बल्कान के आखिरी सुलतान -सूफी-ए-कामिल हजरत अख़्तर शैरी रह.

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भोपाल के मशहूर और मारूफ सूफी-ए-कामिल हजरत अख़्तर शैरी साहब को हमसे जुदा हुये कई साल बीत गये। मगर हमारा जहन और दिल आज भी यह कुबूल करने को तैयार नहीं है कि मियां अब हमारे बीच नहीं हैं, वो दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह कर अपने मालिके हकीकी से जा मिले। बजाहिर हमारी आंखे उनके दीदार से अब महरूम हो च़ुकी हैं, लेकिन ऐसा अक्सर लगता है कि जैसे उनकी सुरीली आवाज अपने चाहने वालों को एक खास अंदाज में मुखातिब करने की शीरनी से कानों में आने ही वाली है। हमारे जहन-ओ-दिल के कुबूल करने या न करने से क्या होता है। यह एक हकीकत है जो दुनिया में आया है उसे एक दिन दुनिया से रुखसत होना ही पड़ता है।
आज पूरे भोपाल की गलियां, सड़कें जहां से बाबा साहब गुजरा करते थे बेनूर, सुनसान मालूम होती हैं। जैसे शहर की सारी की सारी रौनक ही चली गई।  जाने कितनी सदियों तक आपके नुकुश जहन-ओ-दिल पर रहेंगे। फैज अहमद फैज के लफ्ज़ों में-
वीरान है मैकदा खुम-ओ-सागऱ उदास है।
तुम क्या गए के रूठ गये दिन बहार के॥
भोपाल में अभी उर्सों का मौसम चल रहा था हर कव्वाल ने मियां का $िजक्र किया। आपकी जुदाई को रूह की गहराई से महसूस किया। यही हाल उर्स में शामिल अवाम और सूफी हजरात का भी रहा। मियां कि तशरीफ आवरीसे जहां महफिल में जान आ जाती थी। एक पुरकैफ समां बन जाता था। अब यह महफिलें बदरौनक रहीं। अब पता नहीं इन महफिलों में भी कब तक अंधेरा रहेगा। जिगर के लफ्जों में-
जानकर मिनजुम्लाए खास आने मैखाना मुझे।
मुद्ïदतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे॥
यह तो मियां कि जुदाई का मरसिया था। अब आपकी सूफियाना सलाहियतों की बात की जाए। बेशक आप अपने दौर के एक कामिल सूफी फकीर थे। जिन लोगों ने आपको करीब से देखा है वो अच्छी तरह जानते हैं कि आप बुजुर्गी के एक आला म$काम पे फाए$ज थे। कभी आप शोहरत, इज्जत, दौलत के तलगबगार नहीं रहे। मगर यह तीनों चीजें़ आपकी चौखट पे खादिम बन कर सारी जिन्दगी बैठी रही।
इसलिए आपके चाहने और मानने वालों का दायरा हिन्दोस्तान की सरहदों को पार करता हुआ अरब, इंग्लैण्ड, अमरीका, जापान ही नहीं सारी दुनियां में फैलता चला गया। करामात के भी आप काइल नहीं थे। मगर खु़दा आपसे वक़्तन-फ-वक़्तन ऐसे करामात करवाता रहा कि अच्छे-अच्छे नास्तिक भी आपकी बुजुर्गी का लोहा मानते थे। मैंने आपकी सोहबतें ब बरकत में बीस साल से भी ज्यादा अर्से तक रहा। मैंने जो देखा और महसूस किया उसका एक हिस्सा भी अगर लिखा जाये तो एक किताब लिखी जा सकती है। बेशक आप एक सूफी-ए-कामिल थे। आपकी सखावत, अल्ला पे तवक्कल, हमदर्दी और सादगी दर्जा-ए-कमाल रखती थी। आप दुनियावी जेबो ज़ीनत, ऐश-ओ-इशरत से दूर रह कर जिन्दगी गुजारते रहे। जो एक कामिल फ$कीर को ही नसीब होती है। आप इल्म के एक समंदर थे। दुनिया के किसी मौजू सब्जेक्ट पर पर आपसे गुफ्तगू की जा सकती थी। आप जब बोलना शुरू करते थे तो ऐसा महसूस होता था आप इस सब्जेक्ट के प्रोफेसर हैं। बड़े-बड़े क़ाबिल तरीन लोग आपसे बातचीत करके आपकी लियाकत और काबलियत के काइल होकर आपके मोतकिद बन जाते थे। रूहानियत के हर मौजू पर आपकी मालूमात एक मुक्कमल यूनीवर्सिटी का दर्जा रखती थी।
बड़े-बड़े सूफी, पीर आपकी सूफियाना सलाहियत और इल्म की रोशनी से अपनी इस्लाह करते थे और आपके रूहानी बुलन्द मकाम को तस्लीम करके आपके इरादत मंदों में शामिल हो जाते थे। अल्लाह तआला ने मियां के चेहरे पर भी वो रोब, जलाल और कशिश अता की थी। आप जिस महफिल या तकऱीब में जाते थे, सारा का सारा मजमा आपमें महव हो जाता था। बस ऐसा लगता था कि अब महफिल में एक ही रोशनी सारी महफिल को रोशन किये हुए है। मीर ने कहा है।
वो आए थे बज़्म में मीर ने इतने देखा।
फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही॥
बलकान के बादशाह यक्ता-ए-जमाना सूफी-ए-कामिल हजरत इब्राहीम बिन अदम रह. के खानदान के सूफी हजरत मो. उमर रह. जो सरकार अम्मा के दौर-ए-खिलाफत में भोपाल तश्रीफ लाये थे। आज जहां चिरायु अस्पताल है। वहां उन्होंने एक दीनी मदरसा खोला था। यह भी एक इत्तेफाक है कि इस खानदान के आखरी चश्मों-चिराग सूफी हजरत अख्तर शैरी साहब रह. ने असी मकाम पर चिरायु अस्पताल में आखिरी सांस ली। मियां की जिन्दगी में मैंने दर्जनों आर्टिकल आप पर लिखे। मगर आपके दुनिया से पर्दा करने के बाद यह पहला आर्टिकल है जो मैं लिख रहा हूं। बस अब जहन-ओ-दिल ने कलम का साथ देना छोड़ दिया है। आंखें पहले ही से कागज और हर्फ को धुंधला करने में लगी हुई हैं। अब कलम भी आपके फिराक में कांपने लगी है। ऐसा लगता है जैसे आपकी रूह हम चाहने वालों से कह रही हो-
अब नहीं हम तो कोई एहले चमन से पूछे।
कितने सहरा न$जर आते थे सुहाने हमसे॥
खुदा हजरत अख़्तर शैरी साहब की मग्फिरत फरमाए- आमीन। और आपको जन्नतुल फिरदौस में आला मुकाम अता फरमाए। एक शैर जो मियां अक्सर मुझसे बार-बार सुनते रहते थे, उस वक्त मुझे इस बात का एहसास नहीं था कि मियां हमसे एक दिन रुखसत हो जायेंगे और यह शैर मियां के चाहने वाने के दर्द की तर्जुमानी करेगा।
बातों बातों में जब किसी ने उसका नाम लिया।
दिल ने जैसे ठोकर खाई, दर्द ने बढ़ कर थाम लिया।

लेखक- सलीम अकरम