ईद-ए-मीलादुन्नबी पर विशेष
इस्लाम एक संपूर्ण विधान है जो जिन्दगी के सभी पहलुओं को मनुष्य एवं समाज पर रौशन करता है। ये विधान जीवन व्यतीत करने की विधा स्पष्ट करता है और भलाई की ओर अग्रसर करता है साथ ही बुराई से दूरी बनाये रखने को भी प्रेरित करता है। सफल एवं लाभप्रद जीवन वही है जो मनुष्य को दोनों ही संसारों में सुखी करे- इस्लामी-शिक्षा वास्तव में मानव को इस दुनिया और उस संसार अर्थात् जीते हुए भी और सांस रूकने के बाद भी सभी तरह की मुसीबतों से पूर्णतः दूर रखने को आमंत्रित करती है। अब प्रश्न यह उठता है कि इतनी सफल और लाभप्रद नीतियों का प्रणेता कौन है- इतिहास के पन्नों को पलटते ही स्पष्ट हो जायेगा कि मानव-जाति को हर प्रकार से परिपूर्ण संविधान समर्पित करने वाले व्यक्तित्व का नाम है हजरत मुहम्मद मुस्तफा सलल्लाहो अलैहे व सल्लम-नूर-ए-खुदा।
निश्चित ही ऐसी महान हस्ती के विषय में सभी को कुछ न कुछ जानने की महत्वकांक्षा होगी। आज से चैदह सौ वर्ष पूर्व सऊदी अरब में अज्ञान, अन्याय एवं अमानवीयता का भरपूर बोलबाला था- इंसान मानव-जन्म लेने के पश्चात् भी खौफनाक पशुओं से बदतर था। ऐसे संगीन वातावरण में हुजूर मुहम्मद साहब ने जन्म लिया। असहाय एवं अनाथ होने के पश्चात् भी जीवन के प्रथम चालीस वर्ष आप ने इस प्रकार व्यतीत किये कि जिस समाज में रहते थे वह अन्यों से पूर्णतः पृथक दिखाई देने लगा। भाईचारा, सहिष्णुता, न्याय, सत्यता, प्रेम, सहयोग, सद्भाव अर्थात् मानवीयता के समस्त उच्च आदर्श उन लोगों की दैनन्दिनी बन गये। इसका प्रभाव यह हुआ कि सभी ने एक स्वर में हजरत को अपना सर्वोच्च मान लिया। परन्तु चूंकि इस्लाम में महत्ता व्यक्ति की नहीं वरन् व्यक्तित्व की है अतः हुजूर ने चालीस वर्षों पश्चात् घोषणा की कि ’’ईश्वर चाहता है कि समस्त मानव जाति मानवीयता के उच्च आदर्शों को ग्रहण करे इसलिये उसने मुझे तुम्हारे बीच भेजा है कि मैं तुम्हें अपनी दिनचर्या से इस प्रकार प्रभावित करूं कि तुम सच और झूठ में अंतर कर सको, स्वार्थ एवं त्याग के भेद को समझ सको और दोनों संसारों में अपने कर्मों से अपना स्थान सुरक्षित कर सको।‘‘
एक स्थान पर हुजूर ने कहा, ’’ऐ लोगो! अल्लाह ने तुम में से हर एक के लिये गुजर-बसर हेतु एक हिस्सा सुनिश्चित कर दिया है (एवं) हर एक को उसका भाग मिलेगा इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह अपनी गुजर-बसर के लिये (रोजी का) हिस्सा प्राप्त करने हेतु अच्छे एवं ईमानदाराना प्रयास को अपनाये।‘‘ हुजूर की इस शिक्षा के स्त्रोत अल्लाह की किताब अर्थात् र्कुआनशरीफ है क्योंकि र्कुआन-ए-करीम हमें आज्ञा देता है कि ’’जो कुछ हम ने तुम्हें दिया है उसमें से खुदा की राह में खर्च कर डालो पूर्व इस के कि तुम में से किसी को मौत आ जाये तो इसकी स्थिति न आये कि कहने लगे कि मालिक तू ने मुझे थोडी सी मुहलत और क्यों न दी कि मैं खैरात करता और मैं भी सुकर्मियों में से हो जाता।‘‘
