सिकंदर जहां बेगम का जन्म 1818 ई. में हुआ, जब वो पन्द्रह महीने की ही थी तो उनके पिता का देहान्त हो गया था। इनको मोती बीबी भी कहा जाता था जिसके बिना पर मोती मस्जिद, मोती महल और मोती बंगला का निर्माण कराया गया।
नवाब जहांगीर मोहम्मद खान से इनकी शादी 1825 ई. में जिस फितना परवर माहौल में हुई वो पहले ही आ चुका है। इस कारण इनको भी अपनी वालिदा की तरह ही रियासत के तख्त पर पहुंचने के लिए बहुत ही संगीन परीक्षाओं से गुजरना पडा और सख्त आजमाईशों से भी निपटना पडा। इन मुसीबतों की भट्टी में तप कर वह कुन्दन बनकर निकलीं। चंूकि कुदरत का निजाम है कि जिसको वो बुलन्द मर्तबा देना चाहता है उसको कडी आजमाईशों से गुजारता है।
तारीखे भोपाल में नवाबों का दौर बाहरी हमलों से मुकाबला और रियासत की हिफाजत का रहा। लेकिन जब बेगमाती दौर ने अपना साया डाला तो कम्पनी बहादुर के जेरे साया आ जाने की वजह से रियासत ने बाहरी हमलों से निजात पाई। लेकिन अंदरूनी कशमकशों ने थोड-बहुत रंग दिखाया। इस दौर में तरक्की के काम हुए। पहले दौर में रियासत की हिफाजत पर ही ज्यादा ध्यान दिया गया। बेगमात के दौर में ज्यादातर तरक्की के काम किये गये।
इनके पति नवाब जहांगीर मोहम्मद खान के इंतकाल के बाद भी वही पुराने हालात दोहराये गये। मरहूम नवाब साहब के वालिद अमीर मोहम्मद खान रियासत के दावेदार बन बैठे, दूसरी तरफ असद अली खान ने दस्तगीर मोहम्मद खान को तख्त पर बिठा कर तोपें चलवा दीं।
तब सिकंदर जहां बेगम ने कम्पनी को पुराने समझौते की तरफ ध्यान दिलाया। अतः पाॅलीटिकल एजेंट ने सीहोर आकर इस तख्त नशीनी को समाप्त करवाया और गवरनर जनरल की तरफ से सिकंदर जहां बेगम को रियासत की बागडोर सौंप दी। इसके साथ ही यह ऐलान भी कर दिया कि शाहजहां बेगम के साथ जिसका विवाह होगा, वो अगला नवाब होगा। और इसका जब वक्त आयेगा तो गवरनर जनरल का मश्विरा और उनकी मंजूरी ली जाएगी।
तब सिकंदर जहां बेगम ने एक पत्र द्वारा रियासत में हुकूमत के अधिकार हासिल करने के लिए लिखा। इसके उत्तर में गर्वनर जनरल ने उनको सत्ता के अधिकार देने के आदेश दे दिए। इस खबर को सुन कर भोपाल के नागरिक बहुत खुश हुए, क्योंकि उनकी सलाहियतों से सभी वाकिफ थे।
लेकिन हुकूमत में मियां फौजदार मोहम्मद खान का दखल भी रहता था, इसलिये वो रियासत के कामों में खुल कर योगदान नहीं दे पा रही थीं। इसी बीच भोपाल रियासत के लिए नए पाॅलीटिकल एजेंट मिस्टर फ्रेडरिक एडन की नियुक्ति हुई। इस सिलसिले में बेगम साहिबा के सही और मुनासिब मश्विरों का एजेंट पर अच्छा असर पडा और उसने गवरनर जनरल को लिखा के अगर मेरी मदद बेगम साहिबा न करें तो मैं इस रियासत का इंतजाम किसी तरह नहीं कर सकता था।
इसके जवाब में लार्ड किंग ने 27 जुलाई 1847 में लिखा कि रियासत भोपाल में नायाबियत का ओहदा एक अहम ओहदा है और बहुत खुशी के साथ लिखा जा रहा है कि आपकी जात में इससे ज्यादा सलाहियतें हैं। क्योंकि आपने बडे अच्छे और फायदेमंद मश्विरे हर मामले में पाॅलीटिकल एजेंट को दिये हैं। ऐसी उम्मीद है कि आपके अच्छे इंतजाम से रियासत की खूब तरक्की होगी।
इस प्रकार रियासत की पूरी बागडोर सिकंदर जहां बेगम के हाथों में आ गई। इस फरमान के साथ अहदे सिकंदरी की शुरूआत होती है। इस दौर में रियासत ने एक कानूनी और संवैधानिक रियासत की हदों में कदम रखा और बेगम साहिबा के हुस्न तदबीर ने रियासत में शैक्षिक, आर्थिक उन्नति के रास्ते खोल दिये।
