एक ऐसे समय में जब हुकूमतें निरंकुश ज्यादती एंव अत्याचार के दौर से गुजर रहीं थीं, उस वातावरण में सूफीयाकिराम ने अपने अख्लाक और शफकत व मोहब्बत, ईमान और ऐतमाद की ऐसी स्थाई जोत जलाई कि अंधेरे दिलों में ज्ञान के चिराग रोशन हो गए। सूफी सिलसिले के एक बुजुर्ग ’बाबा फरीद गंज शकर‘ थे। जिनकी याद में आज तक पंजाब के लोग उनके नाम से जुडे हुए फरीदकोट शहर में उनके आंगन पर्व का जश्न मनाते हैं।
हजरत बाबा शेख फरीदउद्दीन मसूद गंज शकर उन सादिक व सिद्दीक में से थे जिन्हें खुदा से दिली इश्क व मोहब्बत थी। वह खुदा के उन खास बंदों में से थे। जिन्हें खुदा का दीदार नसीब होता था और वह खुदा के रंग में रंग जाते हैं और खुदा की तारीफ बयान करते हैं,
वो अक्ल कहां जो तेरे कमाल तक पहुंचे, वो रूह कहां जिसकी रसाई तेरे जलाल तक हो।
यह माना कि तूने हुस्न पर से नकाब उठा दी,
मगर वो आंख कहां जो तेरे जमाल को देख सके।
बाबा शेख फरीद गंज शकर के लिए मोहब्बत खुदाबंदी दुनिया की तमाम राहतों से ज्यादा अजीज और लज्जत आमेज थी और फिराक यार यानि अपने खालिद से दूरी में अपनी हालत को वो उस कोयल की सी बताते हैं जिससे जब उसके काले होने का सबब दरयाफ्त किया गया तो उसने इसकी वजह अपने प्रीतम से दूरी को माना। कहा जाता है कि खुदा की मोहब्बत का रास्ता बंदों से मोहब्बत की मंजिल से गुजरे बगैर नहीं मिल सकता। फिर पैगम्बर इस्लाम हजरत मोहम्मद साहब की एक हदीस है कि तमाम मखलूक खुदाबंदी के लिए लाजिम माना। इसलिए बाबा शेख फरीद के यहां भी सूई की बडी कद्र थी कैंची की नहीं। क्योंकि बाबा फरीद गंज शकर का काम टूटे दिलों की रफूगीरी का था न कि उन्हें काटना। वो मख्लूक ए खुदा की दिलदारी हज्जे अकबर मानते हैं।
मेहबूब-ए-इलाही हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया को बैत करने के बाद हजरत बाबा शेख फरीद को जो नसीहतें कीं। उनमें दुश्मनों को खुश करने और हकदारों को हक देने पर बहुत जोर दिया। आज यह बात हमें कुछ अजीब लगे क्योंकि हम जिस दौर में जी रहे हैं वहां दोस्ती की भी बुनियाद गर्ज व तलब पर रखी जाती है और हर हक अपना समझा जाता है, दूसरों से तो हम सिर्फ फर्ज के लिए तालिब होते हैं जबकि बाबा फरीद ने जो मंसरे हयात पेश किया और जिस पर वह हमेशा अलमपैरा है वह यह था कि ए फरीद जो तुझे अजीयत (दुख) पहुंचाये तू उसके जवाब में उसको दुख मत पहुंचाना, बल्कि उसके घर जाकर उसके कदम चूम। यही वह तालीम थी जिसका सिलसिला हमें बाबा फरीद के जांनशीन हजरत निजामउद्दीन औलिया के यहां मिलता है। वो कहते हैं कि जो मुझे दुख दे वह खूब सुख पाये। उसके जीवन का हर फूल कांटों रहित हो। हजरत बाबा फरीद गंज शकर रह. ने संयम और नम्र स्वभाव की शिक्षा दी और सच्चाई की तरफ बुलाया और इंसान जो खुद दूसरों के दुख का कारण बनता है, उसको उसकी असलियत से आगाह किया। उन्होंने कहा इंसान को पैदा होने में कम से कम नौ महीने लगते हैं, लेकिन इस दुनिया से संबंध टूटने में क्षण भर भी नहीं लगता। यह शरीर तो मिट्टी का ढेर हो जायेगा और फिर कब्र को ही उसका घर बनना है। वह अनजान इंसान को बताते हैं कि देख लो- कार्तिक के महीनों में खेतों में अक्सर कुंजी आती है और चैत के महीनों में जो गल्लों में आग लगती है और सावन के महीने में बादल गरजते हैं और बिजली चमकती है। सर्दी ेके मौसम में पत्नी की बाहें अपने शौहर के गले में पडी हुई सुन्दर दिखाई देती हैं। लेकिन यह सब सदैव के लिए समाप्त होने वाली हैं। यह समझ लेना चाहिए कि मनुष्य को एक दिन आखिर इस दुनिया को छोडना है। जमीन आकाश से पूछती है कि वह मल्लाह कहां गये जो लोगों को दरिया पार कराते थे?
