बनारस की शाम भी सुबह से कम सुंदर नहीं होती। यहां के लोगों को गंगा किनारे बने घाटों पर बैठने में सुकून मिलता है। घाट पर बैठकर दूध, लस्सी या भांग मिली हुई ठंडाई की चुस्की लगाते हुए गंगा के चौड़े पाट के उस पार अस्त होते सूर्य को निहारना उन्हें मस्ती से सराबोर कर देता है।
क्या आप जानते हैं कि गौतम बुद्ध, कबीरदास, तुलसीदास, शंकराचार्य, बल्लभाचार्य, भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद, लालबहादुर शास्त्री, बिस्मिल्लाह खान, बिरजू महाराज, हरिप्रसाद चौरसिया, राजन-साजन मिश्रा आदि में क्या समानता है? ये सभी बनारस के रहने वाले हैं।
बनारस को लोग काशी तथा वाराणसी के नाम से भी जानते हैं। यह दुनिया के प्राचीनतम नगरों में से एक है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने यह वर्णन किया है कि यदि आप विश्व भ्रमण पर निकले हों और एक ऐसे स्थान पर पहुंच जाएं, जहां प्राचीनता में नवीनता नजर आए, तो समझिए कि आप बनारस पहुंच गए।
प्रख्यात अंग्रेज लेखक मार्क ट्वैन के शब्दों में-बनारस तो इतिहास और परंपराओं से भी प्राचीन है। बनारस की प्राचीनता में भी एक विशेषता है। इसकी एक अलग संस्कृति है, जो भारत के अन्य नगरों में देखने को नहीं मिलती और यही बनारस की आध्यात्मिक शक्ति का परिचायक है।
यहां के लोग एक अलग किस्म की मस्ती में जीते हैं, जिसे ‘बनारसी मस्तीÓ कहा जाता है। आप में से किसी को यदि बनारसी मस्ती का अहसास करना हो, तो पहले आपको बनारसी बनना होगा और ऐसा एक दिन में नहीं होगा, बल्कि इसमें कई दिन या सप्ताह लग सकते हैं।
‘यहां की तो हवा भी निराली हैÓ यह कहना है भोला निगम का। वे कहते हैं-यहां की हवा लगते ही आपकी तमाम चिंताएं छूमंतर हो जाती हैं। ऐसा केवल बनारस में ही क्यों होता है, किसी और प्राचीन शहर में क्यों नहीं होता? वे कहते हैं कि इसलिए क्योंकि बनारसी संस्कृति का अध्यात्म से गहरा जुड़ाव है।
यह एक अलग प्रकार की अनुभूति है, जिसे आप पैसा और प्रसिद्धि के बल पर महसूस नहीं कर सकते। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव और माता गंगा तो काशी के प्रथम नागरिक हैं। ये ही काशी की असली पहचान हैं और इन्हीं के कारण काशी को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है।
ऐसी मान्यता है कि काशी इस पृथ्वी का अंश ही नहीं है बल्कि यह तो शिव के त्रिशूल पर टिकी हुई नगरी है। यहां स्थित शिवलिंग को भारत के बारह प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में गिना जाता है और कहा जाता है कि भगवान शिव का घर इसी शहर में है।
यहां उन्हें बाबा विश्वनाथ या विश्वेश्वरनाथ के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ होता है-संपूर्ण जगत के स्वामी। पुण्यसलिला गंगा विश्वनाथ मंदिर के काफी नजदीक से बहती हैं। गंगा और भगवान शिव का यह मंदिर तो जैसे काशी की जीवन रेखा है। गंगा के किनारे लगभग सौ घाट बने हुए हैं।
इनका निर्माण किसी न किसी भारतीय रजवाड़े द्वारा वर्षों पूर्व कराया गया था। यहां आप बनारस की मस्त जिंदगी को बेहद करीब से देख सकते हैं। इन घाटों पर लंगोट पहनकर बैठे मस्त बनारसियों को आप देख सकते हैं। घाटों पर कहीं मंत्रोच्चार करते साधु स्नान कर रहे होते हैं तो कहीं आधा शरीर गंगाजल में डुबाए लोग सूर्य को जल (अघ्र्य) दे रहे होते हैं तो कहीं महिलाएं और बच्चे गंगाजल से अठखेलियां कर रहे होते हैं।
घाटों के लंबे-चौड़े चबूतरे पर आप सहज ही पंडितों को आसन लगाए और चंदन, रोरी तथा पूजन से संबंधित अन्य सामग्री लिए बैठे देख सकते हैं। गंगा में डुबकी लगाने के बाद श्रद्धालु अपने माथे पर चंदन और रोरी का तिलक लगाते हैं तथा अपने साथ लाए मिट्टïी या पीतल आदि के बर्तन में गंगाजल भर लेते हैं और इसे मंदिर में ले जाकर बाबा भोले को अर्पित कर देते हैं।
