भाई-बहिन के पावन स्नेह का पर्व रक्षा बंधन

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रक्षा बंधन हिन्दुओं का अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है जो पूरे उत्साह से साथ मनाया जाता है। जाति और धर्म की सीमाएं लांघ यह मानव एकता के पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है। इस बात को इतिहास की कई घटनाएं प्रभावित करती हंै। मुगल शासक हुमायूं को रानी कर्मवती ने राखी भेजी। हुमायूं ने राखी के महत्व और कर्णावती की भावनाओं को समझा और अपना कर्तव्य निभाया। उसने कर्णावती के सम्मान की रक्षा के लिए गुजरात के बादशाह को ललकारा और उससे युद्ध किया।
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन पर्व मनाया जाता है। बहिनें अपने छोटे-बड़े भाइयों को अदम्य उत्साह से बंधन यानी राखी बांधती हैं। चारों ओर खुशी बिखरी दिखाई देती है। बहिनें ईश्वर से अपने भाई की लम्बी आयु और सुख-सम’द्धि की कामना करती हैं। अपने हाथ से भाई का मुंह मीठा कराती हैं। रोली-चावल से टीका करती हैं। नारियल (गोला) और पान की परम्परा भी निभाई जाती है। चौक पूज कर पट्टे या चौकी पर भाई को बैठाकर भाई की कलाई पर राखी बांधने का दृश्य देखने योग्य होता है। हां, भाई भूल जाए पर वे रुमाल या अंगौछे से भाई का सिर ढंकना नहीं भूलतीं। पूरे दिन हर घर का वातावरण हर्ष-उल्लास से भरा रहता है। भारत ही नहीं पूरे विश्व में यह पर्व पूरे उत्साह से मनाया जाता है।
रक्षा बंधन के बारे में हमारे प्राचीन गं्रथों में भी अनेक प्रमाण मौजूद हंै। यह पावन पर्व देव लोक में भी मनाया जाता था। देव रानियां अपने पतियों के हाथों में रक्षा कवच बांधकर उनकी विजय की कामना करती थीं। देव-दानव युद्ध प्राय: होते ही रहते थे, इसी से देव रानियां अपने पति के लिए चिंतित रहा करती थीं। एक बार देवराज इंद्र के भी ऐसे ही युद्ध में दानवों ने छक्के छुड़ा दिए थे। देवता भाग खड़े हुए। इंद्र किसी तरह जान बचाकर गुरू बृहस्पति के पास पहुंच गये और उन्होंने आप बीती सुनाई। उनकी बात सुनकर गुरू ने श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षा विधान के बारे में बताया। उन्होंने इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी को रक्षा विधान की विधि भी समझाई। इन्द्राणी ने निर्देशनुसार श्रावण पूर्णिमा को प्रात:काल सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न कर देव-पुरोहितों के स्वास्तिवचन के बीच इन्द्र की दांयी कलाई में रक्षा कवच बांध दिया। इसी रक्षा कवच के कारण देवों ने दानवों को पराजित किया और इन्द्र विजयी हुए। इस युद्ध में देवों की सहायता के लिए पृथ्वी से अनेक राजा गये थे। वहां उन्होंने रक्षा कवच या रक्षा बंधन का प्रताप देखा तो उन्होंने गुरू बृहस्पति से निवेदन किया कि वे रक्षा मंत्र, रक्षा विधान और रक्षा बंधन उन्हें भी विधिवत समझाएं ताकि वे भी इन्हें पृथ्वी पर ले जाएं।
