आधा घंटा हो गया पत्रिका के पन्ने पलटते हुए। किचेन से लगे बाथरूम से कपड़े धोने की आवाज आ रही थी। मैïं कमरे का मुआयना करने लगा। कमरे के बीच रखी मेज के चारोंï ओर सोफे, पीछे की ओर सिंगल बेड पलंग व दायीïं ओर पानी मेंï तैरती रंगीन मछलियोïं से भरा एक्वेरियम तथा दीवारोïं पर काफी खूबसूरत पेन्टिंग्स। सामने कोने पर टी.वी. और टी.वी. के ऊपर उसकी और राजेश की तस्वीर। मेज पर दो खाली कप।
‘बैठो, चाय बना लाती हूँÓ कहकर वह चाय बनाने चली गयी थी। थकान की वजह से मैïं कितनी देर सोफे पर पड़ा रहा, पता ही न चला। मुरादनगर से नयी दिल्ली-मेरठ शटल से डेढ़ घंटे का सफर, और फिर यहाँ तक आते-आते आधे घंटे तक बस की भीड़ मेंï पिसकर पोर-पोर फटा जा रहा था।
‘अरे, पंखा तो चला लेते…। कैसे बैठे हो गर्मी मेïं…?Ó
उसकी आवाज सुनते ही मैïंने चौïंक कर देखा, उसने चाय से भरे दो कप मेज पर रखे और पंखे का स्विच ऑन करके मेरे सामने बैठ गई।
‘काफी थके लग रहे हो…?Ó
‘हाँ, अब क्या बताऊँ…. एक तो गाड़ी ही दो-तीन जगह आउटर पर रुक गई, ऊपर से इतनी गर्मी और बस की भीड़।Ó
‘घर से कोई चि_ïी तो नहींï आयी.. सब कैसे हैं….?Ó
‘बस, सब ठीक हंैï। अभी दो-चार दिन पहले ही चि_ïी आई थी।Ó इतना कहकर मैïं थोड़ी देर के लिए चुप हुआ और फिर उससे पूछ बैठा, ‘तुम सुनाओ?Ó
‘कोई खास नहींï, वही रूटीन सा ही है सब कुछ। उनको ऑफिस भेजो, सोनू और पिंकी को स्कूल और फिर तुम जानते ही हो, कपड़े धोना, नहाना और खाना बनाना बस वही एक जैसा….।Ó
और फिर एकाएक चौïंकते हुए बोली- ‘तुम बैठकर पत्रिकाएँ देखो, तब तक मैंï कपड़े धो लूँ… थोड़े ही रह गए हैïं…।Ó
जल्दी-जल्दी चाय खत्म करते कप वहीï मेज पर रख कर वह बाथरूम की ओर चल दी। मेज के नीचे से एक पत्रिका निकालकर मैंï पन्ने पलटने लगा। बीच-बीच मेï उस कमरे से अपना रिश्ता तलाशने की कोशिश करने लगा। सामने टी.वी. पर रखी तस्वीर मेïं वह मुस्कराती हुई मेरी ओर ताक रही थी। उन दिनोïं भी वह मुझे ऐसे ही मुस्कराते हुए देखती थी, जब हम दोनोï एक ही स्कूल की एक ही क्लास मेïं पढ़ते थे। एक साथ बालू के घरौïंदे बनाते हुए लड़ बैठते थे। कभी वह मेरे और मेरे दोस्तोïं के साथ ‘आई स्पाईÓ खेलती तो कभी मैंï उसके और उसकी सहेलियोïं के साथ ‘कड़क्कोÓ खेलने लगता था। खेलते वक्त कभी वह मुझे छेड़ देती, ‘ऐ हेï…. लड़कियोïं के साथ खेलता है.. शर्म नहीïं आती छी..।Ó
