नेहरू का युग-साक्ष्य है ‘मेरी कहानी’

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पं. जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस आंदोलन में उत्पन्न संकट के कारण अतीत में, कांग्रेस के इतिहास में ढूंढने चाहे और खयालों में बीसवीं सदी के आरंभ की घटनाओं की ओर लौटकर चौथे दशक के मध्य तक उनका जैसे विकास हुआ, उस पर गौर किया।
देश में प्रतिगामी शक्तियों का बढऩा और कांग्रेस का नेतृत्व दक्षिण पंथी समझौता परस्तों के हाथों में आ जाना, ये दोनों ही बातें जवाहरलाल के लिए बहुत दुखदायी थीं। उन्हें लगा कि संघर्ष का पंद्रह साल लंबा कठिन मार्ग तय कर लेने के बाद वह जैसे कि एकाएक फिर उस राह के आरंभबिंदु पर, उसके स्त्रोत पर लौट आये हैं। उन दिनों अपनी जेल डायरी में उन्होंने लिखा कि उनके और गांधी के बीच साझी कही जाने वाली बातें कम ही रह गयी हैं: ‘हमारे लक्ष्य भिन्न हैं, हमारे अंदरूनी नज़रिये भिन्न ही होने चाहिए।
जून, 1934 में उन्होंने अपनी ‘कहानीÓ लिखनी शुरू की। वह दिन-रात उसमें व्यस्त रहते और क़लम नीचे तभी रखते, जब कसरत करनी होती या जेल के सहन में टहलने की इच्छा होती। लिखने का काम उनमें लडऩे का संकल्प बनाये रखता और घोर उदासी तथा उन चिंताओं को भूल जाने को प्रेरित करता, जो कमला की हालत बड़ी तेज़ी से बिगड़ते जाने की खबर पाकर पैदा हो गयी थी।
रवींद्रनाथ ठाकुर और बहुत से दूसरे प्रभावशाली देशवासी उनकी रिहाई के लिए कोशिश कर रहे थे। उनकी आवाज में ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता क्लीमेंट एटली तथा जॉर्ज लेंसबरी और दूसरे लोगों ने भी अपनी आवा$ज मिला दी थी, हालांकि वे नेहरू के राजनीतिक विचारों से सहमत न थे। नेहरू की रिहाई की मांग का भारतीय प्रेस भी यथाशक्ति समर्थन कर रहा था। ऐसी हालत में सरकार ने जनमत के सामने, चाहे आशंकित हो, झुक जाना बेहतर समझा। 11 अगस्त को नेहरू को बताया गया कि बीमार पत्नी से मिलने के लिए उन्हें कुछ दिनों के लिए छोड़ा जा रहा है।
इलाहाबाद तक उन्हें पुलिस की निगरानी में भेजा गया। घर डॉक्टरों, नर्सों, आयाओं और नाते-रिश्तेदारों से भरा हुआ था। शांतिनिकेतन से इंदिरा भी आ गयी थी। कमला बिस्तर से उठने में पूरी तरह असमर्थ थी। पति को देखकर वह कसूरवार जैसे मुस्करा दी, मानो कहना चाहती हों : बुरा न मानना, मैंने तुम्हें बहुत परेशान किया है।
घर में पुलिस की निगरानी में रहने और लगभग सारा समय बीमार पत्नी के पास बिताने की वजह से नेहरू कुदरती तौर पर इस स्थिति में न थे कि देश के राजनीतिक वातावरण पर असर डालने के लिए कुछ कर सकें। पुलिस की गाड़ी किसी समय भी उन्हें जेल वापस पहुंचाने के लिए आ सकती थी।
सचमुच 23 अगस्त को पुलिस की गाड़ी उन्हें लेने आ ही गयी। उसके साथ आये हुए अफसर ने बताया कि उन्हें नैनी जेल में रखा जाना है। यह अजीब सी छुट्टïी केवल ग्यारह दिन चली थी। जब जवाहरलाल को ले जाने लगे, बुढिय़ा मां बांहें फैलाये दौड़ी-दौड़ी बेटे के पास चली आयी। उनके चेहरे पर बेहद पीड़ा झलक रही थी। संतोष की बात सिर्फ यह थी कि नैनी जेल घर से ज्यादा दूर न थी और सरकार ने, जैसा कि अखबारों में छपा था, अगर $जरूरत पड़ी तो, ‘अडिय़लÓ कैदी के प्रति दया दिखाने का वायदा किया था। अक्टूबर के शुरू में उन्हें कमला से मिलने के लिए फिर घर पहुंचाया गया। कमला को बहुत तेज बुखार था और वह बड़ी मुश्किल से बोल पा रही थी।
