पी एस आई का अर्थ होता है मानसिक शक्तियों द्वारा भौतिक शक्तियों का नियंत्रण। टेलीपैथी, अतीन्द्रीय दृष्टिï, पूर्वज्ञान तथा साइकोकाइनेसिस का यह मिश्रण आजकल आधुनिक विज्ञान को चुनौती देने में लगा हुआ है। पहले पी एस आई का अस्तित्व केवल कुछ व्यक्तियों के निजी अनुभवों तक ही सीमित था। बाद में परामनोवैज्ञानिकों ने उसे प्रयोगशाला में परम्परागत वैज्ञानिक परीक्षणों से भी सिद्घ करने की कोशिश की यद्यपि उन्हें कुछ सीमा तक ही सफलता मिली लेकिन आज भी उनका यह दावा बरकरार है कि वे पी एस आई की प्रामाणिकता को सही सिद्घ करके दिखा देंगे।
यूनानी वर्णमाला के 23वें अक्षर से प्राप्त किए गए पी एस आई का अर्थ होता है- अज्ञात मात्रा। वैज्ञानिक समीकरणों में इस अक्षर का प्रयोग इसी रूप में होता है लेकिन मनोविज्ञान के प्रोफेसर जे.बी. राइने ने इस शब्द को टेलीपैथी, अतीन्द्रीय दृष्टिï पूर्वज्ञान तथा साइकोकाइनेसिम अर्थात्ï पी के की मिली जुली अभिव्यक्ति के रूप में प्रयोग किया।
वैज्ञानिक पीएसआई के इन चार तत्वों को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है। टेलीपैथी का अर्थ होता है दूसरे के मस्तिष्क के विचार पढऩा अथवा दो व्यक्तियों के बीच सीधा मानसिक संपर्क, अतीन्द्रीय दृष्टिï का अर्थ होता है किसी घटना या वस्तु के बारे में किसी प्रत्यक्ष माध्यम के बिना जान लेना, पूर्वज्ञान का अर्थ होता है मौजूदा ज्ञान की बिना मदद लिए हुए भविष्य की घटनाओं को जान लेना तथा पी के का अर्थ होता है बाह्यï पदार्थ में मस्तिष्क की शक्ति द्वारा परिवर्तन कर पाने की क्षमता रखना।
राइने की कोशिश थी कि इन गैर सामान्य परिघटनाओं की ज्ञात और सामान्य वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा कैसे व्याख्या की जाए? राइने का विश्वास था कि जिस तरह 18वीं शताब्दी की न्यूटन की भौतिकी निरंतर शोध करने पर 20वीं शताब्दी की आइंस्टीन वाली भौतिकी में विकसित हो गई, उसी तरह पीएसआई के संबंध में शोध करते रहने से एक न एक दिन विज्ञान का भी इस दिशा में विकास संभव है। राइने के सामने प्रमुख समस्या यह थी कि पीएसआई का अस्तित्व केवल व्यक्तियों के अनुभवों तक ही सीमित था। कुछ व्यक्तियों को विश्व के किसी कोने में पी एस आई के चार तत्वों के अनुभव अवश्य होते थे लेकिन वे अनुभव अपने पीछे उल्काश्म या जीवाश्म जैसी कोई वास्तविकता नहीं छोड़ जाते थे। इसलिए राइने ने ध्वनियों और ताशों की मदद से पी एस आई के रूप में कार्यरत रहस्यमय शक्तियों की व्याख्या करने की कोशिश की।
राइने ने ही नहीं वरन्ï पेरिस में चाल्र्स रिचेट स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में जान कुंवर हारवर्ड विश्वविद्यालय में जार्ज इंस्टाब्रुक्स तथा विलियम मैकडोगाल ने प्रयोगशाला की नियंत्रित परिस्थितियों में पी एस आई की जांच की। सन्ï 1920 में अपटोन सिक्लेयर ने अपनी पत्नी मेरी के साथ टैलीपैथी का संपर्क बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसके अनुसार मेरी ने अपने पति के बनाए हुए 100 साधारण चित्रों को बिना एक बार भी देखे हुए लगभग समान रूप से बना दिया था। आइंस्टीन ने सिक्लेयर के प्रयोगों की ईमानदारी पर संदेह न करने की सलाह दी थी। स्वयं फ्रायड ने सन्ï 1921 में कहा था कि यदि उन्हें पुन: जीवन जीने के लिए मिले तो वे मनोविश£ेषण पर शोध करने के बजाए पीएसआई जैसी चीजों पर शोध करना पसंद करेंगे।