उसके साथ-साथ उसकी सहेलियाँ मुझ पर हँसने लगतीï। मैंï उस पर बिगड़ते हुए गिट्टिïयाँ फेïंककर चला आता और अगली बार उसे अपने साथ खेलने से मना करके सोचता कि मैïंने बदला ले लिया पर एक-दो दिन बाद मुझे अपने इस बर्ताव पर बहुत गुस्सा आता और उसके लिए दुख भी होता, तब मैंï किसी न किसी बहाने उससे फिर दोस्ती कर लेता। कभी अपने जेब खर्च से स्कूल के बाहर ठेलेवाले दीनू से खरीदकर उसे चूरन खिलाता तो कभी अपनी नयी पेïंसिल या रबर उसे देकर घर पर खो जाने का बहाना बना देता। थोड़ी बहुत डाँट पड़ती, वह सह जाता और फिर उसके साथ घंटोïं, पिछवाड़े नीम तले खेलता रहता। उस वक्त शालिनी के चेहरे पर खुशी की चमक देखकर मेरे अन्दर न जाने क्योïं एक मीठा झरना सा बहने लगता। उस दिन सुबह स्कूल जाते वक्त शालिनी की माँ ने बताया कि उसे बुखार चढ़ा है, इसलिए वह स्कूल नहीïं जाएगी। मुझे अकेले ही जाना पड़ा। दिनभर पढ़ाई मेंï मन नहीïं लगा। उसी के बारे मेï सोचता रहा। पता नहींï कैसी है? कहीï बुखार ज्यादा बढ़ तो नहीïं गया। कितनी तकलीफ हो रही होगी उसे। यही सब सोचते रहने के कारण उस दिन मास्टर साहब के सवालोïं का जवाब ठीक से नहींï दे पाया और पिटाई हो गई। घर आया तो पता चला कि उसका बुखार बढ़ चुका था, अत: उसके घर गया।
लगभग एक माह वह अस्पताल मेंï भर्ती रही। मैïं माता-पिता संग रोज उसे देखने जाता। कितनी कमजोर हो गई थी वह इस बीमारी मेंï। पहले की तरह खिलखिलाते हुए बात भी नहीïं कर पा रही थी। घर पर उठते-बैठते, सोते-जागते, हर वक्त उसी का जर्द चेहरा परेशान करता रहता। उस दिन बुझे हुए मन से खाना खाते वक्त मंैï माँ से पूछ ही बैठा, ‘माँ, क्या शालिनी कभी ठीक नहीïं होगी?Ó
‘कैसी उल्टी बातेंï करता है। आज ही तो डॉक्टर ने बताया कि बुखार घट रहा है। जल्दी ही ठीक हो जाएगी।Ó
और फिर सच, धीरे-धीरे शालिनी अच्छी होने लगी। चेहरे पर हँसी बिखरने लगी। उसने उठकर धीरे-धीरे चलना-फिरना भी शुरू कर दिया। मुझे भी लगा कि मैंï किसी गैस के गुब्बारे को पकड़े नीले आसमान मेंï उड़ता जा रहा हूँ। कुछ दिन बाद हम लोग फिर एक साथ स्कूल जाने लगे। फिर वही नोंक-झोïक, हँसी-ठ_ïा लेकिन आठवीïं के बाद इस स्कूल मेंï लड़कियोïं की व्यवस्था न होने की वजह से उसे शहर के बालिका विद्यालय मेंï भर्ती होना पड़ा। मैïं अकेला रह गया। दिनभर अजीब सा खालीपन महसूस होता लेकिन इस खालीपन का अर्थ मैंï समझ नहीïं पाता था। शाम को और छुट्टïी के दिन उससे बोलते बतियाते, उसके साथ खेलते, थोड़ी देर के लिए उस अकेलेपन का एहसास कहीïं खो जाता पर यह सब अधिक दिन न चल सका। बढ़ती उम्र हम दोनोïं को अन्दर ही अन्दर बांधने लगी थी। एक डर, एक आशंका, एक झिझक कब हमारे बीच आ गई, पता ही न चला।
न जाने क्योïं ऐसा लगता कि चारोïं ओर से तमाम आँखेï हम पर नजर रख रही हैंï। शायद उम्र के उस पड़ाव तक पहुँचना ही हम दोनोïं की सबसे बड़ी भूल थी। और फिर उसका ‘कड़क्कोÓ खेलना, मेरा ‘आई स्पाईÓ खेलना बंद हो गया। सिर्फ उपन्यास पढऩे का शौक ही हमारे बीच एकमात्र सम्पर्क माध्यम रह गया था। कभी मैंï उसके यहाँ से जाकर उपन्यास ले आता, कभी वह हमारे यहाँ से ले जाती। बातेïं भी किस कदर सीमाबद्ध हो चुकी थीïं। किसे कौन सी किताब अच्छी लगी, कौन सी बुरी, बस इतना ही। कभी-कभी कितना औपचारिक-सा लगता था वह सब, फिर भी न जाने क्योïं हर शाम वही इन्तजार। एक-दूसरे को देख कर लेने की।