डॉक्टरों के आग्रह पर कमला को भुवाली ले जाने का फैसला किया गया। यह जगह हिमालय में थी और यहां की आबोहवा में उनकी सेहत सुधर सकती थी। सरकार नेहरू को भी पास ही अल्मोड़ा जेल में रखने को तैयार हो गयी। लेकिन जवाहरलाल को तब बहुत ही दुख हुआ, जब भुवाली में भी कमला की हालत में कोई खास सुधार नहीं आया। मई, 1935 में कमला को इलाज के लिए यूरोप ले गये।
इससे पहले ही, 14 फरवरी, 1935 को ही, नेहरू अल्मोड़ा जेल में आत्मकथात्मक पुस्तक का, जिसे वह आरंभ में ‘जेलों में और उनके बाहरÓ नाम देना चाहते थे, लेकिन बाद में ‘मेरी कहानीÓ कहना पसंद किया, अंतिम पृष्ठï लिख चुके थे।
पुस्तक के उपसंहार में उन्होंने लिखा, ‘बरसों मैंने जेल में बिता दिये। अकेले बैठे हुए, अपने विचारों में डूबे हुए, कितनी ऋतुओं को मैंने एक दूसरे के पीछे आते-जातेÓ और अंत में विस्मृति के गर्भ में विलीन होते देखा है। कितने चंद्रमाओं को मैंने पूर्व विकसित और क्षीण होते देखा है और कितने झिलमिल करते तारामंडल को अबाध, अनवरत गति और भव्यता के साथ घूमते देखा है। मेरे यौवन के कितने बीते दिवसों की यहां चिता भस्म बनी हुई है, और कभी-कभी मैं इन बीते दिवसों की प्रेतात्माओं को उठते हुए, दुखद स्मृतियों को जगाते हुए, कान के पास आकर यह कहते हुए सुनता हूं ‘क्या उसमें कुछ भलाई थी? और इसका जवाब देने में मेरे मन में कोई शंका नहीं है। अगर अपने मौजूदा ज्ञान और अनुभव के साथ मुझे अपने जीवन को फिर दुहराने का मौका मिले, तो इसमें शक नहीं कि मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में अनेक फेर-फार करने की कोशिश करूंगा, जो कुछ मैं पहले कर चुका हूं, उसका कई तरह से सुधारने का प्रयत्न करूंगा, लेकिन सार्वजनिक विषयों में मेरे प्रमुख निर्णय ज्यों के त्यों बने रहेंगे।Ó
‘मेरी कहानीÓ लिखने में नेहरू ने प्राय: कार्ल माक्र्स और लेनिन की रचनाओं का सहारा लिया, भारत के राजनीतिक संघर्ष से घनिष्ठï रूप से जुड़े हुए अपने जीवन की मिसालें देकर देश में बुर्जुआ राष्टï्रवाद के विकास क्रम को दर्शाया, वर्ग संघर्ष के कारणों पर प्रकाश डाला, गांधी के अहिंसा सिद्घांत का विश£ेषण किया, भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांप्रदायिक समस्याओं की विवेचना की, साम्राज्यवाद के भेडिय़ा स्वभाव को बेनकाब किया और पश्चिमी जनवाद के पाखंड की खिल्ली उड़ायी।
‘मेरी कहानीÓ से पता चलता है कि फरवरी 1927 में उत्पीडऩ जनों की ब्रसेल्$ज कांग्रेस की शिरकत और उसी साल नवंबर में मास्को की यात्रा ने ही नेहरू की समाजवाद में गहन जिज्ञासा जागृत की थी और उन्हें अपने देश की आ$जादी और सामाजिक व आर्थिक प्रगति के लिए लडऩे के सबसे सही मार्ग की खोज के वास्ते प्रेरित किया था। ‘मेरी कहानीÓ नेहरू के जीवन की घटनाओं का विवरण न होकर एक विश£ेषणात्मक रचना थी। उसे लिखने के पीछे नेहरू का मंतव्य पाठक का ध्यान अपने व्यक्तित्व की ओर खीचना $कतई न था।
उन्होंने अपने को चिर सत्यों के उद्घोषक पैगंबर के रूप में पेश नहीं किया, अपनी भटकनें खुले आम स्वीकारी और अपने कृुछ निष्कर्षों पर खुद ही प्रश्रचिन्ह लगाया। संक्षेप में, वह सत्य की ईमानदारी से और लगातार खोज करते रहे।
नेहरू की इस किताब के विभिन्न देशों में दर्जनों संस्करण निकल चुके हैं और समय के साथ वह भारत के आधुनिक इतिहास का अध्ययन करने तथा समझने के लिए एक सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत-ग्रंथ है। -रईसा मलिक