अपने जमाने की मशहूर और अद्वितीय आवाज की मलिका गीता दत्त का असली नाम गीता राय था। 1930 में फरीदपुर (अब बंगलादेश का भाग है) में जन्मीं और बचपन से ही अभावों और मुफलिसी में पलने वाली गीता अल्प आयु में ही रोजी-रोटी की खातिर हनुमान प्रसाद से गायिकी की शिक्षा ग्रहण करने लगीं।
हनुमान प्रसाद जी संगीतकार के साथ-साथ गीता राय के घर वालों के लिए एक मसीहा भी थे। इन्होंने 16 वर्ष की कम उम्र में ही गीता राय से फिल्म ‘भक्त प्रह्लïादÓ के लिए प्रथम गीत ध्वनिबद्ध कराया था। विष्णु सिने पिक्चर्स के बैनर तले 1946 में प्रदर्शित इस फिल्म में लीला चिटणीस, उल्हास, दीक्षित, अनंत मराठे और तिवारी ने केंद्रीय भूमिकाएं निभाई थीं।
फिल्म के निर्देशक थे धीरू भाई देसाई तथा संगीत में हनुमान प्रसाद के साथ थे के सी वर्मा। इस गाने से गीता को कोई विशेष लाभ तो नहीं पहुंचा, परंतु उनकी रोटी की समस्या कुछ दिनों के लिए अवश्य दूर हो गई। संगीतकार हनुमान प्रसाद और एस डी बर्मन आपस में गहरे मित्र थे। बर्मन दा ने गीता राय की आवाज सुनी और उनके कंठ से बहुत प्रभावित हुए। दूसरे, उनके दोस्त ने भी गीता के लिए सिफारिश की थी।
इस प्रकार बर्मन दा ने गीता से वह नगमा गवाया, जो न सिर्फ उनके जीवन का सबसे अच्छा गीत साबित हुआ, वरन वह गीत गीता राय के पूरे जीवन का वास्तविक अर्थ में सही प्रतिबिंब भी था। फिल्मिस्तान के बैनर में मुंशी दिल द्वारा निर्देशित, 1947 में रिलीज होने वाली फिल्म ‘दो भाईÓ का गीत ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया, मैं प्रेम में सब कुछ हार गई, बेदर्द जमाना जीत गया…Ó पाश्र्व गायिका गीता दत्त के 11 वर्ष के असफल दाम्पत्य जीवन की ओर इशारा करता है।
शादी के बंधनों में अपने हमराह दुखों को भी समेट कर गीता राय ने गुरुदत्त के जीवन में प्रवेश किया था। गीता राय की आवाज में केवल दर्द ही नहीं था, एक खनक भी थी, जो उस समय की अन्य पाश्र्वगायिकाओं से परे थी। गीता राय अपने दौर की दो प्रसिद्ध गायिकाओं अमीर बाई कर्नाटकी और शमशाद बेगम से काफी प्रभावित थीं।
उन्होंने अपनी आवाज में लोकगीतों की शैली का पुट भी पैदा किया, जिसका परिणाम उन्हें यह मिला कि उन्हें हर प्रकार के गीतों के लिए याद किया जाने लगा। जहां गीता राय ने, ‘आज सजन मोहे अंग लगा लो…Ó और ‘न जाओ सइयां छुड़ा के बहियां…Ó, ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम…Ó और ‘न यह चांद होगा न तारे रहेंगे…Ó जैसे गंभीर गाने गाये, वहीं ओ पी नैयर, नौशाद, एस डी बर्मन और मदन मोहन जैसे महान संगीतकारों ने इस पाश्र्वगायिका से ‘बाबूजी धीरे चलना…Ó, ‘आज की रात पिया दिल न तोड़ो…Ó, ‘ए दिल मुझे बता दे….Ó, ‘मेरा नाम चुन चुन चू…Ó तथा ‘जाता कहां दीवाने…Ó जैसे चंचल नगमों को लोगों के सामने प्रस्तुत करवाया।
जहां तक डूएट गानों का संबंध है, गीता राय ने मोहम्मद रफी के साथ फिल्म ‘छूमंतरÓ में ‘गरीब जान के हम को न तुम भुला देना…Ó आशा भोसले के साथ फिल्म ‘इंसान जाग उठाÓ में ‘जानो जानो रे काहे खटके है तोरा कंगना…Ó, हेमंत कुमार के साथ ‘न यह चांद होगा…Ó और लता मंगेशकर के साथ फिल्म ‘यहूदीÓ का गीत ‘बेचैन दिल खोई सी नजर…Ó जैसे सदाबहार नगमों को अपनी आवाज बख्शी।
इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि आशा भोसले जैसी महान गायिका अपने आरंभिक दिनों में और उसके बाद कहा जाए तो आज तक गीता राय की शैली को अपनाती रही हैं। गीता राय के जीवन में वह दिन भी आया, जब एक गाने की रिकार्डिंग के समय उनकी मुलाकात 1952 में अभिनेता–निर्माता–निर्देशक गुरुदत्त से हुई। यह वह समय था, जब गीता गुरुदत्त की फिल्म ‘जालÓ के लिए गाने की रिकार्डिंग कर रही थीं।