उसका उत्तर है कि पता नहीं कहां गये, हां इतना मालूम है कि वह इस वक्त कब्रांे में दफ्न हैं।
इसलिए बाबा फरीद रह. का उपदेश है कि अक्ल रखने वाले को काले कर्तव्य नहीं करने चाहिए। दूसरों की बुराईयों या दूसरों की त्रुटियां देखने के बजाये उसे स्वयं अपने गिरेबान में मुंह डाल कर देखना चाहिए तो उसे मालूम होगा कि उस जैसा काले कर्म करने वाला कोई दूसरा नहीं है। इसलिए उनका उपदेश है कि आदमी को दर्वेश वाले गुण रखना चाहिए और चार बातों पर अमल करना चाहिए।
1. अपनी आंखों को बंद कर ले ताकि खुदा के बंदों की गल्तियां न देख सके।
2. कानों को बहरा कर ले ताकि जो बातें सुनने के काबिल न हों उसको न सुन सके।
3. जबान को गूंगी कर ले कि जो बातें कहने के काबिल न हों उनको न कहे।
4. पांव को लंगडा रखे कि जब उसकी इच्छा बेकार व गलत काम की तरफ जाना चाहें तो न जा सकें।
सूफिया की शिक्षा के अनुसार हजरत बाबा फरीद रह. ने भी इख्लास व अख्लाक और अहसान व सुलूक के लिए भरपूर कोशिश की। आप रह. ने खुदा से मिलने को असल मकसद करार दिया और कहा कि अगर अपने मालिक से मिलना चाहते हो तो रास्ते की घास बन जाओ, जो काटी जाती है, रौंदी जाती है और पेडों की तरह बर्बाद हो जाओ जो गर्मी, सर्दी और कुल्हाडे की चोट झेलते हैं। वो फिर इख्लास व अख्लाक पर जोर देते हुए कहते हैं कि हर इंसान से नेकी का बर्ताव करो। उसके लिए दिल में किसी प्रकार की बुराई मत रखो। अगर इस प्रकार होगा तो इंसान किसी भी बीमारी में मुब्तिला नहीं होगा। सदा खुश रहेगा और अपने मकसद को पा लेगा और वो इंसानों को आपसी मामलात में मतलबपरस्ती और फायदामंदी को अच्छा नहीं समझेगा। उनका कहना है कि जहां द्वेष (हिस्र, हवस) हैं, वहां प्रेम कहां? अगर द्वेष है तोे ऐसी मोहब्बत झूठी है जिस पर मूसलाधार बारिश हो रही हो, क्योंकि वह जल्द मिट ही लौट जायेगा। एक और जगह वह कहते हैं बातों से सैकडों की दोस्ती की डेंग मारते हैं, लेकिन वास्तविक दोस्त ढूंढने पर भी नहीं मिलता। मैं तो वास्तविक दोस्त और गमख्वाह की मोहब्बत में गीले उपले की तरह जलता रहता हूं। इसलिए उनकी राय में जरूरी है कि इंसान अपने दिल को साफ व हमवार करके रास्ते में आने वाले तमाम गड्ढों को समाप्त कर दे। ऐसा करने से वह अपने आपको दोजख (नरक) की आग से बचा सकता है।
खुदा की खुदाई और इंसानियत के आदर का यह सूफीवाद का कानून बाबा हजरत शेख फरीद उद्दीन मसूद गंज शकर रह. ने ऐसे समय में पेश किया था जब बुराईयों पर घमंड और बदमस्त आदमी किसी की भी आबरू (इज्जत) उतराने पर उतारू रहता था। जब घमंड के नशे में अपनी झूठी आन की बरकरारी के लिए बस्तियां उजाडी जाती थीं। लहलहाते खेत बर्बाद कर दिये जाते थे। जब खाद की जगह इंसानी खून जमीन की गिजा बनता था और आदमियों के सरों की खेतियां काटी जाती थीं। क्या आज एक बार फिर जब नफरत की जहरीली हवा और नफ्सपरस्ती का तूफान हमारी समाजी व रूहानी जीवन को बर्बाद कर देने के लिये तैयार है। क्या हम इन शिक्षाओं से कोई सबक नहीं सीख सकते?