राइने ने अपने प्रयोगों के लिए जनता के कई तबकों में से व्यक्तियों को छांटा। उन्होंने ड्ïयूक परिवारों के सदस्यों तथा उन छात्रों को लिया, जिन्होंने किसी पराशक्ति का दावा नहीं किया था। टेलीपैथी के लिए राइने ने संदेश भेजने वाले व्यक्ति से ताश पर बने चिन्ह् पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा। किसी दूसरे भवन में बैठा एक अन्य व्यक्ति उस संदेश को प्राप्त करके परिणाम कागज पर उतार देता था। अतीन्द्रीय दृष्टिï के प्रयोगों में व्यक्ति से ताश का सीधे-सीधे पता लगाने तथा पूर्वज्ञान के प्रयोगों में गड्डïी को फेंटने से पहले ही यह पता लगाने के लिए कहा कि फेंटने के बाद ताश का पत्ता किस जगह होगा। राइने ने पाया कि जिन व्यक्तियों पर उन्होंने प्रयोग किया था उनमें से प्रत्येक ने 25 ताशों की गड्डïी में से 5 सही अनुमान लगाने में सफलता प्राप्त की है। बाद में राइने ने ऐसे 8 व्यक्ति खोज निकाले, जिन्होंने इस सीमा से अधिक अर्थात्ï 85,724 परीक्षणों में 24,364 सफलताएं प्राप्त कीं। ये लोग 5 के औसत से निकाले गए। संयोग से ये 7,219 बार अधिक सफल हुए थे। इन आठ लोगों में से भी सबसे अधिक सफल व्यक्ति था ह्यïूबर्ट पियर्स, जो ड्ïयूक स्कूल ऑफ रिलीजन में धर्म का विद्यार्थी था। सन्ï 1933 व 1934 में अलग-अलग और दूर-दूर स्थित भवनों में बैठकर पियर्स तथा मनोवैज्ञानिक जे. गाइथर पैट ने अतीन्द्रीय दृष्टिï के कई प्रयोग किए और 1,850 परीक्षणों में इतनी अधिक सफलता प्राप्त की कि पीएसआई आलोचकों को भी यह मानना पड़ा कि संयोग के अलावा और भी कोई शक्ति इन परीक्षणों में काम कर रही थी।
सन्ï 1934 में राइने ने ‘एक्स्ट्रा सेंसरी परसेप्शनÓ नामक पुस्तक लिख कर अपनी खोजों को प्रकाशित किया, जिसकी विश्व भर के वैज्ञानिकों ने आलोचना की। वैज्ञानिकों का मत था कि ईएसपी के अस्तित्व पर विश्वास करने के बाद नहीं वरन्ï उस पर अविश्वास करके ही सुस्थापित प्रक्रियाओं द्वारा इसकी व्याख्या करने की कोशिश करनी चाहिए। राइने के तरीकों में वैज्ञानिकों ने कई अनियमितताएं खोज निकालीं। जब सन्ï 1936 में राइने द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले जेनर ताशों की गड्डïी बाजार में बिकने के लिए आई तो पता चला कि खास तरह के प्रकाश में जेनर ताशों के चिह्नï उनकी पीठ तथा उनकी बगलों से भी देखे जा सकते हैं। ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक सीईएम हांसेल ने एक पुस्तक लिख कर पीएसआई के प्रयोगों को हाथ की सफाई की संज्ञा दी।
विज्ञान इन्हीं आरोपों से बचने के लिए एक ही प्रयोग को दोहराने पर समान परिणाम लाने की आवश्यकता पर बल देता है। जब राइने ने स्वयं अपने प्रयोग दोहराए तो उन्हें मिश्रित परिणाम प्राप्त हुए न कि पहले जैसे परिणाम। इस तरह पीएसआई और विज्ञान में युद्घ छिड़ गया। सन्ï 1935 में ड्ïयूक ने परामनोविज्ञान की एक प्रयोगशाला स्थापित की, जिसका डायरेक्टर राइने को बनाया गया। इस प्रयोगशाला में राइने ने परामनोविज्ञान को मनोविज्ञान तथा अन्य परम्परागत विज्ञानों से काट कर अलग कर दिया।