एक कलाकार ने दूसरे कलाकार को देखा, जांचा-परखा और दिल ने एक-दूसरे की धड़कनों को सुनकर एक हो जाने की गवाही दी। 1953 में गीता राय और गुरुदत्त ने विवाह रचा लिया और इस प्रकार गीता राय गीता दत्त बन गईं।
फिल्म ‘जोगनÓ (1950), ‘अनारकलीÓ (1953) और गुरुदत्त की फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज 55Ó (1955), ‘प्यासाÓ (1957), ‘कागज के फूलÓ (1959) एवं ‘साहब बीवी और गुलामÓ (1962) के लिए सदाबहार नगमें गाने वाली गीता दत्त के जीवन में उस समय भूचाल आ गया और उनकी जिंदगी में दुख और गमों ने डेरा डाल दिया, जब फिल्म ‘सीआईडीÓ से गुरुदत्त ने हैदराबाद से आई हुई एक नवयौवना को फिल्म इंडस्ट्री में इंट्रोड्यूज किया, जिसकी खूबसूरत अदाओं ने गुरुदत्त को दीवाना बना दिया और वह कहने लगे- ‘किसी की चाह में दुनिया को हैं भुलाए हुए, जमाना गुजरा है अपना ख्याल आए हुए…Ó।
वह हसीना कोई और नहीं, बल्कि हिंदी फिल्मों की खूबसूरत अदाकारा वहीदा रहमान थीं। गुरुदत्त ने वहीदा के हुस्न से ही प्रभावित होकर ‘चौदहवीं का चांदÓ बनाई, जो उनकी सफलतम फिल्मों में से एक है। गुरुदत्त के जीवन में आने वाले इस बदलाव को गीता दत्त बरदाश्त न कर सकीं और उन्होंने गुरुदत्त से अलग रहना शुरू कर दिया। विवाहोपरांत गीता ने जो ऑफर्स ठुकराए थे, वे फिर उनके पास आने लगे।
उन्होंने अपने को व्यस्त रखने के लिए संगीतकारों से संपर्क भी स्थापित करना प्रारंभ कर दिया। समय बीतता गया, परंतु दुखों के पहाड़ ने उस दौरान गीता को रोग के रूप में जकड़ लिया। गीता दत्त तिल-तिल करके समाप्त होने लगीं। इससे पहले कि गीता दत्त इस दुनिया से मुंह मोड़तीं, उन्हें एक ऐसा अहसनीय दुख भी झेलना पड़ा, जो उनके जीवन का सबसे बड़ा और अंतिम दुख था, यानी गुरुदत्त की अकस्मात मृत्यु।
10 अक्टूबर, 1964 को गुरुदत्त ने भारी संख्या में नींद की गोलियां खाकर अपने आप को समाप्त कर लिया था। गीता दत्त ने इस गम को अपने सीने से लगाए स्वयं को 8 वर्ष तक जीवित रखा और अंत में 20 जुलाई, 1972 को खुद भी इस संसार से मुंह मोड़ लिया। इस प्रकार दो कलाकारों के वास्तविक जीवन पर आधारित वह कहानी समाप्त हो गई, जिसकी नींव दर्द और केवल दर्द पर रखी गई थी।
‘मेरा सुंदर सपना बीत गया, मैं प्रेम में सब कुछ हार गई, बेदर्द जमाना जीत गया…Ó पाश्र्व गायिका गीता दत्त के 11 वर्ष के असफल दाम्पत्य जीवन की ओर इशारा करता है। शादी के बंधनों में अपने हमराह दुखों को भी समेट कर गीता राय ने गुरुदत्त के जीवन में प्रवेश किया था…
वक्त ने किया क्या हसीं सितम, हम रहे न हम…Ó रहना तो किसी को नहीं है इस संसार में। जाना तो सभी को है, परंतु जिस प्रकार गीता दत्त गईं, वह सदा दिल को कचोटता रहेगा। गीता दत्त की पूरी जिंदगी एक ट्रेजडी थी। उनके बचपन और जवानी पर सदा दुख, कष्टï एवं गमों के साये मंडराते रहे, यहां तक कि विवाहोपरांत उनको इतना संताप झेलना पड़ा कि उन्होंने उससे छुटकारा पाने के लिए यह संसार ही त्याग दिया।
गीता दत्त का स्वर्गवास हुए 31 वर्ष बीत गए, परंतु वह अपनी आवाज के माध्यम से आज भी हमारे बीच जीवित हैं। गीता दत्त द्वारा गाए गए गीतों की संख्या बहुत अधिक तो नहीं है, परंतु उस फनकार ने जो भी गीत गाया, वह हिंदी फिल्म संगीत के खजाने का अनमोल मोती बन गया।
– जलाल सिद्दीकी