इस से स्पष्ट है कि हुजूर की जबान पर वही कुछ था जो कि अल्लाहतआला को पसंद है। आपने अपने जीवन को र्कुआनी तालीम का दर्पण बना लिया था। इसका प्रभाव यह था कि जो कोई भी आप से परिचित होता था, निकट आता था वह उसी सांचे में ढल जाता था। रिसालत अर्थात् रसूल होने की घोषणा करने के पश्चात् एवं पहले भी यदि देखिये तो आप के चारों ओर जो समाज निर्मित हुआ वह हर तरह के विभेदों से ऊपर उठ कर था, न कोई अमीर था, न कोई गरीब, न किसी की जाति ऊंची थी न नीची, न किसी जगह का रहने वाला आदरणीय था न किसी जगह का रहने वाला असम्माननीय अर्थात् पूर्ण रूप से वसुधैव कुटुम्बकम का वातावरण था- निश्चित ही यह हुजूर के प्रभावशाली व्यक्तित्व की ही देन थी।
मनुष्य के जीवन में सबसे अधिक महत्व ’रोजी‘ का होता है, वह इस हेतु येन, केन, प्रकारेण गतिशील रहता है। अब यह और बात है कि वह कितने से संतुष्ट हो पाता है- सब से बडी मुश्किल स्थिति यही है और यही दुनिया में समस्त अफरा-तफरी की जड भी है तथा लोगों को अगणित बुराईयों की ओर प्रेरित भी करती हैं। हुजूरने स्पष्ट फरमाया है ’’वास्तव में मनुष्य गुनाह के कारण जिस को वह अपनाता है, रोजी से महरूम हो जाता है।‘‘ दूसरी जगह पर आपने स्पष्ट शब्दों में कनाअत (संतुष्टि) का हुक्म दिया है अर्थात् कम से कम में संतुष्ट होने का गुण एवं उसमें से भी त्याग करने की कला मोमिन (ईश्वर के पसंदीदा वन्दे) की शान है।
अद्ल-ए-इंसाफ फकत हश्र पे मौकूफ नहीं।
जिन्दगी खुद भी गुनाहों की सजा देती है।।
हम अपने चारों ओर यदि ईमानदाराना नजर डालें तो उपरोक्त सत्यता स्पष्ट हो जायेगी। हुजूर ने फरमाया है कि ’’तुम सबमें मुझको ज्यादा प्यारा वह व्यक्ति है जिसके व्यवहार अच्छे हों।‘‘ आप का कहना था कि सदाचार गुनाहों को इस तरह पिघला देता है जिस प्रकार पानी नमक के पत्थर को।‘‘ निश्चित ही विपरीत दिशा में परिणाम भी इसका उल्टा होगा।
हुजूर-ए-पाक ने जो ईश्वरीय कलाम लोगों तक पहुंचाया उस में स्पष्ट है कि:
बेशक ईमान वाले आपस में भाई-भाई हैं।
नेकी एवं परहेजगारी के काम में एक दूसरे का साथ दो।
क्षमा कर देना त्याग के बहुत समीप है।
झूठ बोलने और सुनने से परहेज करो।
कभी गर्व को मन में स्थान न दो।
बुजुर्गों का आदर आवश्यक है।
दिलों को जीतने हेतु तलवार की नहीं मधुरवाणी की आवश्यकता है।
यह तालीमात ईश्वर ने ’’वही‘‘ के माध्यम से ’’हिरा‘‘ के गार में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम पर उतरी थीं। चूंकि आप आखिरी नबी (ईश्वरीय दूत) थे और मनुष्यों की शिक्षा हेतु भविष्य में आसमान से अन्य किसी को आना नहीं था। अतः आपने मानवीय जीवन एवं सामाजिक-वातावरण के प्रत्येक पहलू पर खुल कर अभिव्यक्ति की।
हुजूर ने फरमाया कि अल्लाह तआला अपने बंदों से इरशाद फरमाता है कि ’’ऐ मेरे बंदो! मैंने अपने लिये और तुम्हारे लिये आपस में जुल्म हराम किया है तो तुम एक दूसरे पर जुल्म न किया करो।‘‘
एक अन्य जगह पर फरमाया ‘‘जुल्म कयामत के दिन जालिम के लिये सख्त अंधेरा बनेगा।‘‘
लोगों ने कहा कि ’’हमारे यहां मुफलिस उसको कहते हैं जिसके पास न तो रकम हो और न कोई सामान।‘‘ हुजूर-ए-पाक ने जवाब दिया, ‘‘नहीं मुफलिस वह है, दिवालिया उसे कहेंगे जो कयामत के दिन अपने रोजे और नमाज के साथ खुदा के पास हाजिर होगा परंतु इसी के साथ दुनिया में किसी को गाली दी होगी, किसी पर इल्जाम लगाया होगा, किसी को कत्ल कर दिया होगा या किसी को अकारण मारा होगा . . . . उस की नेकियों के बावजूद उस को जहन्नुम की आग में डाल दिया जायेगा।‘‘