सिकंदर जहां बेगम रियासत की असली हकदार थीं, इसलिये उनको रियासत और यहां की अवाम से दिली लगाव था। उनके बाप-दादा को देखे हुए लोग उस वक्त रियासत में थे, जिन्होंने जान जोखिम में डाल कर रियासत को दुश्मनों से बचाया था।
चूंकि सिकंदर जहां बेगम की खुद की जिन्दगी कांटों की सेज पर गुजरी थी, इसलिए उन्होंने सबसे पहले अपनी इकलौती बेटी शाहजहां बेगम के मसले को सुलझाना चाहा। क्योंकि खुद उनको इस सिलसिले में कटु अनुभवों से गुजरना पडा था। इसलिए उन्होंने रियासत के कामकाज में बिना अमल-दखल के रियासत का वाली (वली अहद) बनाने का प्रस्ताव भेजा जिसे मंजूर कर लिया गया। फिर उनके इच्छे शौहर के लिए रियासत का मदरसा कायम किया गया। लेकिन हस्बे मंशा कोई नहीं मिल सका। तब पाॅलीटिकल एजेंट को लिखा। जिसने जवाब में उसने लिखा कि मैं बडी खुशी के साथ इस तहरीर को गर्वमेंट में भेज दूंगा। इसकी मिसाल खुद सलतनते ब्रतानिया में है जहां महारानी विक्टोरिया हैं जो मुल्क की मालिक हैं और उनके शौहर का हुकूमत में कोई दखल नहीं है।
इसके बाद उन्होंने शाहजहां बेगम की शादी 1855 में बाकी मोहम्मद खान के साथ दो करोड मेहर पर कर दी। उमराव दूल्हा (बाकी मोहम्मद खान) का खानदान बख्शी बहादुर मोहम्मद खान वगैरा वजीरूद्दौला ही के जमाने से रियासत की हिफाजत में पेश-पेश रहे थे।
1857 का स्वाधीनता संग्राम और भोपाल
रियासत के अंदरूनी झगडों से निपटने के बाद सिंकदर जहां बेगम रियासत के विकास की योजनाएं तैयार करने में लग गईं। इसी दौरान पूरे हिन्दोस्तान में अंग्रेजों के विरूद्ध स्वाधीनता संग्राम का बिगुल सन् 1857 में बज गया और उत्तर से दक्षिण तक बगावत की आग भडक उठी। कारतूसों में से जानवर की चर्बी मुंह से खींच कर निकालने के किस्से ने बारूद को पलीता लगा दिया।
सन् 1857 का स्वाधीनता आंदोलन एक असंगठित कौम की जंग एक संगठित व हथियार बंद और ताकतवर दुश्मन से थी। क्योंकि संगठित रूप से जंग के शोले पूरे मुल्क में नहीं भडक सके, बल्कि इसकी चिंगारियां अहिस्ता- अहिस्ता फैलती चली गईं। इसलिए अंग्रेजारें ने अपनी संगठित शक्ति से इसको दबा दिया। बहरहाल पूरे मुल्क में जो शोले भडक रहे थे, ये कैसे हो सकता था कि रियासत भोपाल में इसकी आंच न पहुंचती। यहां पर फाजिल मोहम्मद खान और जमाल मोहम्मद खान ने गढी को अपना केन्द्र बना कर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया और अंग्रेजी फौजों को लडते हुए जामे शहादत पिया।
इसी प्रकार सीहोर के फौजियों में भी बगावत की लहर उठी और हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिल कर अवामी हुकूमत का झंडा बुलंद किया। खुद शहर में भी मस्जिद मनकशा में यहां के उलेमा-ए-हक ने जिहाद का फतवा जारी किया। लेकिन सिंकदर जहां बेगम ने अपनी नर्म पालिसी से इसे धीरे-धीरे ठंडा कर दिया। उन्होंने ऐसे कदम उठाये कि यह चिंगारियां शोले नहीं बन पाईं। इसके लिए उन्होंने विशेष रूप से कुछ कदम उठाये-
(1) पूरी रियासत में जासूसों का जाल फैला दिया गया।
(2) शक के दायरे में आने वाले लोगों की निगरानी की गई और कुछ की जिला वतनी (देश निकाला) की गई।
(3) फौजियों की देखभाल औरइनके साथ नर्म रवैया रखा गया।
(4) सरहदी इलाकों में चैकियों का मजबूत इंतजाम किया गया।
इस दौरान बागी फौजियों के खिलाफ कोर्ट मार्शल वगैरह जैसी सजा न देकर दरगुजर से काम लेते हुए सिंकदर जहां बेगम ने इस मामले को सिरे से टाल दिया। (क्रमशः)