपाल वापस आ गए। यहां उनका हर तरह का इलाज किया गया। मगर कोई इलाज कारगर नहीं हुआ और सन् 1867 में इंतकाल फरमा गये। इसके बाद 1868 में सिकंदर जहां बेगम का भी इतंकाल हो गया।
इस प्रकार शाहजहां बेगम को रियासत का शासक बना दिया गया और सुलतान जहां बेगम को वली अहद मुकर्रर किया गया।
नवाब सिद्दीक हसन खान को रियासत में ऊंचे पद पर नियुक्त किया गया। इसके बाद तरक्की करते-करते वह मीर मुंशी (चीफ सेक्रेटरी) के पद तक पहुंच गये और अपने काम से बेगम साहब के दिल पर ऐसा असर छोडा कि मदारूल मुहाम साहब के मश्विरे और गर्वमेंट की इजाजत से 1871 में उनसे निकाह कर लिया। उनको अमीरूलमुल्क का खिताब मिला। नवाब साहब सैय्यद औलाद हसन कन्नौजी (खलीफा सैय्यद अहमद शहीद) के खुलफते रशीदा और मखदूम जहांगश्त के बुजुर्ग थे।
नवाब सिद्दीक हसन जबरदस्त आलिम, फाजिल और तीनों जबानों उर्दू, फारसी और अरबी के लेखक थे और खुद बेगम साहिबा भी आलिमा और शायरा थीं। इसलिए इस दौर में भोपाल उलेमा, फुजला और शायरों का मरकज (केन्द्र) बन गया । दिल्ली और लखनऊ के लिए इल्म व अदब के काफिले यहां आकर ठहर गये। इस प्रकार भोपाल रियासत देहलवी और लखनवी तहजीबों का संगम बन गर्ई।
नवाब साहब ने रियासत के सिलसिले में ऐसी तदबीरें इख्तियार कीं कि हुकूमत की पूरी बागडोर इनके हाथ में आ गई। और उन्होंने पर्दे के पीछे चुपके-चुपके तहरीके जिहाद का खुफिया मंसूबा तैयार किया और रियासत के पुराने ओहदेदारों को अपनी हिकमत अमली से छांट कर अपने भरोसेमंद लोगों में शामिल कर लिया। जिसकी वजह से रियासत के अंदर अफरा- तफरी फैल गई। रियासत से बाहर अंग्रेज सरकार के खिलाफ लिटरेचर का जाल खामोशी के साथ फैला दिया गया। जब अंग्रेज सरकार को इसकी भनक मिली तो पूर्व एजेंट सर लीपल गिरफ्थ को जांच- पडताल के लिए भेज दिया। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने रियासत की बागडोर अपने हाथों में ले ली। इसके बाद उसने रियासत के अधिकार शाहजहां बेगम को सौंप दिये। इसी बीच 1881 में नवाब कुदसिया बेगम का इंतकाल हुआ। इंतकाल से पहले उन्होंने सारे कागजात अपनी नवासी को सौंप दिये। नवाब साहब अपने हटाये जाने के बाद लिखने और दूसरे दीनी व इल्मी कामों में लग गये। चुनांचे हर इल्म व फन में लगभग 300 किताबें इनकी यादगार हैं। इनका दीनी और इल्मी कामों को अंजाम देते हुए सन् 1890 में इंतकाल हो गया।
नवाब साहब ने रियासत के सिलसिले में ऐसी तदबीरें इख्तियार कीं कि हुकूमत की पूरी बागडोर इनके हाथ में आ गई। और उन्होंने पर्दे के पीछे चुपके-चुपके तहरीके जिहाद का खुफिया मंसूबा तैयार किया और रियासत के पुराने ओहदेदारों को अपनी हिकमत अमली से छांट कर अपने भरोसेमंद लोगों में शामिल कर लिया। जिसकी वजह से रियासत के अंदर अफरा- तफरी फैल गई। रियासत से बाहर अंग्रेज सरकार के खिलाफ लिटरेचर का जाल खामोशी के साथ फैला दिया गया। जब अंग्रेज सरकार को इसकी भनक मिली तो पूर्व एजेंट सर लीपल गिरफ्थ को जांच- पडताल के लिए भेज दिया। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने रियासत की बागडोर अपने हाथों में ले ली। इसके बाद उसने रियासत के अधिकार शाहजहां बेगम को सौंप दिये। इसी बीच 1881 में नवाब कुदसिया बेगम का इंतकाल हुआ। इंतकाल से पहले उन्होंने सारे कागजात अपनी नवासी को सौंप दिये। नवाब साहब अपने हटाये जाने के बाद लिखने और दूसरे दीनी व इल्मी कामों में लग गये। चुनांचे हर इल्म व फन में लगभग 300 किताबें इनकी यादगार हैं। इनका दीनी और इल्मी कामों को अंजाम देते हुए सन् 1890 में इंतकाल हो गया।
