सवाल-जहां तक मुझे मालूम है कि आप उत्तरप्रदेश में पुलिस सेवा में थे। पुलिस सेवा में रहते हुए आपका रूझान शायरी की तरफ कैसे हुआ?
जवाब-मैं कहना चाहता हूं कि जो हादसात जो घटनाएं और दुर्दांत काण्ड होते हैं उनको जितने करीब से हम देखते हैं उतने करीब से अवाम नहीं देखती। अगर आपके पास शायर दिल है तो आप उस घटना को, हादसे को बहुत करीब से महसूस करेंगे और उसे अपनी शायरी में ढाल पायेंगे। पुलिस सेवा में मेरे लिए यह बहुत अच्छा रहा की मैं घटनाओं को बहुत करीब से देखता महसूस करता और फिर उन्हें शायरी में ढालता था।
सवाल- लोगों का मानना है कि कोई भी जब तक ज़माने के हालात से दो-चार नहीं होता तब तक वह शायरी नहीं कर पाता इस बारे में आपका क्या कहना है?
जवाब-जी आपने कहा कोई करीब से गुज़रता है, कोई हादसात से दो-चार हो जाता है या फिर किसी को इश्क हो जाता है तो वह शायरी करने लगता है। लेकिन ऐसा नहीं है यह तो खुदादाद है, ये अल्लाह का करम है, इनायत है। बहुत से पढ़े-लिखे लोग हैं लेकिन हर आदमी शायरी नहीं कर सकता। पढ़े-लिखे लोग चांद पर रॉकेट तो भेज सकते हैं पर शायरी नहीं कर सकते, ये अल्लाह की अता है और उसे निखारना उस पर काम करना हर किसी के बस की बात नहीं जिसको अल्लाह ने सलाहियत दी है वही शायरी कर सकता है।
सवाल-अभी तक आप कहां-कहां मुशायरे पढ़ चुके हैं?
जवाब- जहां-जहां तक उर्दू बोली समझी जाती है पूरी दुनिया के तमाम मुल्कों में जाकर अपना कलाम मुशायरे में पढ़ चुका हूं। खासतौर से हमारे हिन्दुस्तान के लोग जहां-जहां मौजूद हैं-अमरीका, सऊदी अरब, यूएई, अमीरात आदि में मैंने मुशायरा पढ़ें हैं।
सवाल- आपकी कौन सी किताबें शाया हो गई हैं?
जवाब- मेरी किताब ‘सच के उन्वान (शीर्षक) से आ चुकी है।
सवाल- जहां तक मुझे मालूम है शायरी में उर्दू ज़बान का बड़ा रोल रहता है, तो आपने उर्दू पढ़ी है क्या?
जवाब- ये एक बहुत खूबसूरत सा वाकया है जिसे मैं मुख्तसर में बता दूं। 1981-82 में जब मैं पुलिस ऑफिसर था उस वक्त मेरी मुला$कात वसीम बरेलवी साहब से हुई, तो मैंने कहा सर मैं भी शेर कहता हूं। तो उन्होंने मुझसे पूछा कि बशर मियां क्या आप उर्दू जानते हैं तो मैंने कहा जी मैं उर्दू लिखना पढऩा तो नहीं जानता तो उन्होंने कहा कि आपको उर्दू पढऩा पड़ेगी। उनका कहना था और फिर मैंने 1983 में उर्दू ज़बान सीख ली थी।
सवाल- शायरी करना आपने कब शुरू की?
जवाब- मैं जब छठी क्लास में पढ़ रहा था तब से ही लिखना शुरू कर दिया था मेरे स्कूल की सालाना मेग्ज़ीन के लिए मैंने एक आज़ाद नज़्म लिखी थी। इसके बाद हम टूटे फूटे शेर कहते रहे। लेकिन जब वसीम बरेलवी जी ने कहा कि आप शायरी करना छोड़ दें या फिर आपको उर्दू जु़बान पढऩा-लिखना सीखना होगा। तो ये उनका बड़ा करम, एहसान है, फिर मैंने उनको अपना उस्ताद माना। और ये उनका करम था कि उन्होंने मुझे उर्दू जु़बान सिखवाई। उनका एक शार्गिद थे डॉ. कैसर साहब तो उनकी जि़म्मेदारी लगाई कि आप इनके थाने पर जाएंगे और इनको एक घण्टा रोज़ उर्दू सिखायेंगे। तो आज मैं कैसर साहब का भी शुक्रगुज़ार हूं जो कि आज खुद बहुत बड़े मकाम पर हैं ने मुझको उर्दू सिखाई।
सवाल-आपसे गुज़ारिश है कि हमारे दर्शकों को अपने कुछ पसंदीदा अशआर पढ़ सुनायें?
जवाब- जी ज़रूर सबसे पहले तो मैं उर्दू ज़बान के मुताल्लिक से ही चार मिसरे पेश करता हूं-
कि ऐसी मज़लूम ज़बाँ से है ताल्लुक अपना
वो किताबें हो कि अखबार नहीं पढ़ सकते
और शायरी अपनी ज़माने के लिए कुछ हो बशर
मगर मेरे बच्चे मेरे अशआर नहीं पढ़ सकते।
चाहे बुरा मानें या भला मानें यह सच्चाई है कि आज के बड़े से बड़े कई शायरों के बच्चे भी उर्दू स्क्रिप्ट नहीं जानते। तो फिर किस बात का दावा करते है कि उर्दू का मुस्तकबिल (भविष्य) बहुत रोशन है।
जी नहीं सकता तो जीने की तमन्ना छोड़ दे,
बहते-बहते जो ठहर जाए वो दरिया छोड़ दे।
ज़लज़लों की ज़द पे हैं ऊंचे मंकां ऊंचे महल,
ए ज़मीं वाले फ़लक की सैर करना छोड़ दे।
फूल था मैं मुझको इक कांटा बनाकर रख दिया
और अब कांटे से कहते हो कि चुभना छोड़ दे।
कोई मंजि़ल है नज़र के सामने अय बशर,
या तो पा के दम ले या उसकी तमन्ना छोड़ दे।।

साक्षात्कारकर्ता- रईसा मलिक