भारत में मुस्लिम समाज के स्वरूप और उसकी चुनौतियों तथा बदलते हुए परिवेश में उसकी भूमिका की चर्चा करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि भारतीय मुसलमानों में भी वैसी ही विविधता है जैसी किसी अन्य धर्म को मानने वाले भारतीय समूहों में हो सकती है। उदाहरण केलिए कश्मीर और केरल के मुसलमानों का धर्म एक है, लेकिन उनमें बहुत सी असमानताएं है। हालांकि इस्लाम में जाति की परिकल्पना नहीं है, लेकिन भारतीय वर्ण व्यवस्था केकारण भारतीय मुसलमान बड़ी हद तक जातियों पर विश्वास करते हैं।
भारतीय मुसलमानों को समझने का कोई भी प्रयास उस समय तक अधूरा रहेगा, जब तक इतिहास में जाकर परिस्थितियों का आकलन न किया जाए । १८५७ केपहले देश में सामंतों का प्रभुत्व रहा है, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों ही स8ाा में हिस्सेदारी किया करते थे, लेकिन १८५७ केबाद स्थितियां बदलने लगी थीं। १८५७ का महाविद्रोह भारतीय जनता-किसानों, कारीगरों, सिपाहियों, भूतपूर्व शासकों, मौलवियों आदि का विद्रोह था, जिसमें हिंदू और मुसलमान सभी शामिल थे, लेकिन अंग्रेजों का एक तबका इस विद्रोह केपीछे मुसलमानों की केंद्रीय भूमिका मानता था। क्रिस्टोफर हि4बर्ट ने अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट 6युटिनी ऑफ इंडिया १८५७Ó में साफ लिखा है कि विद्रोह के पीछे फकीर और मौलवी थे।
१८५७ में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने उन सभी भारतवासियों को दंडित किया जो विद्रोह में शामिल थे, लेकिन खासतौर पर उनके निशाने पर मुसलमान रहे। दिल्ली के प्रमुख मुसलमान सामंतों, विद्वानों को फांसी पर लटकाने केअलावा अंग्रेजों ने जामा मस्जिद और अन्य धार्मिक स्थलों का अपमान किया था। मुसलमानों को दिल्ली शहर में रहने की अनुमति विद्रोह समाप्त हो जाने के छह महीने बाद मिली थी।
१८५७ के बाद या उससे पहले कलक8ाा में अंग्रेजों का राज स्थापित हो जाने केबाद पाश्चात्य शिक्षा का जो लाभ बंगाल के हिंदू समाज को मिल रहा था उसके प्रति मुसलमान सशंकित और उदासीन थे। वे पाश्चात्य स8ाा को अस्वीकार कर रहे थे। यही कारण है कि भारत का मुस्लिम समाज हिंदू समाज की तुलना में शिक्षा तथा समाज सुधार के क्षेत्र में लगभग सौ साल पीछे हो गया। हिंदू समाज में सुधार के अग्रदूत राजा राम मोहन राय १७७४-१८३३ के लगभग सौ वर्ष बाद मुसलमानों में नई चेतना के संचार का काम सर सैयद अहमद खां ने १८१७-१८९८ में किया था। उस युग में पाश्चात्य शिक्षा मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग का निर्माण कर रही थी। जिसका अंतत: देश की स8ाा पर अधिकार होना था। इस प्रक्रिया में मुसलमान सौ साल पीछे चले गए थे। सर सैयद अहमद खां और उनकी मंडली के शिक्षा और सुधार आंदोलन के परिणाम स्वरूप १९वीं शता4दी में एक पढ़ा-लिखा मुस्लिम मध्यम वर्ग पैदा हो चुका था, लेकिन १९४७ के विभाजन के दौरान यह मध्यम वर्ग पाकिस्तान चला गया और उ8ार भारत के मुसलमानों की वही दशा हो गई जो १८५७ के महाविद्रोह के बाद हुई थी। अर्थात वे नेतृत्वविहीन हो गए। मध्यम वर्ग विहीन समाज बहुत अंधविश्वासी होता है। यही स्थिति मुसलमानों की हो गई थी।
