फैज अहमद फैज अपने समय के बहुत प्रसिद्ध और हर दिल अजीज शायर थे। उनका जन्म 13 फरवरी 1917 को सियालकोट (पाकिस्तान) के करीब एक गांव में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा चर्च मिशन स्कूल सियालकोट में प्राप्त की। उनके पिता चैधरी सुल्तान मोहम्मद ऊंचे पदों पर रहे, सियालकोट में बैरिस्टरी भी की। फैज ने उच्च शिक्षा लाहौर में प्राप्त की। यहीं से अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद अंग्रेजी के लेक्चरर के रूप में अमृतसर के एक कालेज में 1935 से पढाना शुरू किया। बाद में वह लाहौर आ गए और यहां वह पढाने के साथ-साथ ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में भी भाग लेने लगे।
विभाजन से 6 माह पूर्व वह पाकिस्तान टाइम्स के सम्पादक नियुक्त हुए। परंतु 3 वर्ष के अंदर-अंदर पाकिस्तान की सेना ने रावलपिंडी साजिश केस में गिरफ्तार कर लिया और चार वर्ष तक वो कैद में रहे।
फैज का पहला संकलन नक्शे फरियादी (1945) में प्रकाशित हुआ। दस्ते सबा (1952) के प्रकाशन से उनकी प्रसिद्धि बहुत बढ गई। इनके कुल 7 काव्य संकलन प्रकाशित हुए हैं। अन्य पांच के नाम हैं ः जिन्दानामां (1956), दस्ते तह संग (1964), सरावादी सीना (1971), शामे शहरयारां (1974), मेरे दिल मेरे मुसाफिर (1982)।
फैज का इंतकाल 20 नवम्बर 1984 को लाहौर में हुआ। उनको सोवियत यूनियन का सबसे बडा सम्मान लेनिन शांति पुरस्कार‘ भी दिया गया। फैज उर्दू शायरी को तरक्की पसंद तहरीक की सबसे बडी देन थे। वो एक दर्दमंद दिल रखते थे। उन्होंने जिन्दगी में बडी से बडी सख्तियां झेली मगर जुल्म और नाइंसाफी के साथ समझौता नहीं किया। वो गजल और नज्म दोनों विधाओं में महारत रखते थे।
फैज की रचनाएं
ख्वाब बसेरा
इस वक्त तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब, न सूरज, न अंधेरा, न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल के पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो, मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आखिरी फेरा
शाखों में ख्यालों के घने पेड की शायद
अब आके करेगा न कोई ख्वाब बसेरा
इक बैर, न इक महर, न एक रब्त, न रिश्ता
तिरा कोई अपना, न पराया कोई मिरा
माना कि ये सुनसान घडी सख्त बडी है
लेकिन मिरे दिल ये तो फकत एक घडी है
हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पडी है।
गजल
शामे फिराक अब न पूछ, आई और आके टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर संभल गई
बज्मे-ख्याल में तेरे हुस्न की शम्मा जल गई
दर्द का चांद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक गई
जब तिरा गम जगा लिया, रात मचल-मचल गई
दिल से वो हर मुआमला, करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने बात, बदल-बदल गई
आखिरे-शब के हमसफर ‘‘फैज’’ न जाने क्या हुए
रह गई किस जगह सबा, सुबह किधर निकल गई