शाहजहानी निजामें हुकूमत
जैसाकि लिखा गया शाहजहां बेगम को शुरू ही से हुक्मरानी की तर्बियत दी गई थी जब इनकी वालदा हज को गईं तो इन्तिजामी कौंसिल का इनको सदर मुंतखिब किया गया जिसकी वजह से इनको अमली तर्जुबा भी हुआ इसलिए सदर नशीनी के तीन माह बाद ही उन्होंने पूरी रियासत का दौरा किया सब जमीनों की नाप करवाई जिसमें जमीनें पहले से ज्यादा निकलीं। इसके बाद मालगुजारी की अलग-अलग दरें तय कीं रईसों की तकरीबात के नजरानों को माफ कर दिया।
आफियों की काश्त करा कर आमदनी बढाई उनके दौर में तीन बार कहत पडा पहले 1878 में जो मामूली था फिर 1894 में बहुत सख्त रियाया के लिये परेशानी का बायश बना चुनांचे उन्होंने मोहताजों के लिए रहने का इन्तजाम किया बाहर से गल्ला मंगवाकर रियाया ने तक्सीम किया। फिर तीसरा कहत (सूखा) 1899 में पडा कि इसने मुल्क के बहुत से हिस्सों को अपनी लपेट में ले लिया। इसी दौरान बाहर से कई सूखा पीडितों के काफिले भोपाल पहुंचे इनके लिये मरकजी इम्दारी कमेटी कायम की गई। बडे पैमाने पर लंगर खाने खोले गये और दिल खोलकर इनकी इम्दाद की गई।
रियासत को दस्तूरी बनाने या जम्हूरी शान पैदा करने के लिए तन्जीमात शाहजहानी के नाम से कानून लागू करने का एक अलग महकमा कायम हुआ मजिस्ट्रेट व कोतवाल मुकर्रर हुए वकीलों को मुकदमें के पैरवी की इजाजत दी गई। 1868 में जरायम पेशा लोगों के खिलाफ कानून लागू किये गये ताकि जरायम को रोका जा सके।
जेल पहाडी पर एक बडी इमारत जेल के लिए बनाई गई। इससे पहले पुराने किले में जेल थी और कैदियों को मुख्तलिफ हुनर सिखाने का इन्तजाम किया गया ताकि जेल से रिहा होने पर पुरअम जिन्दगी बसर कर सकें। इसी प्रकार सेहत के लिये हर कस्बे में हकीम मुकर्रर हुए, दवाएं मुफ्त दी जाती थीं। इसके बाद एलोपैथिक पद्यति का दवाखाना पुरूषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग कायम किया गया। चेचक के टीके सबसे पहले अपने नवासे नसरूल्ला खान को लगवाये ताकि अमान की झिझक दूर हो सके।
मदरसा सुलेमानिया जो दौरे सिकंदरी में कायम हुआ था इसके तालीमी मेआर को बुलंद करने के लिये कलकत्त युनिवर्सिटी से इसको जोडा और असरी उलूम का बाकायदा तालीमी इन्तजाम किया गया। ऐसे ही मदरसे निस्वां कायम किया गया। गरीब छात्रों के लिये पटिये (वजीफे) मुकर्रर किये। तालीम का सनत से जोड पैदा करने के लिये एक सनती मदरसा (तकनीकी शिक्षा केंद्र) भी कायम किया गया। नवाब सिकंदर बेगम ने लिखा था कि हिन्दुस्तानियों की रियासत अंधी न इसमें रेल है न तार, बर्की एहदे शाहजहांनी में रियासत भोपाल रेलवे के जरिये पूरे मुल्क से जुड गई शाहजहां बेगम ने 35 लाख और कुदसिया बेगम ने 15 लाख रूपये किस्त बांधी। रेलवे के मुनाफे के लिये नसल दर नस्ल का मुआवजा गवर्नमेंट से किया। 1882 में रेलवे लाइन मुकम्मल हुई, और 1884 में भोपाल से इटारसी तक रेलवे का उद्घाटन हुआ। फिर 18-19 लाख की रकम दी जाकर उज्जैन रेलवे का 1896 में उद्घाटन हुआ और तार बर्की (टेलीग्राम) के लिये माकूल रकम देकर इन्तजाम किया गया।
एहदे सिकंदरी में डाक का निजाम सरकारी डाक तक महदूद था। शाहजहां बेगम ने इसको तरक्की देकर हर तहसील हर थाने में डाकखाने कायम किये और पोलिटिकल एजेंट के मदरसे रियासत से बाहर के लिये भी डाक का इन्तजाम किया। उन्होंने अपना एक सिक्का भी जारी किया था। शहर को देहात से जोडने के लिये दूर-दूर दरख्तों के साये में सडकें तामीर करने का भी उन्होंने आगाज किया।