भोपाल वैसे तो शायरों की सरज़मीं रही है और यहां के अनेकों शायरों ने विश्वस्तर पर अपनी पहचान कायम की है। भोपाल में कुछ ऐसे शायर भी हुए हैं जिन्होंने गोशा नशीनी इख्तियार करते हुए खामोशी के साथ अपना काम किया और बेहतरीन गजलें, नज़्में और रूबाईयां लिखीं। ऐसे ही एक शायर हैं नूर मोहम्मद यास जो कि जीपीओ के पास चश्मे की दुकान लगा कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं और शासन, प्रशासन या और किसी से कोई उम्मीद नहीं रखते।
नूर मोहम्मद यास मुशायरे और नशिस्तों में पढऩा पसंद नहीं करते। इसकी वजह वह बताते हैं कि मेरा मिजाज ऐसा नहीं है दूसरे मुशायरों में पेशेवाराना शायरों का बढ़ता दखल। उनके विषय में कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। शायर नामक पत्रिका में सितम्बर 2006 में उनके ऊपर आलेख छप चुका है। उनकी रचनाएं सन 1970 से 1984 के बीच भारत-पाकिस्तान की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं।
नूर मोहम्मद यास का जन्म 1 जनवरी 1955 को भोपाल में श्री मोहम्मद करीम बिन मोहम्मद ताहिर के यहां हुआ था। हायर सेकेण्ड्री तक शिक्षा प्राप्त करने वाले यास ने सन्ï 1967 से शायरी करना प्रारंभ कर दिया था। वे मशूहर शायर वकील भोपाली और शेरी भोपाली को अपना आदर्श मानते हैं। उनको म.प्र. उर्दू अकादमी द्वारा सूबाई बासित भोपाली अवार्ड प्रदान किया जा चुका है। नूर मोहम्मद यास की अब तक तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-
1. सीपियां, समन्दर, आग (गजलें-1984)
2. खुश्बू के जजीरे (रूबाईयात-2003)
2. एक सूरज एक जमीं एक आस्मां (गजलें-2004) –
गजलें
एक सूरज, एक जमीं, एक आस्मां।
किस कदर महदूद है अपना जहां॥
अपनी हर एक सोच पर : जज़्बे की सलीब।
अपना हर एक सांस खतरे का निशां॥
सीना-ए-मक्तूल से खन्जर न खींचिए।
रंग लायेंगी यह सादा उंगलियां॥
हम जजीरे हैं उभरते – डूबते।
जि़न्दगी है एक बहरे बेकरां॥
हों अगर अहसास की आंखें तो देख।
खुश्बुओं के रक्स करने का समां॥
पेड़ करते हैं निछावर बर्ग-ओ-बार।
जब गले मिलती हैं उनसे आंधियां॥
तेज कर दे आतिशे इजहार यास।
यूं न कम होगा ख्यालों का धुंआ॥
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ऐ चश्मे नम! उन्हें भी खिज़ां की नजर लगे।
दिल की जमीं पे है जो गमों के शजर लगे॥
हर सिम्त आ बसी हैं यह वीरानियां सी क्यों।
जिस घर में जाऊं मुझ को वो अपना ही घर लगे॥
पथरा न दे कहीं उसे जंगल की चांदनी।
जिस आदमी को अपने ही साये से डर लगे॥
जब ये लिखा उसे कि मैं खुश हूं बखैऱ हूं।
अलफाज आप अपने मुझे बेअसर लगे॥
मौजूद है अगर वो हमारे ही दरमियां।
कुछ तो मिले सुराग कहीं तो खबर लगे॥
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रूबाईयां
फिजा में तैर रही हैं ये खुश्बुएं कैसी।
हवा उड़ाए न फिरती हो पैरहन उसका॥
सनम तराशा था वो भी अजीब जजबाती।
कि पत्थरों में समाया उदास पन उसका॥
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ज्ञान दर्पन में ही लहरायेंगे साये वहम के।
आंख रोशन ही न होगी जो वो क्या धुंधलायेगी॥
चौंकते माहौल को आहंग देंगी लोरियां।
जागने का वक़्त जब होगा तो फिर नींद आयेगी॥
– सैफ मलिक