भोपाल के संस्थापक सरदार दोस्त मोहम्मद खान

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ब्रिटिश भारत की 560 रियासतों के अन्दर मुस्लिम रियासतों में हैदराबाद के बाद भोपाल रियासत का नंबर था। जिसको सरदार दोस्त मो. खान ने बसाया था। सरदार दोस्त मोहम्मद खान अपने जन्म स्थान (अफगानिस्तान में) से चल कर अपने परिवार वालों के साथ 1695 के आरम्भ में जलालाबाद (उ.प्र.) में आकर ठहरे। एक साथी से किसी बात पर विवाद हो गया और तलवारें खिंच गईं। वह इनके हाथ मारा गया, वहां से घोडे पर सवार होकर भाग निकले।
वहां से यह पानीपत पहुंचे, फिर दिल्ली पहुंच कर बादशाह (बहादुरशाह प्रथम) की फौज में नौकरी कर ली। बाद में इनको तरक्की देकर मालवा भेज दिया गया। पूरे देश में अफरा-तफरी का माहौल देखकर इनका भी अपनी सत्ता स्थापित करने का इरादा हुआ।
और वह फौज की सेवा से त्यागपत्र देकर 50 सवारों की टुकडी को साथ लेकर महारानी मंगलगढ के यहां रहने ल्रगे। कुछ ही समय मे इन्हांेने रानी का विश्वास जीत लिया और रानी ने इनको अपना बेटा बना लिया। रानी के देहान्त के पश्चात् उनकी सारी संपत्ति इनके पास आ गई। इससे वहां के राजपूत इनके विरोधी हो गए। इस कारण वहां से निकल कर सरदार दोस्त मोहम्मद खान ने बैरसिया आकर काली मस्जिद के पास डेरा डाला।
ताज मोहम्मद खान जो कि बैरसिया के जागीरदार थे, डाकुओं और लुटेरों के कारण अपनी जागीर की व्यवस्था भली प्रकार नहीं कर पा रहे थे। सरदार दोस्त मोहम्मद खान ने काजी मोहम्मद सालेह और संदल राय के द्वारा 30 हजार रूपये वार्षिक पर इस क्षेत्र को ले लिया जो इनकी सफलता की पहली सीढी साबित हुआ।
पारा सेवन के ठाकुर की निर्दयता के कारण वहां के नागरिक उससे परेशान थे, वहां की जनता सरदार साहब से मदद मांगने आई। सरदार दोस्त मोहम्मद खान ने पारा सेवन के ठाकुर से संघर्ष कर उसे पराजित कर दिया और यह क्षेत्र भी इनके अधीन हो गया। इस विजय ने इनकी सफलता के द्वार खोल दिये इसके पश्चात् आगे बढकर मेतवाडा, शम्साबाद का क्षेत्र जिसमें 84 गांव थे उन पर भी विजय प्राप्त कर अपने अधीर कर लिये
इसके पश्चात उन्होंने अपनी रियासत को फैलाना जारी रखा। जगदीशपुर पर भी इनका अधिकार हो गया। इनकी निडरता व वीरता के किस्से पूरे क्षेत्र में फैल गये इनके जगदीशपुर पर अधिकार के लिये दरवेश इस्लाम शाह ने ईश्वर से प्रार्थना की थी, अतः इन्हांेने जगदीशपुर का नाम इस्लाम नगर कर दिया। इसी इस्लाम नगर में दरवेश की मजार आज भी बनी हुई है।
इसी समय मालवा क्षेत्र बाबूराय ने बादशाह फर्रूखसिवार के विरूद्ध विद्रोह कर दिय। इस विद्रोह को कुचलने के लिए बादशाह साहब को फरमान भेजा। सरदार दोस्त मोहम्मद खान ने उसे पराजित कर विद्रोह कुचल दिया। इससे प्रसन्न होकर बादशाह ने उन्हें पुरस्कार व खिताब दिये व जागीर दी।
ृ विदिशा के शासक मोहम्मद फारूक से सरदार दोस्त मोहम्मद खान की किसी बात पर ठन गई ओर इसी कारण दोनों के बीच जमकर युद्ध हुआ। इसमें पहले तो फारूक की जीत होती लगी, किन्तु सरदार साहब ने चालाकी से उसे मार डाला। विजय के पश्चात् उसी के घोडे पर चढ कर किले में प्रवेश किया।