समय जितना आगे बढऩे लगा, हम उतना ही पीछे छूटते रहे। इंटर परीक्षा का परिणाम निकला तो मैï सेकेïंड डिवीजन पास हुआ लेकिन उसे फस्र्ट डिवीजन मेंï पास होते देख कैसे मेरे अन्दर एक समुद्र उफान ले रहा था, जैसे वह सफलता मेरी अपनी ही है। अखबार लेकर घर पहुँचा, सोचा पहले उसके फस्र्ट आने की खबर माँ को दूंगा लेकिन घर पहुँचते ही दरवाजे पर पाँव ठिठक कर रह गए थे।
‘चलो, अच्छा ही हुआ। राजेश इतनी अच्छी नौकरी मेंï है, देखने मेंï काफी सुन्दर है। शालिनी के साथ जोड़ी काफी जमेगी। कब तय कर रही हो, इनकी शादी की तारीख…?Ó मेरी माँ, उसकी माँ से पूछ रही थीं।
‘बस महीने दो महीने के अन्दर ही दिल्ली जाकर ससुराल का भार सम्हाल ले तो ठीक है। ज्यादा देर नहीïं करना चाहती हूँ।Ó
मंैï दरवाजे पर खड़ा न जाने कब तक मु_ïी मेंï अखबार को मसलता रहा।
उस रोज उसकी शादी हो रही थी। घर से हर कोई वहाँ गया हुआ था, लेकिन मैंï अंधेरे मेंï अपने कमरे के एक कोने मेंï सिमटा बैठा था। कितना कहा गया मुझे जाने को पर मैंï पेट दर्द का बहाना करके रुक गया था। बाहर किस कदर रोशनी थी। मेहमानोïं की चहल-पहल से उसका घर कितना भरा हुआ था।
बारात आयी। बैंïड-बाजोïं की आवाज सुनते ही मैïंने अपने कानोंï पर हाथ रख लिये थे लेकिन उस आवाज को दबाना मेरे लिए असम्भव हो चुका था। अगले दिन वह विदा भी हो गयी।
महीने-डेढ़ महीने बाद जब शालिनी मायके आई तो मेरी माँ ने उसे और राजेश को घर पर खाने को बुलाया था। वहींï राजेश से मेरा परिचय हुआ। कितनी गर्मजोशी से मिला था वह मुझसे लेकिन उसकी यह गर्मजोशी मुँह चिढ़ाती लग रही थी। किस कदर हँस-हँसकर बातेंï कर रही थी। कह रही थी, ‘अरे यह तो पहले से ही बड़े शर्मीले हैंï। इनके साथ दोस्ती करने मेंï आपको बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।Ó
‘देखिए भाईसाहब, यह तो मुझे चुनौती दे रही हैïं। अब आपका ही सहारा है। मेरे साथ अगर आप दोस्ती नहीïं करेïगे तो मेरी इज्जत का फालूदा ही बन जाएगा।Ó
उस वक्त राजेश की बातेंï सुनकर हँसी आ गई थी। जिस राजेश की सूरत तक देखना नहीïं चाहता था, वही पहली नजर मेंï ही अच्छे लगने लगे थे। जब भी उन दोनोïं का आना होता, राजेश ज्यादातर समय मेरे साथ ही बोलते-बतियाते रहते। शालिनी के साथ फिल्म देखने जाते तो मुझे भी अपने साथ ले जाते। मैंï लाख मना करता लेकिन वे न मानते।