श्रीकृष्ण के समय की बात है। तब असुर काफी शक्तिÓााली हो गये थे। असुर ऋषि- मुनियों-तपस्वियों और अन्य लोगों का बहुत परेÓाान करते थे, उन पर अत्याचार करते थे। धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ आदि में वे सदा बाधा पहुंचाते थे। छोटे-छोटे बच्चों को चुराकर ले जाते थे। लोग भय के मारे अपने घरों से भी बहुत आवÓयक होने पर निकलते थे। श्रीकृष्ण को असुरों के अत्याचारों के समाचार मिलते रहते थे। एक दिन लोग इकट्टे होकर उनके पास शिकायत लेकर आए। तब श्रीकृष्ण ने असुरों के उत्पाद से लोगों की मुक्ति का संकल्प लिया।
श्रीकृष्ण और बलराम असुरों का नाश करने के लिए तैयार होने लगे। अपनी चतुरांगिणी सेना को तैयार होने का आदेश दे दिया। श्री कृष्ण का क्रोध देख बहिन सुभद्रा डर गयी। वह अपने भाई की शक्ति-सामथ्र्य के साथ-साथ असुरों के मायाजाल से भी भलीभांति परिचित थी। उसने तुरन्त पूजा की थाली सजाई और गौरा-पार्वती के मंदिर पहुंचकर अपने भाइयों के लिए मंगलकामना की पूजा करने लगी। पूजा के दौरान गौरा जी के गले से रेशमी धागा नीचे गिरा जिसे सुभद्रा ने अपने दोनों भाइयों की कलाइयों पर बांध दिया। असुरों से युद्ध में विजयी होकर श्रीकृष्ण और बलराम सकुशल वापस लौट आए तो सुमद्रा की प्रसन्नता का ठिकाना न था।
रक्षा बंधन हमारी भावनात्मक एकता व सामाजिक सौहार्द्र का पावन त्यौहार है। बंगाल और बिहार में इस दिन ब्राह्मण वर्ग की पूजा की जाती है। गुजरात में इस अवसर पर गरबा नृत्य व नाटक आदि कार्यक्रमों का आयोजन होता है। दक्षिण भारत में ब्राह्मण एवं सभ्रांत वर्ग के लोग निराहार रहकर सवा लाख गायत्री मंत्र का जाप करते हैं। पूजा-अर्चना के साथ-साथ पुरोहित या ब्राह्मण के द्वारा यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण करते हैं। ब्राह्मण-पुरोहित को इस दिन पर्याप्त दान दक्षिण देने की भी परम्परा है।
जैन धर्मावलम्बी रक्षा बंधन के अवसर पर मुनियों, विशेषत: विष्णु पुराण मुनि की पूजा करने के उपरांत ‘रक्षा बंधन’ की परम्परा निभाते हैं। धीरे-धीरे भाइयों के लिए मंगलकामना और राखी बांधने का प्रचलन निरंतर बढ़ता ही गया। प्राय: बहिनें रेÓामी धागा गौरा जी को समर्पित करने के बाद उसे अपने भाइयों की कलाई पर बांधती हैं। उनकी आरती उतारते हुए दीर्घायु, उत्तम स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि की कामना करती हैं और मिठाई खिलाती हैं।
भाई-बहन से दूर रहता हो तो इस दिन संदेश वाहक, डाक या कूरियर आदि माध्यमों से राखी भेजना बहन भूलती नहीं है। ताकि उसके प्रिय भाई की कलाई सूनी न रहे। इसी बहाने सही बहिन-भाई एक दूसरे को याद कर लेते हैं।
रेशम के धागे वाली राखी का स्वरूप भी समय के साथ-साथ बदलता गया है। विभिन्न आकार-प्रकार डिजाइन की सस्ती-मंहगी राखियों से दुकानें सज जाती हैं। सेवइयां, मिठाइयां व अनेक पकवानों से इस पर्व को और मधुर रूप मिल जाता है।
अब डिजाइनर राखियों का चलन भी बढ़ा है। स्वयं बंधने वाली राखी फ्रेंडशिप बैंड जैसी होती है जो कलाई पर लपेटे जाते ही ‘आटोमैटिक’ हो जाती है। यह आसानी से उतारती भी नहीं है। हाई टैक राखियां भी आधुनिक समय की पहचान कराती हैं। मोबाइल फोन वाली राखी, वीडियो गेम वाली बैटरी युक्त राखी, स्क्रीन वाली राखी जिस पर मजेदार संदेश भी आते हैं आदि के अलावा तिरंगे वाली देशभक्ति राखियां भी मिलती हैं जिन पर मेरा भारत महान जैसे वाक्य अंकित होते हैं। बहुत छोटे यानि नन्हे भाइयों के लिए खिलौने वाली राखियां भी हैं जिन पर छोटे आकर्षक खिलौने व बच्चों के प्रिय कार्टून पात्र भी मौजूद होते हैं।