इस विजय के पश्चात् उन्होंने दक्षिणी परमनों महलपुर, ग्यारसपुर, सीहोर, इछावर और दोराहे पर भी आसानी से विजयश्री प्राप्त की। आष्टा के शासक से इनका जमकर संघर्ष हुआ और अंततः आष्टा भी इनके अधीन हो गया। शुजालपुर के शासक बचे राम ने बिना संषर्घ अपना क्षेत्र सरदार दोस्त मोहम्मद खान को सौंप दिया।
बचे राम बाद में रियासत के बहुत वफादार साबित हुये। उज्जैन के राय बहादुर ने आगे बढकर सरदार साहब पर आक्रमण कर दिया, किन्तु उसे पराजय का मुंह देखना पडा। इसके बाद राजा भागडे ने होशंगाबाद को भी सरदार साहब को पेश कर दिया।
इसके पश्चात सरदार दोस्त मोहम्मद खान ने भोजपुर और सांची की भी अपने अधीन कर अपनी रियासत मंे मिला लिया।
दिल्ली के बादशाह की सेवा में रेशमी पारचे जडा दहनहार जब सरदार साहब ने प्रस्तुत किया तो उन्हें वहां से दिलेरजंग का खिताब मिला।
भोपाल राजधानी बना
इसी बीच निजामशाह की विधवा रानी कमलापति ने अपने पति के देहान्त के बाद उनकी मौत का प्रतिशोध लेने के लिए (जिन्हें उनके भतीजों ने मार डाला था) जैनपुर बाडी पर हमले के लिए सरदार साहब को एक लाख रूपये का आग्रह प्रस्तुत किया। सरदार साहब ने विद्रोही गोन्डों की परास्त कर बाडी को भी अपनी रियासत में शामिल कर लिया। रानी ने पचास हजार रूपये नगद दिये और शेष पचास हजार रूपये के बदले भोपाल सरदार दोस्त मोहम्मद खान को सांैप दिया।
रानी कमलापति ने सरदार साहब को अपना बेटा बना लिया, इसके पश्चात् उनका गन्नौर पर भी कब्जा हो गया। अब रियासत का कुल क्षेत्रफल 50 हजार वर्गमील का हो गया था। इसलिए अब राजधानी बनाये जाने का प्रश्न सामने आया, अभी तक इस्लाम नगर से ही हुकूमत के सभी कार्य चलाये जा रहे थे। सरदार साहब को भोपाल का खूबसूरत क्षेत्र जो झीलों और पहाडियों से भरा था काफी पसंद आया और किले एवं शहर की नींव काजी मोअज्जम संभली के हाथों रखी गई। इस किले नाम दोस्त मोहम्मद खान ने अपनी पत्नी फतह बीबी के नाम पर फतेहगढ रखा।
आसिफ जाह से सुलह
आसिफ जाह निजामुल मुल्क 1717 में मालवा आये और दिलावर अली खां से बुरहानपुर के पास इनका मुकाबला हुआ। सरदार साहब के भाई मीर अहमद अली खान ने दिलावर अली खान की मदद की। जब निजाम मालवा के दो बार सूबेदार होकर 1719 में दिल्ली से हैदराबाद के लिए लौटे तो इस्लाम नगर के करीब मय लश्कर के ठहरे, इस जगह का नाम बाद में निजास टेकरी हो गया।
इसी समय भोपाल के पास निजाम का युद्ध बाजीराव पेशवा से हुआ। किन्तु नादिर शाह के आक्रमण का समाचार सुनकर पेशवा से संधि कर निजाम वापस लौटे। दिल्ली से हैदराबाद की पुनः वापसी पर पिछली घटना के कारण निजाम ने सरदार साहब से लडाई का निश्चय किया था। दोस्त मोहम्मद खान ने दस लाख रूपये पर संधि कर ली, और यार मोहम्मद ने अपने पुत्र को इनके साथ भेज दिया। इस प्रकार हैदराबाद और भोपाल रियासतों के बीच मित्रता हो गई।
सरदार दोस्त मोहम्मद खान की 30 वर्षों की मेहनत के कारण रियासत की ठोस नींव स्थापित हो गई थी। 65-66 वर्ष की आयु मंे 1740 में सरदार साहब का देहान्त हो गया।
क्रमशःः