१९४७ केबाद अब मुस्लिम समाज में एक मध्यम वर्ग पैदा हो चुका है, लेकिन यह हिंदू समाज के मध्यमवर्ग की तुलना में छोटा तथा उतना प्रभावकारी नहीं है। यही कारण है कि आज मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा मुल्लाओं, मौलवियों, पीरों, फकीरों आदि के प्रभाव में है। मुस्लिम समाज के ये ठेकेदार विभिन्न राजनैतिक दलों से समय-समय पर निजी गोटे फिट करके मुस्लिम वोट कभी इधर डलवा देते हैं, कभी उधर। लेकिन प्रसन्नता की बात है कि पिछले दस बारह साल से इस दिशा में कुछ सार्थक संकेत मिल रहे हैं। पहली बात यह कि कुछ ऐसे फतवे आए हैं, जो बहुत सकारात्मक और प्रगतिशील हैं। दूसरे यह कि मकतबों और मदरसों के पाठ्यक्रम बदले जा रहे हैं। अब वहां अंगरेजी, हिंदी के साथ-साथ अन्य विषय भी पढ़ाए जाने पर जोर दिया जा रहा है। कंप्यूटर तथा दूसरे तकनीकी विषय धार्मिक शिक्षा के साथ जोड़ दिए गए हैं ताकि रोजगार के नए क्षेत्र खुलें और युवाओं को निराशा न हो। लेकिन आधुनिक शिक्षा को आगे बढ़ाने वाली संस्थाएं, जो वैसे तो हर धर्म और जाति के लोगों के लिए खुली हैं, पर विशेष रूप से मुस्लिम समाज की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं, अपनी भूमिका उस रूप में नहीं निभा रही हैं जैसी अपेक्षा की जाती है। मुस्लिम समाज में शिक्षा और जागरूकता की भयानक कमी को देखते हुए पुरानी शिक्षा संस्थाओं जैसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया आदि को एक बड़ी भूमिका निभानी होगी। मुस्लिम समाज, जो ऐतिहासिक कारणों से सौ साल पीछे चला गया था, आज भी पीछे ही है। यह समय और देश के हित में होगा कि उसे आगे बढ़ाया जाए, ताकि वह दूसरे समूहों के साथ कदम से कदम मिला कर चल सके।
मुस्लिम समाज में आज हो 1या रहा है? 1या कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन है? 1या शिक्षा को लेकर कोई बड़ी पहल है? 1या मुस्लिम समाज भारतीय लोकतंत्र में अपनी भूमिका पहचानने का प्रयास कर रहा है? 1या मुस्लिम समाज अपनी चहारदीवारी से बाहर निकल रहा है तथा बहुसं2यक समाज के साथ अपने रिश्तों को व्या2यायित कर रहा है? पूरे देश में बड़े स्तर पर जो मुस्लिम विरोधी प्रोपेगैंडा हो रहा है, उसके बारे में मुस्लिम समाज 1या सोचता है? मुस्लिम समाज में सुधार आंदोलनों की बहुत जरूरत है। आंकड़े गवाह हैं कि मुस्लिम समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की स्थिति दयनीय है। महिलाओं और बच्चों का कुपोषण भयानक समस्या है। ऐसे समाज में सरकारी प्रयासों के अतिरि1त 1या कोई सामुदायिक पहल हो रही है? ये कहा जा सकता है कि पूरे देश में स्वयंसेवी संस्थाएं जो कार्यक्रम चला रही हैं उनके अंतर्गत मुस्लिम समाज भी आता है। पर सवाल यह है कि समस्याएं, जो कहीं न कहीं परंपरा या धार्मिक मान्यताओं से जुड़ी हैं और समाज पर खराब प्रभाव डाल रही हैं, उनका प्रतिरोध तो समाज विशेष के अंदर से ही होना चाहिए। उदाहरण के लिए परदा समस्या है। भारत में प्राय: मुस्लिम महिलाएं बुरका पहनती हैं, जिससे पूरा शरीर और चेहरा ढंका रहता है। देखने केलिए आंखों की जगह जाली बनी होती है। दूसरे देशों की मुस्लिम औरतें हिजाब करती हैं, जिसमें पूरा चेहरा खुला होता है, सिर ढंका होता है। तुर्की में आधा चेहरा ढंकने का रिवाज है। इन हालात के मद्देनजर 1या भारतीय मुसलमानों में कोई चिंतन हो रहा है? कुपोषण, पर्यावरण, रोजगार आदि को लेकर कोई पहल नहीं दिखाई देती। सामुदायिक चेतना पर विशेष बल देने वाले धर्म इस्लाम में सामुदायिक चेतना धार्मिक मामलों तक 1यों सीमित है? वह समाज के हित में आगे 1यों नहीं बढ़ती?
