भारत में हमें कई ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जो पर्यावरण-संरक्षण के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पहलुओं को उजागर करते हैं। गढ़वाल की पहाडि़यों में गौरा देवी, चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में हुआ चिपको आंदोलन तो अभी ताजी घटना ही है, पर इस आंदोलन की प्रवर्तक गौरा देवी ने जहां से प्रेरणा ली, वह वि’व इतिहास का एक अनुपम अध्याय है, जिसमें वृक्ष-रक्षा के लिए 363 स्त्री-पुरुष, यहां तक कि छोटे बच्चे भी स्वेच्छा से बलिदान हो गये। उन्होंने न तो पर्यावरण-संरक्षण की किताबें पढ़ी थीं और न ही किसी सेमिनार में भाग लिया था। वे तो बस जानते थे कि ये पेड़, प’ाु-पक्षी, जल और वायु ई’वर-प्रदत्त हैं। अतः इनकी रक्षा करना हमारा धर्म है। इस आस्था के कारण ही जोधपुर में ‘भादों शुक्ल द’ामी‘ को वह अनुपम घटना घटित हुई, जो पर्यावरण-संरक्षण के लिए स्थायी प्रेरणा का आधार है।
भादों बदी अष्टमी (वि0सं0 1508) को ग्राम पीपासर (मारवाड़, राजस्थान) में अवतरित हुए ‘गुरू जम्भे’वर‘ ने समाज के सुचारू संचालन के लिए 29 नियमों को प्रचलित किया। इन्हीं बीस और 9 नियमों के कारण इनके ’िाष्य ‘बि’नोई‘ कहलाने लगे। इन नियमों में हरे पेड़ को न काटना, प’ाु-पक्षियों को न मारना, जल को गंदा न करना आदि समाहित थे। इसी कारण बि’नोइयों के गांवों में प’ाु-पक्षी निर्भय होकर घूमते थे। सन् 1730 में इन पर्यावरण-प्रेमियों के सम्मुख परीक्षा की वह महत्वपूर्ण घड़ी आयी, जिसमें उत्तीर्ण होकर इन्होंने वि’व-इतिहास में स्वयं को अमर कर लिया।
सन् 1730 (संवत 1787) में जोधपुर नरे’ा अजय सिंह को चूना पकाने के लिए ईंधन की आव’यकता पड़ी। राजा का आदे’ा पाकर सैनिकों के साथ अनेक लकड़हारे निकटवर्ती गांव खेजड़ली में शमी वृक्षों को काटने चल दिये। जैसे ही यह समाचार बि’नोइयों को मिला, वे इसका विरोध करने लगे। कुछ समय तो मनुहार चलती रही, पर वे सैनिक तथा लकड़हारे भला क्यों मानते? अन्ततः एक साहसी महिला ‘इमरती देवी‘ के नेतृत्व में ग्रामवासियों ने ऐसा अभूतपूर्व सत्याग्रह किया, जिसने राजा को स्वयं वहां उपस्थित होकर अपनी राजाज्ञा वापिस लेने पर विव’ा कर दिया।
इमरती देवी के साथ सैंकड़ों ग्रामवासी, जिनमें बच्चे और बड़े स्त्री और पुरुष सब शामिल थे, पेड़ों से लिपट गये। उन्होंने सैनिकों को बता दिया कि उनकी देह के कटने के बाद ही कोई हरा पेड़ कट पायेगा। सैनिकों पर भला इन बातों का क्या असर होना था? उन्होंने पेड़ कटवाने शुरू कर दिये, पर वृक्षों के साथ-साथ क्रम’ाः ग्रामवासियों के अंग-प्रत्यंग भी धरती पर गिरने लगे। ग्रामवासियों की मान्यता थी कि- ‘दाम लिया दाग लागे, टुकड़ो न देवो जान, सिर साठै रूंख रहे, तो भी सस्तो जान।‘ अर्थात सिर देकर यदि वृक्ष की रक्षा होती है, तो भी यह सौदा सस्ता ही है।
सबसे पहले ‘इमरती देवी‘ पर ही कुल्हाडि़यों के निर्मम प्रहार हुए और वह वृक्ष-रक्षा के लिए प्राण देने वाली वि’व की पहली महिला बन गयीं। यह घटना भादों शुक्ल 10 को घटित हुई थी। पर क्रूर कुल्हाडि़यां इतने पर ही शांत नहीं हुई, उन्हें तो हजारों वृक्षों की आव’यकता थी। इसलिए कुल्हाडि़यां चलती रहीं और ग्रामवासी भी प्रकृति माता की गोदी में चिर विश्राम पाते रहे। भादों शुक्ल 10 (5 सितम्बर 1730) को प्रारम्भ हुआ यह बलिदान-पर्व पूरे 27 दिन तक चलता रहा। सैनिक और लकड़हारे राजाज्ञा से बंधे थे, तो ग्रामवासी धर्माज्ञा से। इन 27 दिनों में 363 बलिदानियों ने अपनी देह अर्पण की, इनमें इमरती देवी की तीनों पुत्रियों सहित 69 महिलाएं भी थीं। अन्ततः राजा को झुकना पड़ा। उसने स्वयं आकर क्षमा मांगी और हरे पेड़ों को काटने पर प्रतिबंध लगा दिया।