इस प्रकार रक्षा विधान को अपनाकर पृथ्वी पर राजा भी आसुरी शक्तियों पर विजय पाते रहे। बाद में समय बीतते-बीतते यह ‘रक्षा विधान’ पर्व भाई-बहिन के पवित्र स्नेह का बंधन यानी रक्षा बंधन के रूप में विकसित होकर कए सुदृढ़ परम्परा बन गया जिसे घर-घर में पूरे उल्लास और सम्मान के साथ मनाया जाने लगा।
श्रावण मास की रिमझिम बरखा और चारों ओर बिखरी मनमोहक हरियाली मानो प्रकृति इस परिधान को धारण कर इठला रही है। इस पर जगह-जगह पड़े झूले, उन पर झूलती मधुर गीत गाती-गुनगुनाती लड़कियां सावन को स्मरण करती हैं। ऐसे मौसम में विवाहोपरांत पराई हो चुकी बहिनें अपने भाई से मिलने और उसकी कलाई में राखी बांधने को व्याकुल हो उठती हैं।
समय के साथ-साथ भाई-बहिन के रिश्ते में भी बदलाव आया है। इसके पीछे अनेक कारण हैं जिनके चलते भाई-बहिन के बीच अपनत्व में कमी आई है। अब कुछ अपवादों को छोड़ ऐसा आभास होता है मानो रक्षा बंधन पर्व की मात्र औपचारिकता निभाई जा रही है। विभिन्न स्वार्थ, गलतफहमियां, ईष्र्या, दुर्भावना, विवशता, आर्थिक परेशानियां, अपेक्षाएं आदि का ग्रहण इस भाई-बहिन के स्नेह भरे पावन पर्व को भी लग गया है।
सबसे बड़ा रुपैया वाले इस युग में अर्थ के प्रभाव से रक्षा बंधन भला कैसे बचा सकता है। पवित्र संबंध भी ‘अर्थ’ की भेंट चढ़ गया। इस प्रकार संबंध बनना, बिगडऩा और बने रहना भी अर्थ चक्कर में फंस गये हैं। बहिनें राखी बांधने से पहले ही अपनी फरमाइश भाई के सामने पेश कर देती हैं। भले भाई इस मामले में असमर्थ हो। परिणाम यह हुआ है कि मजाक में ही सही भाई ही पूछ लेता है कि इस बार राखी बांधने की फीस या जुर्माना क्या देना होगा।
इस प्रकार रेशम के नर्म धागे से बंधने वाले इस पावन रिश्ते को निभाने के मामले में धन बीच में नहीं आना चाहिए। राखी के बांधने के उपरांत जो कुछ मिले उसे प्रेम भरा उपहार मानना चाहिए, इसे भाई-बहिन के प्रेम का प्रतीक मानना चाहिए। इस विश्व भर के अनूठे पर्व पर प्यार के बंधन को कायम रखने के बहिन का सहज-सरल-प्रेम और भाई का विश्वास ही पर्याप्त है। पर बदली सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों के कारण स्वत: इस मामले में बदलाव आया है।
ऐसा नहीं है कि धन के कारण भाई-बहिन का प्यार बिल्कुल ही खत्म हो गया हो। हां, आधुनिक मशीनी जीवन का प्रभाव इस पर्व पर भी पड़ा है। अब रांखी बंधवाते हुए भाई के मन में बहिन की रक्षा करने का भाव भी उतना मजबूत नहीं रहा है। बहिन की पुकार सुन भाई दौडऩे से पहले अनेक बातों पर विचार करता है। साथ ही परेशानी में घिरे भाई की मदद करने के लिए बहिन भी अब आतुर नहीं दिखती। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो कमोवेश यही स्थित आज हमारे सामने सभी जगह है।
रिश्तों की मिठास में खारापन घुल गया है जो मिठाई खिलाकर भी दूर नहीं हो पाता है। सस्ती से सस्ती और मंहगी से मंहगी राखी भी इस रिश्ते को कसकर बांध पाने में सफल नहीं है। कुछ भी हो, राखी की प्रासंगिकता सदा बनी रहेगी भले ही विभिन्न कारणों से रिश्तों में वैसा जुड़ाव न रहे जो होना चाहिए।- मंजू गोपालन