यदि पूरी ईमानदारी से र्कुआन एवं हदीस (रसूल की बातें) पर विचार किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाताहै कि अल्लाह के कलाम से पृथक हदीस नहीं है और दोनों ही जो कि वास्तव में एक हैं वर्ग विशेष, जाति विशेष, काल विशेष अथवा धर्म विशेष केलिये न होकर सम्पूर्ण मानवता के लिये हैं। किसी शायर ने कहा है:
लब पे सलवात है खालिक की सना से पहले,
हम ने जाना है मुहम्मद को खुदा से पहले।
यह सत्यता है क्योंकि मनुष्य को ईश्वर के होने का एहसास रसूल ने दिलाया और जो कुछ भी खुदा का पैगाम हम तक पहुंचा वह हुजूर के ही माध्यम से। अतः हजरत मुहम्मद रसूल अल्लाह का व्यक्तित्व वह दर्पण है जिसमें हम ईश्वर का दर्शन कर सकते हैं और यही वह विशिष्टता है जो उन्हें न केवल सर्वोपरि वरन् श्रेष्ठ सिद्ध करती है।
हुजूर-ए-पाक ने अपने पूरे जीवन में जो कुछ भी कहा अथवा किया वह अल्लाह तआला के हुक्म से। यही कारण है कि उन के कथन एवं जीवन में कभी और कहीं भी गर्व या स्वयं को श्रेष्ठ मनवाने की महत्वकांक्षा नहीं नजर आती। सब से बडे होते हुए भी वह सब से बराबरी का व्यवहार करते रहे एवं जनहित और जन सामान्य की जिन्दगी को बेहतर बनाने का उपदेश देते रहे। कुछ ऐसी बातों का संक्षेप में उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है जिन का वह बार-बार उपदेश देते रहे थे और सब से आग्रह करते थे कि इन्हें अपने जीवन में ढालें:
क्ष् दोस्तों/संबंधियों/ मिलने वालों से उत्तम व्यवहार करना।
क्ष् संतुलित दिनचर्या रखना।
क्ष् सभी से प्रेमपूर्ण आचरण करना।
क्ष् सब पर एहसान और बख्शिश करना।
क्ष् लोगों को सलाम करना एवं खाना खिलाना।
क्ष् बीमार के हाल-चाल पूछना भले ही वह अपना न हो।
क्ष् निमंत्रण स्वीकार करना एवं निमंत्रण देने वाले के हित में दुआ करना।
क्ष् पडोसी के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहे वह मुसलमान हो या काफिर।
क्ष् जिन लोगों में मतभेद हो उनमें सुलह कराना।
क्ष् क्रोध को एक दम पी जाना।
क्ष् गर्व एवं घमंड से सदैव दूर रहना।
क्ष् झूठ, गाना-बजाना, फसाद, धोखेबाजी से परहेज रखना।
यह ऐेसे जीवंत सत्य हैं जो समस्त मानव जाति के उत्थान हेतु सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक हैं। कोई भी किसी भी स्थिति में इनका विरोध नहीं कर सकता। पूरे संसार में ऐसे समस्त लोग जिन की सोच की परिधि विशाल है, जो किसी विशेष विचारधारा के बंदी नहीं हैं और वास्तव में मनुष्य हैं, हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम की शिक्षा को इंसानियत के लिये आक्सीजन मानते हैं।
कहाँ इल्म कि मैं कर सकूं मिदहत मुहम्मद की,
मिरी फिक्रे रसा के पार है अजमत मुहम्मद की।
मिरा ईमान है ’’उम्मीद‘‘ और ये कुल्ले ईमां है,
खुदा के बस आला है शख्सीयत मुहम्मद की।
ऐसी महान शख्सियत को हम सलाम करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनकी शिक्षा के कुछ हिस्सों पर इंसानों को अमल करने की सलाहियत मिले जिस से नरक बनता हुआ यह संसार स्वर्ग में बदल सके। आमीन।
डाॅ. अली अब्बास ’’उम्मीद‘‘
क्ष् 01,स्टार रेजीडेंसी,
ईदगाह हिल्स, भोपाल 462009
दूरभाष- 538937