सांप्रदायिकता एक भयानक समस्या है, जिसमें पूरे समाज की भयानक क्षति होती है। आंकड़े गवाह हैं कि प्राय: सांप्रदायिक दंगों में मुसलमान ज्यादा मारे जाते हैं और उनका ज्यादा नुकसान होता है। ऐसे में मुस्लिम समाज की एक बड़ी मांग यह होनी चाहिए थी कि किसी भी तरह सांप्रदायिक दंगों को रोका जाए। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि मुस्लिम समाज की ओर से यह मांग कभी बहुत प्रभावशाली तरीके से नहीं उठाई गई। यही कारण है कि संसद ने दंगों पर तो चर्चा की, कमीशन तो गठित हुए लेकिन दंगे और सांप्रदायिकता फैलाने वालों के संबंध में राष्ट्रीय नीति नहीं बन सकी। मुसलमानों के वोट पर यूपी में स8ाा प्राप्त करने वाले दल भी इस मामले में 1यों चुप रहते हैं? गुजरात नरसंहार और बम विस्फोट की घटनाओं ने सांप्रदायिकता को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया कि उस पर बहुत गंभीरता से विचार होना चाहिए। पर फिलहाल तो सांप्रदायिकता मिटाने, दंगों में सजा दिए जाने आदि को लेकर मुसलमान कोई बड़ा हस्तक्षेप करते नहीं दिखाई देते।
भारत में लोकतंत्र का बने रहना सभी अल्पसं2यक समुदायों को स्वतंत्रता और सुरक्षा देने के लिए आवश्यक है। अब सवाल यह है कि भारत का सबसे बड़ा अल्पसं2यक समूह यानी मुसलमान लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने में 1या भूमिका निभा रहा है? 1या लोकतंत्र के चौथे खंभे अर्थात मीडिया में उनकी प्रभावकारी उपस्थिति है? 1या लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चलाए जाने वाले आंदोलनों में वे सक्रिय हैं? उनको, जिनके लिए लोकतंत्र बहुत आवश्यक है, यह सोचना जरूरी है कि लोकतंत्र को कैसे मजबूत बनाया जाए? आज देश कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा है और इन चुनौतियों का सामना किए बिना कुछ हो ही नहीं सकता।
योग्यता से ही बदलेगी छवि
नवयुवक मुसलमानों को अपने चुने हुए मैदानों में पूरी योग्यता प्राप्त करनी चाहिए, ताकि कोर्स पूरा होने केबाद वह जहां भी जाएं और जो कोई भी उन्हें नौकरी दे, उन्हें एक बहुमूल्य संप8िा समझे। उन्हें यह मान कर चलना चाहिए कि केवल योग्यता ही उनके काम आ सकती है, सरपरस्ती नहीं। उनका भविष्य इसी में सुरक्षित है कि जो काम उनके ऊपर छोड़े जाएं, उन्हें वे पूरी ईमानदारी, मेहनत और लगन से पूरा करें। तब जाकर वे अपने विरुद्ध जारी सांप्रदायिक पक्षपात का अंत कर सकेंगे। इसके साथ ही साथ उन्हें एक ही समय में अपने भारतीय और इस्लामी उ8ाराधिकार से लगाव पैदा करना होगा और दोनों पर एक समान गौरव का प्रदर्शन करना होगा। – असगर वजाहत
(‘हंसÓ में प्रकाशित विशेषांक ‘भारतीय मुसलमान वर्तमान और भविष्यÓ से)