विज्ञान ने परामनोविज्ञान को जिस मुख्य आधार पर स्वीकार करने से इंकार कर दिया है, वह है समय और अंतरिक्ष की ज्ञात धारणाओं के बदलने वाली धारणाओं को प्रस्तुत करने में उसकी असफलता। विज्ञान केवल तथ्यों के आधार पर ही नहीं वरन्ï उनकी व्याख्या के आधार पर भी निर्मित होता है। आधुनिक परामनोवैज्ञानिकों का दावा है कि वे पीएसआई का अस्तित्व संदेह से परे सिद्घ कर के दिखा देंगे। विद्वानों की चुनौती यह है कि जब तक पीएसआई के शोधकर्ता किसी भी समय मांग किए जाने पर पीएसआई का प्रदर्शन नहीं कर देते या पीएसआई की क्रियाओं का एक तर्कसंगत सिद्घांत नहीं पेश कर देते तब तक इसे विज्ञान की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
पीएसआई के शोधकर्ता ने तमाम क्षेत्रों में अपने हाथ आजमाए हैं। उनका दावा है कि यह शक्ति मनुष्यों में ही नहीं पशुओं में भी होती है। पशु खतरे को और मौसमों के परिवर्तनों को समझ लेते हैं तथा अपनी विशिष्टï टेलीपैथी शक्ति से काफी दूर होते हुए भी अपने मालिक को खोज निकालने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा परामनोवैज्ञानिकों ने मानव मस्तिष्क की अपनी व्याख्या की है। उन्होंने पार्टीकल फिजिक्स तथा बायोफीडबैक तथा मस्तिष्क शोध का सहारा लेकर मस्तिष्क को दाएं और बाएं भाग में बांट कर देखना प्रारम्भ कर दिया है। उनका कहना है कि यदि सभ्यता को कायम रखना है और आज से 10 या 20 वर्ष बाद भी विज्ञान को विकासशील रहना है तो उसे अपना मूलभूत शोध कार्यक्रम मनोवैज्ञानिक ऊर्जा तथा मस्तिष्क व पूरे विश्व के संबंध में उसकी भूमिका की खोज पर लगाना चाहिए। स्थिति यह है कि अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि वर्तमान युग मनोविज्ञान का युग है। हम यह दावे के साथ नहीं कह सकते कि वर्तमान युग परामनोविज्ञान का युग भी है। इसके लिए जिन वैज्ञानिक प्रमाणों की आवश्यकता होती है, वे अभी तक मौजूद नहीं है। इसलिए स्वाभाविक है कि पीएसआई को एक रहस्यमय विद्या का दर्जा दे दिया जाए, जो विश्व की गति, मानव विकास की प्रक्रिया तथा सामाजिक विकास पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं डालती।
परामनोविज्ञानिकों का तर्क है कि अन्य क्षेत्रों में होने वाली अजीब-अजीब घटनाओं को विज्ञान शोध के योग्य मान लेता है तो परामनोविज्ञान की घटनाओं को भी विज्ञान द्वारा एक शोधनीय विषय क्यों नहीं माना जा सकता। विज्ञान उन घटनाओं को यथार्थ मानने से इंकार करता है, जो प्रयोगों द्वारा आम सिद्घांत के रूप में प्रतिपादित नहीं हो पाती।
बहरहाल, पीएसआई अपने चारों तत्वों को लिए हुए एक रहस्यमय चुनौती की तरह परामनोवैज्ञानिकों के सामने मौजूद हैं। यह अभी भी कुछ व्यक्तियों के अनुभवों तक ही सीमित है। यही इसका रहस्य है। जब तक कि परामनोवैज्ञानिक एक सार्वजनिक सिद्घांत की शक्ल में इन अनुभवों का विस्तार नहीं करते तब तक यह रहस्य बना ही रहेगा। – मनोज