ग्रामवासियों को राजा से कोई व्यक्तिगत बैर तो था नहीं, अतः उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। उस ऐतिहासिक घटना की याद में आज भी वहां ‘भादों शुक्ल 10‘ को बड़ा मेला लगता है। कुछ वर्ष पूर्व से राजस्थान शासन ने वन, वन्य जीव तथा पर्यावरण-रक्षा हेतु ‘अमृता देवी बि’नोई स्मृति पुरस्कार‘ तथा केन्द्र शासन ने 16 जुलाई 2000 से ‘अमृता देवी बि’नोई पुरस्कार‘ देना प्रारम्भ किया है। बि’नोइयों में हरे पेड़ों और जीव-जन्तुओं के प्रति प्रेम आज भी विद्यमान है। कुछ वर्ष पूर्व जब सलमान खान और उसके बददिमाग मित्रों ने जोधपुर के वनों में काले चीतल के ’िाकार से नये वर्ष (1999) का ज’न मनाया चाहा, तो ग्रामीणों ने इन्हें पुलिस के हवाले कर दिया था। आज भी वे उसकी तारीखें भुगत रहे हैं। यद्यपि हमारी कानून व्यवस्था में जैसे छेद हैं, उससे लगता है कि ये अपराधी बच जायेंगे।
अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन करते हुए 2 अक्टूबर 1996 को ग्राम सामतसर (चुरू, राजस्थान) के श्री निहालचन्द्र बि’नोई ने एक हिरण के लिए अपना जीवन दे दिया था। जब ’िाकारियों से बचकर एक घायल हिरण-’ाावक उनकी गोदी में आ छिपा, तो ’िाकारियों ने उसे अपने हवाले करने को कहा। इस पर निहालचन्द्र ने राजा ’िाबि की तरह हिरन के बदले स्वयं को प्रस्तुत कर दिया। क्रुद्ध ’िाकारियों ने उसे ही गोली मार दी।
1999 मंे राष्ट्रपति ने निहालचन्द्र को जीवरक्षा के लिए मरणोपरान्त ‘’ाौर्य चक्र‘ देकर सम्मानित किया। इसी प्रकार ग्राम नाढ़ोरी (हिसार, हरियाणा) की श्रीमती रामोदेवी बि’नोई द्वारा 1978 में अपने ’िा’ाु के साथ एक मातृ विहीन हिरण-’िा’ाु को भी दूध पिलाकर पालने की घटना प्रका’ा में आयी थी। क्या इस प्रकार के उदाहरण वि’व-इतिहास में कहीं उपलब्ध हैं?
ये सब घटनाएं बताती हैं कि पर्यावरण-संरक्षण के लिए पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक जागरूक होती हैं। इसका कारण उनके अंतर्मन में बसी मातृत्वभावना ही है। ग्रामीण पर्वतीय, जनजातीय तथा निर्धन महिलाओं का तो अपनी रोटी-रोजी के लिए इनसे नित्य पाला पड़ता है। अतः पर्यावरण-संरक्षण की कोई भी योजना इन तेजस्वी महिलाओं के सक्रिय सहभाग के बिना सफल नहीं हो सकती।
आव’यकता इस बात की है कि इनके चरणों में बैठ कर हमारे समाज के वे लोग पर्यावरण-संरक्षण के पाठ सीखें, जिन्हें ग्रामीण परिवे’ा से बदबू आती है। इसीलिए उन्होंने पर्यावरण-रक्षा हेतु दिये जाने वाले पुरस्कार में ‘इमरती देवी‘ का नाम ‘अमृता देवी‘ कर दिया। पर्यावरण-संरक्षण के लिए जागृति शहरी क्षेत्रों और शहरी मानसिकता वाले लोगों में लाने की अधिक आव’यकता है।
पर यह जागृति केवल जुलूस और नारों से नहीं आयेगी। इसके लिए हमें अपने सम्मुख कोई प्रेरक उदाहरण रखना होगा। इमरती देवी और उसके परिवार का बलिदान वि’व-इतिहास की अप्रतिम घटना है। इसलिए यही तिथि वास्तविक ‘वि’व पर्यावरण दिवस‘ होने योग्य है। हिन्दी तिथि (भादों शुक्ल 10) को स्वीकार करने में यदि असुविधा हो, तो हम अंग्रेजी तिथि 5 सितम्बर को ही ‘पर्यावरण दिवस‘ के नाते अपना सकते हैं।
क्या ही अच्छा हो, यदि हम विदे’ाों की चिंता छोड़कर अपने दे’ा से इसे प्रारम्भ करें।
0 विजय कुमार