देखते ही देखते राजेश का यह खुलापन मेरी दमित आकांक्षाओïं को बाहर लाने लगा। तबसे ही मैïं अपने बचपन को अपनी बाँहोï मेïं लौटा लाने की कल्पना करने लगा। उसी दौरान मेरी नयी नौकरी लगी तो व्यस्तता ने इस कल्पना को अपनी मु_ïी मेंï कैद कर लिया। धीरे धीरे 6-7 साल का समय बीत चला। शालिनी का पुत्र सोनू कक्षा एक मेंï पढ़ रहा था जबकि पिंकी भी चार साल की हो रही थी। धीरे-धीरे बढ़ती गृहस्थी के कारण इधर शालिनी का कानपुर आना भी कम हो गया। राजेश के पत्र बीच-बीच मेïं आते रहे।
उसी दौरान जब मुरादनगर फैक्टरी के लिए कुछ आदमियोïं की मांग की गई तो मुझे अप्रत्याशित-सी खुशी हुई। सब कुछ इतना आसान हो जाएगा? मुरादनगर दिल्ली से सिर्फ 40 किलोमीटर दूर बसा एक कस्बा है। कितना करीब पहुँच जाऊंगा उसके। मेरी कल्पना पंख फैलाकर उडऩे लगी। मैंïने एप्लाई कर दिया और अब एक साल हो चुका है यहाँ आये हुए। जब-तब छुट्टïी के दिन या किसी और दिन छुट्टïी लेकर शालिनी से मिलने चला आता। राजेश कितना खुश हुए थे मेरे इस ट्रांसफर से। वह, शालिनी और मंैï दिल्ली की तमाम जगह घूमते रहे लेकिन कई बार मौका मिलने के बावजूद शालिनी से मैïं मन की बात न कह सका। न जाने ऐन वक्त कौन सी ताकत मुझे रोक लेती।
मंैï कुछ कहूँ इसके पहले ही वह बोल उठी, ‘अब तब तक ऐसे ही अकेले भटकते रहोगे? उम्र भी तो तुम्हारी काफी हो रही है। शादी करके घर बसा लो…. अपने आप बोरियत दूर हो जाएगी।Ó
कुछ देर तक हमारे बीच चुप्पी रही। एकाएक उसने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘देखो, सोनू पिंकी के पापा तुम्हेïं बहुत भला आदमी समझते हैï। कभी भी तुम्हारे बारे मेंï कोई गलत बात सुनना पसन्द नहींï करेंïगे। कितने खुले मन से उन्होंïने तुमसे दोस्ती की है और अब तुम्हारा भी तो कुछ फर्ज बन जाता है, बार-बार यहाँ आना और हम दोनोंï के साथ इतना ज्यादा घूमना-फिरना…. देखो बुरा मत मानना। जरा खुद सोचकर देखो, क्या यह ठीक है?Ó
मेरे हाथ से छूटकर पत्रिका मेज पर गिर पड़ी। पाँवोïं मेंï कँपकँपी सी होने लगी। क्या जवाब दूँ शालिनी की इस बात का। किस कदर बौना सा महसूस करने लगा शालिनी के सामने खुद को। इतने दिनोïं की मेरी कल्पना के पर कट चुके थे। पहली बार एहसास हुआ कि अब तक मैंï किसी बहुत बड़े धोखे मेï जी रहा था। शालिनी तो अब किसी की पत्नी है। एक सुखी गृहस्थी की स्वामिनी। मैंï क्योंï उसके और राजेश के बीच मेïं ंखड़ा हूँ। और फिर क्या मेरे प्रति राजेश के अटूट विश्वास, सरल व्यवहार के एवज मेïं…? नहीïं…. नहींï कभी नहीïं…. शालिनी के रूप मेंï तो सामने मेरा बचपन खड़ा है जिसकी किसी भी तकलीफ से मैंï छटपटा उठता था। भला अपने उस बचपन के सुखोïं का गला मैïं कैसे घोïंट सकता हूँ। तस्वीर मेंï उसके और राजेश के मुस्कराते हुए चेहरे को देखा और फिर अगले ही पल वापस मुड़कर उसके घर की सीढिय़ाँ उतरने लगा।