वाराणसी में कई बार ऐसा भी होता है कि किसी श्रद्धालु को देखते ही घाट पर बैठे पुजारी या मंदिर के पंडे उन पर टूट पड़ते हैं और यहां उन्हें पैसे से लेकर स्वर्ण तक दान करने के लिए मजबूर किया जाता है। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो उन्हें नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।
श्रद्धालुओं की परेशानी यहीं खत्म नहीं होती। घाट पर से निकलने के बाद विभिन्न मंदिरों में जहां कहीं भी वे देवी-देवता के दर्शन करने जाते हैंं, वहां के पंडे तो हाथ धोकर उनके पीछे पड़ जाते हैं। श्रद्धालुओं खासकर संतान की इच्छुक महिलाओं को कीमती वस्त्र और आभूषण दान करने के लिए विवश किया जाता है।
इसके बावजूद हर साल यहां लाखों श्रद्धालु पुण्य की लालसा लिए आते हैं और उनमें से कुछ को नुकसान भी उठाना पड़ता है। यहां के सभी छोटे-बड़े मंदिरों में सुबह-सवेरे देवी-देवताओं की आरती होती है, जिसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं।
कहा जाता है कि बनारस की सुबह की इस घड़ी को एक बार देखने के बाद कोई जीवनभर भुला नहीं सकता। विश्वनाथ मंदिर के बाहरी गेट पर बैठा एक श्रद्धालु कहता है-मैं जीवन का आनंद ले रहा हूं। यह एक सच्चा आनंद है, जिसे बयां करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
यहां के लोग सुबह की शुरुआत बढिय़ा नाश्ता, जिसमें देसी घी से बनी कचौड़ी- जलेबी तथा सब्जी शामिल हैं, से करते हैं। बनारस में एक गली ऐसी है, जिसका नाम ही कचौड़ीगली है। यहां की कचौड़ी-सब्जी काफी प्रसिद्ध है। मंदिर, पान, भांग, कचौड़ी-सब्जी, जलेबी, ठंडाई आदि तो जैसे बनारसियों की आत्मा में बसता है। नाश्ते के बाद पान खाना भी बनारसियों की एक खास आदत है।
सच पूछें तो पान खाए बिना बनारसी जीवन अधूरा सा लगता है। यहां अनेक विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के अलावा अनेक संस्कृत विद्यालय भी हैं, जहां आज भी गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार शिक्षा दी जाती है। काशी हिंदुओं का एक बड़ा तीर्थस्थल है।
बनारस को लकड़ी के खिलौने तथा बनारसी व सिल्क की साडिय़ों के लिए भी दुनियाभर में जाना जाता है। वैसे बनारस की शाम भी सुबह से कम सुंदर नहीं होती। यहां के लोग गंगा किनारे बने घाटों पर गंगा के चौड़े पाट के उस पार अस्त होते सूर्य को निहारते हैं, यह उन्हें सुकून देता है। ऐसा करते हुए वे दूध, लस्सी और भांग मिली ठंडाई की चुस्की लगाते रहते हैं। गंगा के घाट पर मिट्टïी के कुल्हड़ में दूध, लस्सी पीना एक अलग अनुभव देता है।
महाशिवरात्रि तथा अन्य खास अवसरों पर तो लोग अनिवार्य रूप से भांग और ठंडाई का लुत्फ उठाते हैं। भांग को बाबा भोले का प्रसाद माना जाता है। शाम के वक्त भी मंदिरों में मंत्रोच्चार व वाद्ययंत्र बजाकर आरती की जाती है। उस समय सैकड़ों लोग पंक्तिबद्ध भक्तिगीत गाते हुए ईश्वर की आराधना करते हैं।
बनारस के लोगों की जीवनशैली बहुत ही साधारण है और दिखावा करना तो जैसे वे जानते ही नहीं। उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य है-आंतरिक प्रसन्नता। उनका मानना है कि इस दुनिया में वही होता है, जो बाबा भोले चाहते हैं। हालांकि अब बनारस भी बदल रहा है और बनारसी भी। यहां भी अब भूमंडलीकरण का असर पडऩा शुरू हो गया है।
बड़े-बड़े व्यावसायिक केंद्र खुलते जा रहे हैं और यहां आने वालों पर पाश्चात्य संस्कृति हावी होती जा रही है। इसके बावजूद काशी भारत की धार्मिक व सांस्कृतिक राजधानी है और यही वजह है कि प्रत्येक व्यक्ति की यह इच्छा रहती है कि जीवन में कम से कम एक बार वह वहां अवश्य जाए। साभार
– आशुतोष चौबे